24.1.20

सर्वश्रेष्ठ प्रबंधक...?


      पिछले दिनों बहुचर्चित निर्भया केस में कोर्ट रुम के एक विशेष दृश्य के बारे में समाचारपत्रों में पढा कि मुजरिम को फांसी दी जाए या मुजरिम की फांसी को टाल दिया जाए इस विषय पर दो माताएं न्यायाधीश महोदय के समक्ष अपनी-अपनी भरी आँखों से समुचित न्याय की कामना कर रही थीं, जिनमें एक इस वीभत्स त्रासदी की शिकार हुई निर्भया की मां थी जो अपनी बेटी की युवावस्था में दुर्गति कर उसे अकाल मृत्यु की गोद में पहुंचाने वाले दरिंदो के लिये अविलंब फांसी की सजा की मांग कर रही थी जबकि दूसरी ओर उन्हीं प्रमाणित दरिंदों में से एक की मां थी जो अपने बेटे के जीवन के लिये याचना कर रही थी ।

      इस प्रकरण में हम जितना भी पलटकर पीछे तक देखें, निर्भया के हक की लडाई में जहाँ उसके माता-पिता की सार्वजनिक सक्रियता को गौर से देखा जावे तो उसके पिता से कहीं अधिक मुखर व जुझारु तौर पर उसकी मां ही लगातार अधिक सक्रिय दिखती आ रही हैं ।

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      बहुत पहले किसी कॉर्पोरेट हाउस ने मैनेजमेंट गुरुओं के एक सम्मेलन में प्रश्न पूछा गया था कि आप सफलतम प्रबंधक किसे मानते हैं ? तब विशेषज्ञों ने रोनाल्ड रेगन, नेल्सन मंडेला, चर्चिल, गांधी, टाटा, हेनरी फोर्ड, चाणक्य, बिस्मार्क व इन जैसे कई और नाम अपने उत्तर में बताये थे । किन्तु निर्णायकों के निर्धारित उत्तर था कि सर्वाधिक सफलतम प्रबंधक एक आम गृहिणी" होती है ।

      एक गृहिणी जो परिवार में किसी का भी ट्रांसफर, सस्पेंड या टर्मिनेशन नहीं कर सकती, ना ही किसी को वो अपॉइंट कर सकती है । किंतु फिर भी लगभग सभी से काम करवाने की क्षमता रखती है । किससे, क्या और कैसे करवाना है, कब प्रेम से काम करवाना है और कब झूठी-सच्ची नाराजगी दिखाकर काम निकलवाना है यह वो बखूबी जानती है और इसीलिये सफलतम प्रबंधक के रुप में उससे उपर किसी का स्थान नहीं माना जा सकता ।


      बड़े-बड़े उद्योगों में भी कभी इसलिए काम रुक जाता है कि आवश्यक संसाधन समय पर उपलब्ध नहीं हो पाए । किंतु किसी गरीब से गरीब घर भी नमक जैसी छोटी सी चीज तक भी कभी कम नहीं पड़ती । बहुत याद करने पर भी आप शायद ही कभी ऐसा कोई दिन याद कर पाएं जिस दिन आपको खाने में इसलिए कुछ न मिल पाया हो कि आज घर में बनाने को कुछ नही था या गैस खत्म हो गई थी या प्रेशर कूकर का रिंग खराब हो गया था । कमोबेश हर समस्या का विकल्प सामान्य गृहिणी बिल्कुल खामोशी से अपने घर में रखती है ।

      प्रबंधन एवं संचालन का इससे बेहतर उदाहरण क्या हो सकता है कि अचानक कोई बड़ा खर्च आ जाने पर या किसी की बीमारी पर जब सब सदस्य सोच में पड जाते हैं, तब भी वो अपने पुराने संदूक या अलमारी में छुपा कर रखे बचत के पैसे निकाल लाती है । आवश्यकता होने पर कभी कुछ गहने गिरवी रख देती है । कुछ परिचित घरों से अपनी साख के आधार पर उधार ले आती है, पर उस समय आवश्यक रकम का जुगाड कर ही लाती है । संकटकालीन अर्थ-प्रबंधन का इससे बेहतर और क्या उदाहरण मिल सकता है ?

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      निचले इलाके के घरों में बेमौसम बारिश में कभी अकस्मात पानी भर जाए, बिना खबर अचानक चार-पांच मेहमान आ जाएं । सब के लिए उसके पास आपदा प्रबंधन की योजना होती है । जबकि इन सभी इंतजाम के लिए उसके पास सिर्फ आंसू और मुस्कान ही माध्यम होते हैं और इसके साथ होता है उसकी जिजीविषा, समर्पण और प्रेम की भावना ।

      सफल गृहिणी का संबल होता है सब्र । जिसके बारे में कहते हैं कि सब्र का घूंट दूसरों को पिलाना ही आसान है, लेकिन यदि ख़ुद को पीना पडे तो एक-एक क़तरा ज़हर समान लगता है । कुशल प्रबंधन के इन नैसर्गिक गुणों से परिपूर्ण उसी गृहिणी को उसके समर्पण के अनुपात में अधिकतम परिवारों में सम्मान प्रायः नहीं मिल पाता है यह देखकर दुःख ही होता है ।


      इन विदेशी महिला का संस्कृत भाषा में मंत्रों का सटीक उच्चारण 
व मंत्रों के प्रति इनकी भावनाएं देखिये...



21.1.20

अविद्या – भेडचाल…!


      कुछ दिनों पूर्व हमारे शहर में 5/- रु. के अच्छे-भले नोट लोगों ने लेना बंद कर दिया । कारण क्या हुआ ?  जवाब किसी के पास भी नहीं, बस हम नहीं लेंगे । अब आप बैठे रहो अपने उन पांच रुपये के करंसी नोटों को लेकर, नहीं चलेंगे याने नहीं चलेंगे । पहले भी 10/- रु. के सिक्कों के साथ ऐसी हवा चली थी । जब कि एक परिचित बताने लगे कि कुछ दिनों पहले मैं जब अहमदाबाद गया तो वहाँ 50 पैसे का सिक्का भी अभी तक चल रहा है जिसे हमारे शहर में बंद हुए एक अर्सा बीत गया ।

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      ऐसे ही  इस समय देश के निति-नियंताओं द्वारा बनाया जा रहा बदलाव का दौर चल रहा है और इसीके साथ तर्कसंगत या अतर्कसंगत विरोध के बवंडर भी लगातार बने हुए हैं, बिना ये जाने कि वास्तव में यह सही है भी या नहीं । बस किसी न किसी नेता के अनुसरण में उस वर्ग की पूरी ताकत प्राण-प्रण से विरोध में लगी दिखाई दे रही है ।

       इसी भेडचाल को इतिहास में अविद्या के रुप में परिभाषित किया गया है । इस अविद्या का एक रोचक उदाहरण अकबर – बीरबल के इस दिलचस्प कथानक में देखें-

      एक बार अकबर ने बीरबल से पूछा की बीरबल यह अविद्या क्या है ? तब बीरबल ने कहा कि यदि आप मुझे चार-पांच दिन की छुट्टी दें तो मै आपको बता सकता हूं, कि ये अविद्या क्या है ! अकबर ने तब चाही गई छुट्टी बीरबल को दे दी ! दूसरे दिन बीरबल एक मोची के पास गया और बोला कि भाई एक जोड जूती बना दो, मोची ने जब नाप के लिये पूछा तो बीरबल बोला- आप तो बस डेढ़ फुट लंबी और एक बित्ता चौड़ी बना दो, और इसमें हीरे-जवाहरात जडकर, सोने व चांदी के तारों से इसकी सिलाई कर दो । खर्च की कोई चिंता नहीं है तुम जितना मांगोगे उतना मिल जाएगा । मोची ने तीसरे दिन जूतियां बनाकर बीरबल को देने का बोला और समय पर चाहत के मुताबिक जूती की आकर्षक जोडी बनाकर बीरबल की दे दी ।

      बीरबल ने उसमें से एक जूती अपने पास रखकर दूसरी रात में मस्जिद में फेंक दी । सुबह जब मुल्ला-मौलवी अजान व नमाज के लिए मस्जिद पहुंचे तो मौलवी को वो जूती वहां दिखी । मौलवी ने सोचा यह जूती किसी इंसान की तो नहीं हो सकती, जरूर अल्लाह नमाज पढ़ने आया होगा और ये यहीं छूट गई होगी, यह सोच उसने उस जूती को अपने सर पर रखकर मस्तक पर लगाया और उस जूती को प्रेम से चूम-चाट लिया क्योंकि वह अल्लाह की जूती थी ।


      फिर उसने वहां मौजूद सभी लोगों को उस जूती को दिखाया तो वे सब भी बोलने लगे कि, हां ! यह तो अल्लाह की ही जूती रह गई है और उन्होंने भी उसको सर पर रखा और बारी-बारी से सभी ने उसे चूमा व चाटा । अकबर तक यह बात पहुंची । अकबर ने भी उस जूती को देखा तो वह भी यही बोला कि वाकई यह तो अल्लाह की ही जूती है । फिर अकबर ने भी उसे अपने मस्तक पर रखा व उसे चूमते-चाटते बोला इसे हिफाजत से मस्जिद में ही रखवा दो !

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      इधर बीरबल की छुट्टी समाप्त हुई । वह आया, बादशाह को सलाम किया और उतरा हुआ मुंह लेकर एक ओर खड़ा हो गया । अकबर ने बीरबल से पूछा कि क्या हो गया, ऐसे मुंह क्यों लटका रखा है ? तब बीरबल ने कहा - महाराज हमारे यहां चोरी हो गई । अकबर ने पूछा कि क्या चोरी हो गया ? तब बीरबल ने बताया कि हमारे परदादा की पुश्तैनी जूती थी, कोई चोर उसमें से एक जूती उठाकर ले गया, अब एक ही बची है, तो अकबर ने पूछा कि क्या वो एक जूती तुम्हारे पास है ? बीरबल ने कहा जी वो तो मेरे पास ही है कहते हुए उसने वह दूसरी जूती अकबर को दिखाई । अब अकबर का माथा ठनका और उसने मस्जिद से दूसरी जूती मंगाई व उसे देखते हुए बोला- या अल्लाह मैंने तो सोचा कि यह जूती अल्लाह की है और मैंने तो इसे चाट-चाट कर चिकना बना डाला ।

      तब बीरबल ने कहा- महाराज यही है वह अविद्या, जिसमें किसी को भले ही कुछ भी पता न हो फिर भी सब भेड़चाल में चलते चले जा रहे हैं ।

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14.1.20

जीवन का टॉनिक है – दोस्ती...

             इस दुनिया में हमारा आना अपने माता-पिता के कारण होता है और उनसे जुडे अन्य दूसरे रिश्ते स्वतः हमारे साथ भी जुड जाते हैं, वे हमें अच्छे लगें या नहीं ये अलग बात है किंतु हमें उन्हें अनिवार्य रुप से जीवन भर निभाना ही पडता है ।

      लेकिन इन सामाजिक व पारिवारिक रिश्तों के साथ-साथ एक ऐच्छिक रिश्ता हम सभी के जीवन में अनिवार्यतः चलता है और वो होता है दोस्ती का रिश्ता । एक ऐसा सम्बन्ध जिसे हम अपनी स्वेच्छा से बनाते हैं, जिसमें निभाने की कोई बाध्यता भी नहीं होती किंतु प्रायः हम सभी अपनी-अपनी रुचियों व समान विचारों के कारण उनसे ऐसे जुड जाते हैं जितने कई बार हम अपने खून के रिश्तों से भी नहीं जुड पाते हैं ।
       दोस्ती का यह संबंध जैसे-जैसे पुराना होता जाता है उसकी विश्वसनीयता उतनी ही बढती जाती है । उन्हें निरन्तर साथ देखते रहने वाले लोग जय-वीरु जैसे लोकप्रिय जोडीदार नामों से पहचानने लगते हैं । किंतु दोस्ती के अनेक रिश्ते समय के साथ कभी जीविकोपार्जन तो कभी वैवाहिक अनिवार्यता या कभी और किसी बाध्यता के कारण सामान्य से लगाकर हजारों किलोमीटर की दूरी तक पहुँच जाते हैं और तब उनसे हमारी नजदीकियां घटते-घटते स्थायी दूरियों तक में भी बदल जाती हैं ।

       अब दोस्ती के ऐसे रिश्तों के साथ हमारा लम्बे समय में नजरिया क्या रहना चाहिये – इससे सम्बन्धित एक कथानक जो मेरे सामने आया उसे आपके समक्ष शेअर कर रहा हूँ-
       
       अपने विवाह के बाद मैं अपने पिता से अलग रह रहा था । मेरे विवाह के बाद लेकिन बहुत साल पहले मैं अपने घर पिता के आगमन पर उनके साथ बैठकर अपने विवाह के बाद की व्यस्त जिंदगी की जिम्मेदारियों और उम्मीदों के बारे में अपने विचार उन्हें बता रहा था,  तब वह अत्यंत गंभीर और शालीन खामोशी से मेरी बातें सुन रहे थे ।       

       अचानक उन्होंने मुझसे कहा-  "जिंदगी में अपने दोस्तों को कभी मत भूलना ! तुम्हारे दोस्त उम्र के ढलान पर पर तुम्हारे लिए और भी महत्वपूर्ण और ज़रूरी हो जायेंगे ।" बेशक अपने बच्चों, बच्चों के बच्चों और उन सभी के जान से भी ज़्यादा प्यारे परिवारों को रत्ती भर भी कम प्यार मत देना, मगर  अपने पुराने, निस्वार्थ और सदा साथ निभानेवाले दोस्तों को हर्गिज़ मत भुलना ।  वक्त निकाल कर उनके साथ समय बिताना, मौज मस्ती करना । उनके घर खाना खाने जाना और जब भी मौक़ा मिले उन्हें अपने घर बुलाना ।  संभव ना हो सके तो फोन पर ही जब-तब उनके हाल-चाल पूछ लिया करना ।"       

       मैं नए-नए विवाहित जीवन की खुमारी में था और पिताजी मुझे यारी-दोस्ती के बारे में समझा रहे थे । मैंने सोचा... मैं अब बड़ा हो चुका हूँ, मेरी पत्नी और मेरा होने वाला परिवार मेरे लिए अब जीवन का मकसद और सब कुछ है । दोस्तों के लिये अब समय भी कहाँ मिलेगा ?"

       लेकिन मैंने आगे चल कर एक सीमा तक उनकी बात मानना भी जारी रखा । मैं अपने गिने-चुने दोस्तों के संपर्क में भी बना रहा । संयोगवश समय बीतने के साथ उनकी संख्या भी बढ़ती ही रही । कुछ समय बाद मुझे अहसास होने लगा कि उस दिन मेरे पिता अपनी उम्र के तजुर्बों से मुझे दोस्ती की अहमियत समझा रहे थे ।

       उन्हें मालूम था कि उम्र के आख़िरी दौर तक ज़िन्दगी कब और कैसे करवट बदलती है,  और अच्छे-बुरे समय के उस दौर में ज़िन्दगी के बड़े से बड़े तूफानों में भी दोस्त कभी मल्लाह बनकर तो कभी नाव बन कर और कभी पतवार बन कर सदा साथ निभाते हैं । कभी-कभी तो वह आपके लिये आपके साथ ज़िन्दगी की जंग में भी कूद जाते हैं । सच्चे दोस्तों का एक ही काम होता है- और वह है दोस्ती । उनका मजहब और मकसद भी एक ही होता है- दोस्ती ।
              
      ज़िन्दगी के पचास साल बीतने के बाद मुझे समझ आने लगा कि घड़ी की सुईयां पूरा चक्कर लगा कर वहीं पहुँच गयीं थी, जहाँ से जिंदगी शुरू हुई थी । विवाह होने से पहले मेरे पास सिर्फ दोस्त थे । विवाह के बाद बच्चे हुए, वे बड़े हुए और उनकी जिम्मेदारियां निभाते-निभाते मैं बूढा हो गया

       फिर बच्चों के विवाह हो गए,  उनके अपने कारोबार चालू हो गए ।  अलग परिवार और घर बन गए । बेटियाँ अपनी जिम्मेदारियों में व्यस्त हो गईं । बेटे-बेटियों के बच्चे कुछ समय तक दादा-दादी और नाना-नानी के खिलौने रहे, बाद में उनकी रुचियाँ, मित्र मंडलियाँ और जिंदगी अलग पटरी पर चलने लगीं । अपने घर में मैं और मेरी पत्नी ही रह गए ।

       समय गुजरता रहा, नौकरी का भी अंत आ गया । साथी-सहयोगी और प्रतिद्वंद्वी शीघ्र ही मुझे भूल गए । जिस मालिक से मैं पहले कभी छुट्टी मांगता, तो जो आदमी  मेरी मौजूदगी को कम्पनी के जीवन-मरण का सवाल बताता था, वह मुझे ऐसे भूल गया जैसे मैं कभी वहाँ काम ही नहीं करता था ।
     
       अलबत्ता एक चीज़ कभी नहीं बदली वो थी मेरे मुठ्ठी भर पुराने दोस्त । मेरी दोस्तियां ना तो कभी बूढ़ी हुईं, और ना रिटायर । आज भी जब मैं अपने दोस्तों के साथ होता हूँ, तो मुझे लगता है कि अभी तो मैं जवान हूँ और मुझे अभी बहुत से साल ज़िंदा रहना चाहिए ।

        वास्तव में सच्चे दोस्त हमारी जिन्दगी की ज़रुरत हैं, कम ही सही लेकिन कुछ दोस्तों का साथ हमेशा रहना ही चाहियेसाले कितने भी अटपटे, गैरजिम्मेदार, बेहूदे और कमअक्ल ही क्यों ना हों, लेकिन ज़िन्दगी के खराब वक्त में उनसे बड़ा योद्धा और चिकित्सक मिलना नामुमकिन है ।

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राज सौंदर्य, सेहत व लम्बी उम्र के.      
     एक अच्छा दोस्त चाहे दूर हो या पास हो लेकिन वो  सदा हमारे दिल में रहता है । इसलिये सच्चे दोस्तों को उम्र भर साथ रखें, समय आने पर उनसे सम्बन्धित जिम्मेदारियां भी निभाएं, और हर कीमत पर अपनी दोस्ती को सलामत रखें । क्योंकि ये ही वो बचत है जो उम्र भर आपके काम आयेगी

अपने व सभी के प्यारे दोस्तों को समर्पित किसी शायर का ये अन्दाज...
 दोस्त साथ है तो रोने में भी शान है
दोस्त ना हो तो महफिल भी श्मसान है,
सारा खेल इन दोस्तों का ही है वर्ना,
जनाजे और बारातदोनों ही एक समान हैं ।
  
और अब देखिए व सुनिये सिर्फ 5 मिनिट की इस वीडिओ में इन विद्व  बुजुर्ग के वे अनुभव जो ये निरोगी जीवन के लिये भी अपनों को इस रिश्ते के महत्व से इस तरह परिचित करा रहे हैं-



11.1.20

तैयारी सुखमय वृद्धावस्था के लिए...

       पनी 40 वर्ष की उम्र तक आगामी जीवन के लिये सभी व्यक्ति इस सन्देश के मुताबिक तैयारी करें, क्योंकि यह उनके आने वाले जीवन के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है ।

        1.  जहाँ तक संभव हो अपने स्वयं के स्थायी निवास में ही रहें जिससे कि स्वतंत्र जीवन जीने का आनंद बगैर किसी बाधा के ले सकें ।  (एक कहावत है - अपना घर हँग-हँग भर, दूसरे का घर थूकने का डर...)

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          2.  अपना बैंक बेलेंस और भौतिक संपत्ति अपने पास रखें । परिजनों के अति प्रेम में पड़कर किसी के नाम करने की ना सोचें ।

          3.  अपने बच्चों के इस वादे पर निर्भर ना रहें कि वो वृद्धावस्था में आपकी सेवा करेंगे, क्योंकि समय बदलने के साथ उनकी प्राथमिकताएँ भी बदल जाती हैँं और कई बार चाहते हुए भी वे कुछ नहीं कर पाते ।

          4.  उन लोगों को अपने मित्र समूह में शामिल रखें जो आपके जीवन को प्रसन्न देखना चाहते हैं, यानी सच्चे हितैषी हों । 

          5.  किसी के साथ अपनी तुलना ना करें और ना ही किसी से कोई उम्मीद रखें ।

         6.  अपनी संतानों के जीवन में दखल ना दें,  उन्हें अपने तरीके से उनका जीवन जीने दें और आप अपने तरीके से अपना जीवन जिएँ ।

          7.  अपनी वृद्धावस्था को आधार बनाकर किसी से सेवा करवाने, सम्मान पाने का प्रयास  ना करें ।

           8.  लोगों की बातें सुनें लेकिन अपने स्वतंत्र विचारों के आधार पर निर्णय लें ।

           9.  प्रार्थना करें लेकिन भीख ना मांगे, यहाँ तक कि भगवान से भी नहीं । अगर भगवान से कुछ मांगे तो सिर्फ माफ़ी और हिम्मत ।

          10.  अपने स्वास्थ्य का स्वयं ध्यान रखें, चिकित्सीय परीक्षण के अलावा अपने आर्थिक सामर्थ्य अनुसार अच्छा पौष्टिक भोजन खाएं और यथा सम्भव अपना काम अपने हाथों से करें । छोटे कष्टों पर ध्यान ना दें, उम्र के साथ छोटी मोटी शारीरिक परेशानीयां चलती रहती हैं ।

          11.  अपने जीवन को उल्लास से जीने का प्रयत्न करें खुद प्रसन्न रहने की चेष्टा करें और दूसरों को प्रसन्न रखें ।

          12.  प्रति वर्ष  अपने जीवन  साथी केे साथ भ्रमण/ छोटी यात्रा पर एक या अधिक बार अवश्य जाएंइससे आपका जीने का नजरिया बदलेगा ।

          14.   जीवन में स्थायी कुछ भी नहीं है चिंताएं भी नहीं इस बात का विश्वास करें ।

        15.  अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को रिटायरमेंट तक  पूरा कर लें, याद रखें जब तक आप अपने लिए जीना शुरू नहीं करते हैं तब तक आप जीवित नहीं हैं ।

 आपके खुशनुमा जीवन की शुभकामनाओं के साथ...

प्रेरणा कहाँ-कहाँ से...


       किसी समय एक राजा था जिसे राज भोगते काफी समय हो गया था बाल भी सफ़ेद होने लगे थे । एक दिन उसने अपने दरबार में उत्सव रखा । उत्सव मे मुजरा करने वाली के साथ दूर देश के राजाओं को भी अपने गुरु के साथ बुलाया । कुछ मुद्राएँ राजा ने यह सोचकर अपने गुरु को दी कि जो बात मुजरा करने वाली की अच्छी लगेगी वहाँ गुरु स्वयं ये मुद्राएँ देंगे ।  

           सारी रात मुजरा चलता रहा । सुबह होने वाली थीं, मुज़रा करने वाली ने देखा मेरा तबले वाला ऊँघ रहा है उसको जगाने के लियें मुज़रा करने वाली ने एक दोहा पढ़ा-

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 "बहु बीतीथोड़ी रहीपल-पल गयी बिहाई ।
एक पलक के कारनेना कलंक लग जाए।"

           अब इस दोहे का अलग-अलग व्यक्तियों ने अपने-अपने अनुरूप अर्थ निकाला ।

           तबले वाला सतर्क होकर  बजाने लगा ।

           जब ये बात गुरु ने सुनी तो गुरु ने अपने पास की सारी मोहरें उस मुज़रा करने वाली को दे दी ।

           वही दोहा उसने फिर पढ़ा तो राजा की लड़की ने अपना नवलखा हार उसे दे दिया ।

           जब वही दोहा नर्तकी ने फिर दोहराया तो राजा के लड़के ने अपना मुकट उतारकर दे दिया । 

           जब वह उस दोहे को फिर दोहराने लगी तो राजा ने कहा अब बस भी कर एक दोहे से तुने वेश्या होकर भी सबको लूट लिया है ।

           जब ये बात राजा के गुरु ने सुनी तो गुरु के नेत्रों मे जल आ गया और वो कहने लगे, "राजन् इसे तू वेश्या न कह, ये मेरी गुरू है । इसने मुझें मति दी है कि मै सारी उम्र जंगलो मे भक्ति करता रहा और आखरी समय मे मुज़रा देखने आ गया । भाई मैं तो चला ।

           राजा की लड़की ने कहा, "आप मेरी शादी नहीं कर रहे थेआज मुझे आपके महावत के साथ भागकर अपना जीवन बर्बाद कर लेना था । इसने मुझे सुमति दी है कि कभी तो तेरी शादी होगी । क्यों अपने पिता को कलंकित करती है ?"

           राजा के लड़के ने कहा, "आप मुझे राज नहीं दे रहे थे । मैंने आपके सिपाहियो से मिलकर आपका क़त्ल करवा देना था । इसने समझाया है कि आखिर राज तो तुम्हें ही मिलना है । क्यों अपने पिता के खून का इलज़ाम अपने सर लेते हो ?

           जब ये बातें राजा ने सुनी तो राजा ने सोचा क्यों न मैं अभी ही ये राजतिलक कर दूँ, गुरु भी मौजूद हैं । उसी समय राजकुमार का राजतिलक कर दिया और राजकुमारी से कहा बेटी, "मैं जल्दी ही आपकी शादी भी कर दूँगा।"

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करत-करत अभ्यास के...
समझौता स्वाद से करलो...

           तब नर्तकी कहने लगी, "मेरे एक दोहे से इतने लोग सुधर गए, पर मैं तो ना सुधरी । इसलिये आज से मैं भी अपना धंधा बंद कर प्रभु मै भी तेरा नाम सुमिरन करुँगी ।

           समझ आने की बात है, दुनिया बदलते देर नहीं लगती । एक दोहे की दो लाईनों में जब इतना सामर्थ्य जुट सकता है तो बडी से बडी समस्या में भी बस थोड़ा धैर्य रखने की ज़रूरत होती है...

दिमागी कचरा...!


          एक दिन एक व्यक्ति ऑटो से रेलवे स्टेशन जा रहा था। ऑटो वाला बड़े आराम से ऑटो चला रहा था। एक कार अचानक ही पार्किंग से निकलकर रोड पर आ गयी। ऑटो चालक ने तेजी से ब्रेक लगाया और कार, ऑटो से टकराते टकराते बची। कार चालक गुस्से में ऑटो वाले को ही भला-बुरा कहने लगा जबकि गलती कार- चालक की थी । 

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तर्क और तकरार...
एक सच यह भी...!

          
ऑटो चालक एक सत्संगी (सकारात्मक विचार सुनने-सुनाने वाला) था । उसने कार वाले की बातों पर गुस्सा नहीं किया और क्षमा माँगते  हुए आगे बढ़ गया । 

          
ऑटो में बैठे व्यक्ति को कार वाले की हरकत पर गुस्सा आ रहा था और उसने ऑटो वाले से पूछा तुमने उस कार वाले को बिना कुछ कहे ऐसे ही क्यों जाने दिया । उसने तुम्हें भला-बुरा कहा जबकि गलती तो उसकी थी। हमारी किस्मत अच्छी हैनहीं तो उसकी वजह से हम अभी अस्पताल में होते ।

          
ऑटो वाले ने कहा साहब बहुत से लोग गार्बेज ट्रक (कूड़े का ट्रक) की तरह होते हैं । वे बहुत सारा कूड़ा अपने दिमाग में भरे हुए चलते हैं । जिन चीजों की जीवन में कोई ज़रूरत नहीं होती उनको मेहनत करके जोड़ते रहते हैं  जैसे क्रोध, घृणा, चिंता, निराशा आदि । जब उनके दिमाग में इनका कूड़ा बहुत अधिक हो जाता है तो वे अपना बोझ हल्का करने के लिए इसे दूसरों पर फेंकने का मौका ढूँढ़ने लगते हैं । 

          
इसलिए मैं ऐसे लोगों से दूरी बनाए रखता हूँ और उन्हें दूर से ही मुस्कराकर अलविदा कह देता हूँ । क्योंकि अगर उन जैसे लोगों द्वारा गिराया हुआ कूड़ा मैंने स्वीकार कर लिया तो मैं भी एक कूड़े का ट्रक बन जाऊँगा और अपने साथ साथ आसपास के लोगों पर भी वह कूड़ा गिराता रहूँगा । 

          
मैं सोचता हूँ जिंदगी बहुत ख़ूबसूरत है इसलिए जो हमसे अच्छा व्यवहार करते हैं उन्हें धन्यवाद कहो और जो हमसे अच्छा व्यवहार नहीं करते उन्हें मुस्कुराकर माफ़ कर दो । हमें यह याद रखना चाहिए कि सभी मानसिक रोगी केवल अस्पताल में ही नहीं रहते हैं । कुछ हमारे आस-पास खुले में भी घूमते रहते हैं ।

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सबक और आशा...
सुखी जीवन के सरल सूत्र
युवतियों व बुजुर्गों का सदा मददगार - माय हीरो.

          
प्रकृति के नियम: यदि खेत में बीज न डाले जाएँ तो कुदरत उसे घास-फूस से भर देती है । उसी तरह से यदि दिमाग में सकारात्मक विचार न भरें जाएँ तो नकारात्मक विचार अपनी जगह बना ही लेते हैं और दूसरा नियम है कि जिसके पास जो होता है वह वही बाँटता है। "सुखी" सुख बाँटता है, "दु:खी" दुःख बाँटता है, "ज्ञानी" ज्ञान बाँटता है, भ्रमित भ्रम बाँटता है, और "भयभीत" भय बाँटता है । जो खुद डरा हुआ है वह औरों को डराता है, दबा हुआ दबाता हैचमका हुआ चमकाता है, जबकि सफल इंसान सफलता बाँटता है ।

अनमोल रिश्ता...


            सुश्री वसुंधरा दीदी एक छोटे से शहर के  प्राथमिक स्कूल में  कक्षा 5 की शिक्षिका थीं । उनकी एक आदत थी कि वह कक्षा शुरू करने से पहले हमेशा "आई लव यू ऑल" बोला करतीं । मगर वह जानती थीं कि वह सच नहीं कहती । वह कक्षा के सभी बच्चों से उतना प्यार नहीं करती थीं । कक्षा में एक ऐसा बच्चा था जो वसुंधरा को एक आंख नहीं भाता । उसका नाम आशीष था । आशीष मैली कुचैली स्थिति में  स्कूल आ जाया करता । उसके बाल खराब होते, जूतों के बन्ध खुले, शर्ट के कॉलर पर मेल के निशान । व्याख्यान के दौरान भी उसका ध्यान कहीं और होता । वसुंधरा के डाँटने पर वह चौंक कर उन्हें देखने तो लग जाता.. मगर उसकी खाली-खाली नज़रों से उन्हें साफ पता लगता रहता कि आशीष शारीरिक रूप से कक्षा में उपस्थित होने के बावजूद भी मानसिक रूप से गायब है ।

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            धीरे  धीरे वसुंधरा को आशीष से नफरत सी होने लगी । क्लास में घुसते ही आशीष.. वसुंधरा की आलोचना का निशाना बनने लगा । सब बुराई के उदाहरण आशीष के नाम पर किये जाते । बच्चे उस पर खिलखिला कर हंसते और वसुंधरा उसको अपमानित करके संतोष प्राप्त करतीं । आशीष ने हालांकि किसी बात का कभी कोई जवाब नहीं दिया । किन्तु वसुंधरा को वह एक बेजान पत्थर की तरह लगता जिसके अंदर अहसास जैसी कोई चीज नहीं थी । प्रत्येक डांट, व्यंग्य और सजा के जवाब में वह बस अपनी भावनाओं से खाली नज़रों से उन्हें देखता और सिर झुका लेता ।

           
वसुंधरा को अब इससे गंभीर चिढ़ हो चुकी थी । पहला सेमेस्टर समाप्त हो गया और रिपोर्ट बनाने का चरण आया तो वसुंधरा ने आशीष की प्रगति रिपोर्ट में यह सब बुरी बातें लिख मारी । प्रगति रिपोर्ट कार्ड माता-पिता को दिखाने से पहले प्रधानाध्यापिका के पास जाया करता था । उन्होंने जब आशीष की रिपोर्ट देखी तो वसुंधरा को बुला लिया । 

            "
वसुंधरा... प्रगति रिपोर्ट में कुछ तो प्रगति भी लिखनी चाहिए। आपने तो जो कुछ लिखा है इससे आशीष के पिता बिल्कुल निराश ही हो जाएंगे।"        मैं माफी चाहती हूँ, लेकिन आशीष एक बिल्कुल ही अशिष्ट और निकम्मा बच्चा है । मुझे नहीं लगता कि मैं उसकी प्रगति के बारे में कुछ भी अच्छा लिख सकती हूँ । वसुंधरा बेहद घृणित लहजे में बोलकर वहां से उठ आईं ।

           
प्रधानाध्यापिका ने एक अजीब हरकत की । उन्होंने चपरासी के  हाथ वसुंधरा की डेस्क पर आशीष की पिछले वर्षों की प्रगति रिपोर्ट रखवा दी । अगले दिन वसुंधरा ने कक्षा में प्रवेश किया तो रिपोर्ट पर नजर पड़ी । पलट कर देखा तो पता लगा कि यह आशीष की रिपोर्ट हैं । "पिछली कक्षाओं में भी उसने निश्चय ही यही गुल खिलाए होंगे ।"  उन्होंने सोचा और कक्षा 3 की रिपोर्ट खोली । रिपोर्ट में टिप्पणी पढ़कर उनकी आश्चर्य की कोई सीमा न रही जब उन्होंने देखा कि रिपोर्ट उसकी तारीफों से भरी पड़ी है । "आशीष जैसा बुद्धिमान बच्चा मैंने आज तक नहीं देखा ।" "बेहद संवेदनशील बच्चा है और अपने मित्रों और शिक्षकों से बेहद लगाव रखता है ।" अंतिम सेमेस्टर में भी आशीष ने प्रथम स्थान प्राप्त कर लिया है ।

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वसुंधरा दीदी ने अनिश्चित स्थिति में कक्षा 4 की रिपोर्ट खोली । "आशीष पर अपनी मां की बीमारी का बेहद प्रभाव पड रहा है ।  उसका  ध्यान पढ़ाई से हट रहा है ।"  "आशीष की माँ को अंतिम चरण का  कैंसर हुआ है । घर पर उसका और कोई ध्यान रखनेवाला नहीं है, जिसका गहरा प्रभाव उसकी पढ़ाई पर पड़ा है ।"  आशीष की  माँ मर चुकी है और इसके साथ ही आशीष के जीवन की रमक और रौनक  भी । उसे बचाना होगा...इससे पहले कि  बहुत देर हो जाए । 

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वसुंधरा के दिमाग पर भयानक बोझ तारी हो गया । कांपते हाथों से उन्होंने प्रगति रिपोर्ट बंद की । आंसू उनकी आँखों से एक के बाद एक गिरने लगे । अगले दिन जब वसुंधरा कक्षा में दाख़िल हुईं तो उन्होंने अपनी आदत के अनुसार अपना पारंपरिक वाक्यांश "आई लव यू ऑल" दोहराया । मगर वह जानती थीं कि वह आज भी झूठ बोल रही हैं । क्योंकि इसी क्लास में बैठे एक उलझे बालों वाले बच्चे आशीष के लिए जो प्यार वह आज अपने दिल में महसूस कर रही थीं..वह कक्षा में बैठे और किसी भी बच्चे से हो ही नहीं सकता था । 

           
व्याख्यान के दौरान उन्होंने रोजाना दिनचर्या की तरह एक सवाल आशीष पर दागा और हमेशा की तरह आशीष ने सिर झुका लिया । जब कुछ देर तक वसुंधरा से कोई डांट फटकार और सहपाठी सहयोगियों से हंसी की आवाज उसके कानों में न पड़ी तो उसने गहन आश्चर्य से सिर उठाकर उनकी ओर देखा । अप्रत्याशित रुप से आज उनके माथे पर बल न थे बल्कि वह मुस्कुरा रही थीं । 

           
उन्होंने आशीष को अपने पास बुलाया और उसे सवाल का जवाब बताकर दोहराने के लिए कहा । आशीष तीन चार बार के आग्रह के बाद अंतत: बोल ही पड़ा । इसके जवाब देते ही वसुंधरा ने न सिर्फ खुद खुशान्दाज़ होकर तालियाँ बजाईं बल्कि सभी से भी बजवायी.. फिर तो यह दिनचर्या बन गयी । वसुंधरा अब हर सवाल का जवाब अपने आप बताती और फिर उसके पिछले वर्षों के रेकार्ड के साथ उसकी खूब सराहना व तारीफ करतीं ।  क्लास में अब प्रत्येक अच्छा उदाहरण आशीष के कारण दिया जाने लगा ।  धीरे-धीरे पुराना आशीष सन्नाटे की कब्र फाड़ कर बाहर आने लगा । 

           
अब वसुंधरा को सवाल के साथ जवाब बताने की जरूरत नहीं पड़ती। वह रोज बिना किसी त्रुटि के उत्तर देकर सभी को प्रभावित करता और नये-नए सवाल पूछ कर सबको हैरान भी करता । उसके बाल अब कुछ हद तक सुधरे हुए होते, कपड़े भी काफी हद तक साफ होते जिन्हें शायद वह खुद धोने लगा था । देखते ही देखते साल समाप्त हो गया और आशीष ने दूसरा स्थान हासिल कर लिया यानी दूसरी क्लास । विदाई समारोह में सभी बच्चे वसुंधरा दीदी के लिये सुंदर उपहार लेकर आए और वसुंधरा की  टेबल पर ढेर लग गया । 

            इन खूबसूरती से पैक हुए उपहारों में  पुराने अखबार में बंद सलीके से पैक हुआ एक उपहार भी पड़ा था । बच्चे उसे देखकर हंस पड़े । किसी को जानने में देर न लगी कि उपहार के नाम पर ये आशीष लाया होगा । वसुंधरा दीदी ने उपहार के इस छोटे से पहाड़ में से लपक कर उसे निकाला । खोलकर देखा तो उसके अंदर एक महिलाओं की इत्र की आधी इस्तेमाल की हुई शीशी और एक हाथ में पहनने वाला एक कड़ा था जिसके ज्यादातर मोती झड़ चुके थे । वसुंधरा ने चुपचाप उस इत्र को खुद पर छिड़का और वह कंगन अपने हाथ में पहन लिया । सभी बच्चे यह दृश्य देखकर हैरान रह गए, खुद आशीष भी । आखिर आशीष से रहा न गया और वो वसुंधरा दीदी के पास आकर खड़ा हो गया । कुछ देर बाद उसने अटक-अटक कर वसुंधरा को बताया कि "आज आप में से मेरी माँ जैसी खुशबू आ रही है ।"

           
समय पर लगाकर उड़ने लगा। दिन सप्ताह, सप्ताह महीने और महीने साल में बदलते भला कहां देर लगती है ? मगर हर साल के अंत में वसुंधरा को आशीष से एक पत्र नियमित रूप से प्राप्त होता जिसमें लिखा होता कि "इस साल कई नए टीचर्स से मिला । मगर आप जैसा कोई नहीं था ।"  फिर आशीष का स्कूल समाप्त हो गया और पत्रों  का सिलसिला भी । कई साल आगे और गुज़रे और अध्यापिका वसुंधरा अब रिटायर हो गईं । 

           
एक दिन उन्हें अपनी मेल में आशीष का पत्र मिला जिसमें लिखा था-  "इस महीने के अंत में मेरी शादी है और आपके बगैर शादी की बात मैं नहीं सोच सकता । एक और बात .. मैं जीवन में बहुत से लोगों से मिल चुका हूँ किंतु आप जैसा कोई नहीं है....डॉक्टर आशीष  । इसके साथ ही विमान का आने जाने का टिकट भी लिफाफे में मौजूद था । वसुंधरा खुद को रोक सकने की स्थिति में नहीं रह गई थी ।

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           उन्होंने अपने पति से अनुमति ली और वह दूसरे शहर के लिए रवाना हो गईं । ऐन शादी के दिन जब वह शादी की जगह पहुंची तो थोड़ी लेट हो चुकी थीं । उन्हें लगा अब तक तो समारोह समाप्त हो चुका  होगा..  मगर यह देखकर उनके आश्चर्य की सीमा  न रही कि शहर के बड़े-बडे डॉ, बिजनेसमैन और यहां तक कि वहां मौजूद फेरे कराने वाले पंडित भी इन्तजार करते करते थक गये थे. कि आखिर कौन आना बाकी है...  मगर आशीष समारोह में फेरों और विवाह के  बजाय गेट की तरफ टकटकी लगाए उनके आने का इंतजार कर रहा था । फिर सबने देखा कि जैसे ही यह पुरानी अध्यापिका वसुंधरा ने गेट से प्रवेश किया आशीष उनकी ओर तेजी से लपका और उनका वह हाथ पकड़ा जिसमें उन्होंने अब तक वह सड़ा हुआ सा कंगन पहना हुआ था और उन्हें सीधा वेदी पर ले गया ।

           
वसुंधरा का हाथ में पकड़ कर वह सभी मेहमानों से बोला "दोस्तो आप सभी हमेशा मुझसे मेरी माँ के बारे में पूछा करते थे और मैं आप सबसे वादा किया करता था कि जल्द ही आप सबको अपनी माँ से मिलाऊँगा...! यही मेरी माँ  हैं !"

       मित्रों...
           
इस सुंदर कहानी को सिर्फ शिक्षक और शिष्य के रिश्ते के कारण ही मत सोचिएगाअपने आसपास देखें, आशीष जैसे कई फूल मुरझा रहे हैं जिन्हें आपका जरा सा ध्यान,  प्यार और स्नेह बिल्कुल नया जीवन भी दे सकता  है...!

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