इस दुनिया में हमारा आना अपने माता-पिता के कारण होता है और उनसे जुडे अन्य दूसरे रिश्ते स्वतः हमारे साथ भी जुड जाते हैं, वे हमें अच्छे लगें या नहीं ये अलग बात है किंतु हमें उन्हें अनिवार्य रुप से जीवन भर निभाना ही पडता है ।
लेकिन
इन सामाजिक व पारिवारिक रिश्तों के साथ-साथ एक ऐच्छिक रिश्ता हम सभी के जीवन में
अनिवार्यतः चलता है और वो होता है दोस्ती का रिश्ता । एक ऐसा सम्बन्ध जिसे हम अपनी
स्वेच्छा से बनाते हैं, जिसमें निभाने की कोई बाध्यता भी नहीं होती किंतु प्रायः
हम सभी अपनी-अपनी रुचियों व समान विचारों के कारण उनसे ऐसे जुड जाते हैं जितने कई
बार हम अपने खून के रिश्तों से भी नहीं जुड पाते हैं ।
दोस्ती का यह संबंध जैसे-जैसे पुराना होता
जाता है उसकी विश्वसनीयता उतनी ही बढती जाती है । उन्हें निरन्तर साथ देखते रहने
वाले लोग जय-वीरु जैसे लोकप्रिय जोडीदार नामों से पहचानने लगते हैं । किंतु
दोस्ती के अनेक रिश्ते समय के साथ कभी जीविकोपार्जन तो कभी वैवाहिक
अनिवार्यता या कभी और किसी बाध्यता के कारण सामान्य से लगाकर हजारों किलोमीटर की दूरी तक पहुँच जाते हैं
और तब उनसे हमारी नजदीकियां घटते-घटते स्थायी दूरियों तक में भी बदल जाती हैं ।
अब दोस्ती के ऐसे रिश्तों के साथ हमारा लम्बे समय में नजरिया क्या रहना चाहिये – इससे सम्बन्धित एक कथानक जो मेरे सामने आया उसे आपके समक्ष शेअर कर रहा हूँ-
अब दोस्ती के ऐसे रिश्तों के साथ हमारा लम्बे समय में नजरिया क्या रहना चाहिये – इससे सम्बन्धित एक कथानक जो मेरे सामने आया उसे आपके समक्ष शेअर कर रहा हूँ-
अपने विवाह के बाद मैं अपने पिता से अलग
रह रहा था । मेरे विवाह के
बाद लेकिन बहुत साल पहले मैं अपने
घर पिता के आगमन पर उनके साथ बैठकर अपने विवाह के
बाद की व्यस्त जिंदगी की जिम्मेदारियों और उम्मीदों
के बारे में अपने विचार उन्हें बता रहा था, तब वह अत्यंत गंभीर और शालीन खामोशी
से मेरी बातें सुन रहे थे ।
अचानक उन्होंने मुझसे कहा- "जिंदगी
में अपने दोस्तों को कभी मत भूलना ! तुम्हारे दोस्त उम्र के ढलान पर पर तुम्हारे
लिए और भी महत्वपूर्ण और ज़रूरी हो जायेंगे ।" बेशक
अपने बच्चों, बच्चों
के बच्चों और उन सभी के जान से भी ज़्यादा प्यारे परिवारों को रत्ती भर भी कम प्यार
मत देना, मगर अपने पुराने, निस्वार्थ और सदा साथ
निभानेवाले दोस्तों को हर्गिज़ मत भुलना । वक्त
निकाल कर उनके साथ
समय बिताना, मौज
मस्ती करना । उनके घर
खाना खाने जाना और जब भी मौक़ा मिले उन्हें अपने घर बुलाना । संभव ना हो सके तो फोन पर
ही जब-तब उनके हाल-चाल पूछ लिया करना ।"
मैं नए-नए विवाहित जीवन की खुमारी में था और पिताजी मुझे यारी-दोस्ती के बारे में समझा रहे थे । मैंने सोचा... मैं अब बड़ा हो चुका हूँ, मेरी पत्नी और मेरा होने वाला परिवार मेरे लिए अब जीवन का मकसद और सब कुछ है । दोस्तों के लिये अब समय भी कहाँ मिलेगा ?"
मैं नए-नए विवाहित जीवन की खुमारी में था और पिताजी मुझे यारी-दोस्ती के बारे में समझा रहे थे । मैंने सोचा... मैं अब बड़ा हो चुका हूँ, मेरी पत्नी और मेरा होने वाला परिवार मेरे लिए अब जीवन का मकसद और सब कुछ है । दोस्तों के लिये अब समय भी कहाँ मिलेगा ?"
लेकिन
मैंने आगे चल कर एक सीमा
तक उनकी बात मानना भी जारी रखा । मैं अपने गिने-चुने दोस्तों के संपर्क में भी बना रहा । संयोगवश समय बीतने के साथ
उनकी संख्या भी बढ़ती ही रही । कुछ समय बाद मुझे अहसास होने लगा कि उस दिन मेरे पिता अपनी उम्र के तजुर्बों से मुझे दोस्ती की अहमियत समझा रहे थे ।
उन्हें मालूम था कि उम्र के आख़िरी दौर तक
ज़िन्दगी कब और कैसे करवट बदलती है, और अच्छे-बुरे समय के उस दौर में ज़िन्दगी के बड़े
से बड़े तूफानों में भी दोस्त कभी मल्लाह बनकर तो कभी नाव बन कर और कभी पतवार बन कर सदा साथ निभाते हैं । कभी-कभी तो वह आपके लिये आपके
साथ ज़िन्दगी की जंग में भी कूद जाते
हैं । सच्चे दोस्तों का एक ही काम होता है- और वह है दोस्ती । उनका मजहब और मकसद भी
एक ही होता है- दोस्ती ।
ज़िन्दगी के पचास साल बीतने के बाद मुझे समझ आने लगा कि घड़ी की सुईयां पूरा चक्कर लगा कर वहीं पहुँच गयीं थी, जहाँ से जिंदगी शुरू हुई थी । विवाह होने से पहले मेरे पास सिर्फ दोस्त थे । विवाह के बाद बच्चे हुए, वे बड़े हुए और उनकी जिम्मेदारियां निभाते-निभाते मैं बूढा हो गया ।
फिर बच्चों के विवाह हो गए, उनके अपने कारोबार चालू हो
गए । अलग परिवार और घर बन गए । बेटियाँ अपनी जिम्मेदारियों
में व्यस्त हो गईं । बेटे-बेटियों
के बच्चे कुछ समय तक दादा-दादी और नाना-नानी के खिलौने रहे, बाद में उनकी रुचियाँ,
मित्र मंडलियाँ और जिंदगी अलग पटरी पर चलने लगीं । अपने घर में मैं और मेरी
पत्नी ही रह गए ।
समय गुजरता रहा, नौकरी का भी अंत आ गया । साथी-सहयोगी और
प्रतिद्वंद्वी शीघ्र ही मुझे भूल गए । जिस मालिक से मैं पहले कभी छुट्टी मांगता, तो जो आदमी
मेरी मौजूदगी को कम्पनी के जीवन-मरण का सवाल बताता था, वह मुझे ऐसे भूल गया जैसे मैं कभी वहाँ काम ही नहीं करता था ।
अलबत्ता एक चीज़ कभी नहीं बदली वो थी मेरे मुठ्ठी भर पुराने दोस्त । मेरी दोस्तियां ना तो कभी बूढ़ी हुईं, और ना रिटायर । आज भी जब मैं अपने दोस्तों के साथ होता हूँ, तो मुझे लगता है कि अभी तो मैं जवान हूँ और मुझे अभी बहुत से साल ज़िंदा रहना चाहिए ।
वास्तव में सच्चे दोस्त हमारी जिन्दगी की
ज़रुरत हैं, कम ही सही लेकिन कुछ
दोस्तों का साथ हमेशा रहना ही चाहिये, साले कितने भी अटपटे, गैरजिम्मेदार, बेहूदे और कमअक्ल ही
क्यों ना हों, लेकिन ज़िन्दगी के खराब वक्त में
उनसे बड़ा योद्धा और चिकित्सक मिलना नामुमकिन है ।
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सबसे अनमोल क्या...?
एक सच यह भी...!
राज सौंदर्य, सेहत व लम्बी उम्र के.
एक अच्छा दोस्त चाहे दूर हो या पास हो लेकिन वो सदा हमारे दिल में रहता है । इसलिये सच्चे दोस्तों को उम्र भर साथ रखें, समय आने पर उनसे सम्बन्धित जिम्मेदारियां भी निभाएं, और हर कीमत पर अपनी दोस्ती को सलामत रखें । क्योंकि ये ही वो बचत है जो उम्र भर आपके काम आयेगी ।
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अपने व सभी के प्यारे दोस्तों को समर्पित किसी
शायर का ये अन्दाज...
दोस्त
साथ है तो रोने में भी शान है
दोस्त ना
हो तो महफिल भी श्मसान है,
सारा खेल
इन दोस्तों का ही है वर्ना,
जनाजे और
बारात, दोनों ही एक समान हैं ।
और अब
देखिए व सुनिये सिर्फ 5 मिनिट की इस वीडिओ में इन विद्व बुजुर्ग के वे अनुभव जो ये निरोगी जीवन के लिये भी अपनों
को इस रिश्ते के महत्व से इस तरह परिचित
करा रहे हैं-
जीवन में दोस्ती की अहमियत को दर्शाता हुआ बेहतरीन आलेख। आपको पढ़ना काफी कुछ सिखा देता है सर।
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