27.4.13

आज ही के दिन...


परिवार के बुजुर्गों के आशीर्वाद से 27 अप्रैल 1978 को वैवाहिक जीवन की शुरुआत हुई...


मैं सुशील बाकलीवाल और जीवनसंगिनी सुनीता बाकलीवाल.



और देखते ही देखते दाम्पत्य जीवन की यह यात्रा आज 35 वर्ष पूर्ण कर 36वें वर्ष में प्रवेश कर रही है...

24.4.13

सुनिये गाय का दर्द - गाय के ही श्रीमुख से...




                हमारे जन्म के बाद कुछ समय तक तो हमारी माँ हमें दूध पिलाती है किन्तु शेष सारी उम्र पौष्टिकता के लिये हम गाय के दूध पर निर्भर रहते हैं । गाय का सिर्फ दूध ही नहीं बल्कि हमारे स्वस्थ रहने के लिये गौमूत्र व गोबर भी समान रुप से उपयोगी रहता है जिसका लाभ मानव समुदाय विभिन्न तरीकों से जीवन भर लेता रहता है किन्तु हममें से ही कुछ निर्दयी लोग जैसे ही बूढी हो चुकी गाय की दूध देने की क्षमता समाप्त हो जाती है तो उसे माँस उत्पादकों के हाथ बेचकर उसके रक्त की आखरी बूंद तक निचोड लेने से भी परहेज नहीं करते ।

          इन बूढी गायों को खरीदकर कसाई लोग कुछ किलो माँस के लिये उसे बूचडखाने पर पहुँचा देते हैं और निरीह पशु वध का ये व्यवसाय इस कदर फल-फूल रहा है कि पिछले 30 वर्षों में बूचडखानों की संख्या मात्र 350 से बढते हुए 46,000 पर पहुँच गई है । बहुमत में शाकाहारी कहलाने वाले हमारे हिंदु देश में माँस निर्यात में भारत आठवें स्थान पर आ पहुँचा है और पिछले 5 वर्षों में माँस उत्पादन की दर 21% हो गई है ।
 
           इन बूचडखानों में पशुओं की पीडा मरने के बहुत पहले से शुरु हो जाती है । दूर-दूर से पशुओं को ट्रकों में भरकर बूचडखानों तक लाया जाता है । रास्ते में इन पशुओं की खाने-पीने की कोई चिंता करने का प्रश्न ही नहीं उठता । जब तक ये पशु बूचडखानों में पहुँचते हैं वे चलने-फिरने लायक भी नहीं रहते । यहाँ पर इन पशुओं की पहले पूंछ काटी जाती है और उनकी आँखों में मिर्ची पावडर डाला जाता है जिससे तडपते हुए ये बेजुबान पशु आगे की ओर दौडकर एक खुले मैदान में पहुँचते हैं वहाँ हजारों पशुओं को इकट्ठा किया जाता है । फिर इन निरीह पशुओं के पैर तोडकर इनकी आँखें फोड दी जाती हैं ऐसा करने पर ही बूचडखानों के मालिकों को इन पशुओं की उपयोगहीनता का प्रमाण-पत्र प्राप्त होता है ।

          कई दिनों की भूख के कारण पशुओं के खून का हीमोग्लोबिन उनकी चर्बी में आ जाता है और ज्यादा हीमोग्लोबिन वाला माँस ज्यादा पैसे दिलाता है । तत्पश्चात् इन पशुओं को पानी के फव्वारों के नीचे खडा कर उनकी चमडी पर खौलता हुआ पानी डाला जाता है जिससे उनकी चमडी मुलायम पड जाती है । पशु यहाँ आने तक भी सिर्फ बेहोश ही होते हैं, मरते नहीं हैं । इसके बाद एक कन्वेयर बेल्ट पर पशुओं को उल्टा लटकाया जाता है, यहाँ पशुओं की गर्दन को आधा काटा जाता है । इससे पशु का खून बहता है किन्तु पशु मरते नहीं हैं । मरने के बाद पशुओं की चमडी मोटी पडने लगती है जिसका अच्छा दाम नहीं मिलता इसलिये पशुओं को चमडी निकालने तक मरने भी नहीं दिया जाता । पशुओं के जिंदा रहते ही उनकी चमडी निकाल ली जाती है । फिर ये पशु कब मर जाते हैं यह पता ही नहीं चलता । पशुओं की चमडी निकालने के बाद पशु के शरीर को अलग-अलग बांटा जाता है और खाडी देशों को निर्यात कर दिया जाता है ।
 
          यदि हम नीचे लिखी बातों पर विचार करें तो पायेंगे कि गौ रक्षा ही हमारा परम कर्तव्य है-
 

          एक गाय अपने जीवनकाल में 4,10,440 मनुष्यों का एक समय का भोजन जुटाती है जबकि उसके माँस से केवल 50 अधम मांसाहारी लोग ही अपना पेट भर पाते हैं ।

          रासायनिक खाद से जहाँ धरती की उपजाऊ क्षमता को निरन्तर नुकसान पहुँच रहा है उसके स्थान पर यदि गोबर की कम्पोस्ट खाद का प्रयोग किया जावे तो धरती की प्राकृतिक उर्वरा शक्ति बढती है ।

          गोबर से गैस मुफ्त में प्राप्त होती है । यदि गांव-गांव में गोबर गैस संयंत्र लगा दिये जाएं तो भारत में ईंधन व रसोई गैस की कमी ही न हो । गैस से निकलने वाले गोबर का उपयोग घरती की उर्वरा शक्ति को बढाने में ज्यादा समर्थ होता है और ज्यादा फर्टाईल होता है ।

          आध्यात्मिक पक्ष के मुताबिक हमारे पुराणों में कहा गया है कि जिस देश में गौ रक्त की एक बूंद भी गिरती है उस देश में किये गये योग, तप, भजन, पूजन, दान आदि शुभ कार्य निष्फल हो जाते हैं ।

कृपया इस छोटे से वीडियो को अवश्य देखें-



       सोचें कि कहीं इस क्रूर कृत्य में हमारी प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से सहमति या भागीदारी तो नहीं है ?

        हम अपने देश से माँस निर्यात पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाने का अनुरोध करते हैं ।

हिन्दू, मुस्लिम, सिख, इसाई - गौ माता  हम सभी की माई.




जिओ और जीने दो... 



21.4.13

यौन अपराध – गंभीर समस्या...!


       
           हमारे देश में इस समय सेक्स व बलात्कार के घटनाक्रम चरम सुर्खियों में चल रहे हैं । पूर्व इसके कि इस बारे में मैं अपने मन की कुछ कहूँ, पहले प्रस्तुत है सिर्फ एक दिन के ताजे अखबार की कुछ सुर्खियां-

          1. सर्वाधिक चर्चित 5 वर्षीय बालिका के ताजा बलात्कार प्रकरण में पुलिस ने बच्ची के पिता से कहा- 2000/- रु. लो और चुप रहो । 

          2.
झूंझनू (राजस्थान) दुकान पर कंचे लेने गई 5 वर्षीय बच्ची से दुकानदार गिरधारीलाल के द्वारा दुष्कर्म ।

          3.
फतेहाबाद (हरियाणा) में टाफी का लालच देकर 4 साल की मासूम से 14 वर्षीय किशोर के द्वारा दुष्कर्म ।

          4.
घंसौर (जबलपुर म.प्र.) में दुष्कर्म की शिकार हुई 4 साल की मासूम बच्ची को उपचार के लिये एयर एम्बुलेंस से नागपुर भेजा गया । बच्ची  की हालत नाजुक बनी हुई है ।

         5.
नई दिल्ली के शाहदरा इलाके में 8 लडकों के द्वारा करीब 9 दिनों तक सामूहिक बलात्कार का शिकार बनी 13 वर्षीय पीडिता ने उन लडकों की पहचान बताने के बाद भी पुलिस के निष्क्रिय रवैये से परेशान होकर आत्महत्या का प्रयास किया । बेसुध लडकी को कडकडडूमा के हेडगेवार अस्पताल में भर्ती किया गया है जहाँ उसकी हालत स्थिर है ।

           ये तो मात्र कुछ वे उदाहरण हैं जो किसी भी कारण से चर्चाओं के दायरे में आ गये, किन्तु जहाँ भय अथवा लालच के कारण पीडित पक्ष द्वारा चुप्पी साध ली जाती हो ऐसे प्रकरण भी इस मुद्दे पर कम तो नहीं हो सकते । ऐसा लगता है जैसे कि सेक्स के लिये साला कुछ भी करेगा.

         
विरोधस्वरुप चारों ओर से ऐसे जघन्य आरोपियों को नपुंसक बना देने से लगाकर सार्वजनिक तौर पर फाँसी की सजा देने की मांग चाहे जिस पैमाने पर भी उठ रही हों किन्तु सभी जानते हैं कि न तो इस देश में ऐसे कठोर कानून बन सकते हैं और न ही आधी-अधूरी व्यवस्थाओं में इस प्रकार के अपराध रुक सकते हैं फिर इस प्रकार की जघन्य समस्याओं का समाधान कैसे हो ?

           इन्टरनेट के चलन में आने से पहले रेल्वे स्टेशन जैसे इक्के-दुक्के क्षेत्रों में ही  सामान्य से अत्यन्त मंहगे मूल्य पर मस्तराम जैसे नामों की कामुक पुस्तकें चोरी-छुपे बिकती देखने में आती थी जिन्हें उनके पाठक दुकानदार से जान-पहचान के आधार पर ही खरीदकर पढ पाते थे । किन्तु अब ये जहर इन्टनेट के माध्यम से घर-घर में अपनी आसान पैठ बिल्कुल मुफ्त में बना चुका है और वे सभी जरुरतमंद लोग जो अपनी सामाजिक बाध्यताओं जैसे- आर्थिक आधार अथवा लिंगानुपात के अंतर के चलते समय पर विवाह न हो पाना, शरीरिक रुप से अपंगता की स्थिति होना, पत्नी का समय के पूर्व गुजर जाना या किसी और पुरुष के साथ अन्यत्र चले जाना, या फिर अश्लील चित्र, साहित्य व पोर्न वीडीओ  के निरन्तर बढते चलन के कारण समय पूर्व यौनेच्छा जाग्रत होना, जैसे अनेक कारणों के चलते इच्छाएँ पाल तो सकते हैं किन्तु उन्हें पूरा नहीं कर सकते वे आखिर और क्या करेंगे ?

           अपनी किशोरावस्था का एक बडा समय मुम्बई में गुजारने के दौरान मेरे देखने में आया था कि वहाँ हर कदम पर 'बाई व बाटली' आसानी से उपलब्ध हो जाती थी ।  तब पीला हाऊस जैसे क्षेत्रों में वहाँ खुलेआम देह व्यापार चलता दिखता  था और इस सुविधा के कारण वहाँ आधी रात को भी अकेली जा रही किसी युवती के उपर यौनाक्रमण जैसे समाचार ना के बराबर ही सुनने-देखने में आते थे ।

      यद्यपि अब मैं उस महानगर के संपर्क में नहीं हूँ किन्तु यह बात अब भी दिखाई देती है कि दिल्ली जैसे देश की राजधानी वाले महानगर की तुलना में आज भी वहाँ से इस प्रकार की खबरें आनुपातिक रुप से ना के बराबर ही सुनने को मिलती हैं और उसका कारण मुझे तो यही लगता है कि बरसों पूर्व आसान सेक्सपूर्ति की जो सुविधाएँ वहाँ मौजूद थी वो किसी भी बदले हुए रुप में आज भी अनिवार्य रुप से मौजूद होंगी । फिर जब आसानी से कुछ रुपये देकर इन्सान अपनी यौनउत्तेजना को संतुष्ट कर लेता हो तो फिर उसे किसी युवा किशोरी को घेरकर सामूहिक बलात्कार करना या वैसी सुविधा न दिखने पर किसी भी 4-5 वर्ष के आसपास की किसी दुधमुंही बच्ची जो आसानी से शिकायत भी न कर सके को उठाकर, बहलाकर अपनी यौनपिपासा शांत करने का स्वयं के लिये भी खतरनाक प्रयास करना, ऐसी कुत्सित स्थितियों तक पहुँचने की शायद कोई जरुरत ही नहीं रहेगी ।
 
           किन्तु एक तरफ नारी मुक्ति आंदोलन के समर्थक सेक्स-व्यवसाय के विरोध में अपनी आवाज निरन्तर बुलन्द करते दिखाई देते हैं दूसरी ओर सरकारें भी जनता के बीच लोकप्रिय दिखने के प्रयास में ऐसे धंधों को बलात् कुचलने व रोकने में लगी रहती हैं जबकि सेक्स-व्यवसाय और कुछ नहीं तो ऐसे जरुरतमंद लोगों के लिये कचरे की उस टोकरी जितना उपयोगी तो है ही जिसकी मौजूदगी में जरुरतमंद लोग अपने शरीर के इस अनिवार्य कचरे को समाज में इधर-उधर फैलाने की बजाय रात के अंधेरे में इस कचरा पेटी में सुरक्षित रुप से छोड आते हैं और गरीब घरों की वे जरुरतमंद लडकियां जिन्हें किसी भी कारण से इस माध्यम की कमाई की उपयोगिता लगती है वे यहाँ इन जैसे जरुरतमंद लोगों की इस हवसपूर्ति को आसानी से शांत कर अपने व अपने परिवार के भरण-पोषण योग्य आमदनी भी आसानी से जुटा लेती हों, तो क्या समाज व सरकार को कुछ आवश्यक सुरक्षा उपायों के द्वारा इस व्यवसाय को घनी आबादी वाले क्षेत्रों में किसी सुनिश्चित इलाके में सीमित पैमाने पर पनपने की अनुमति नहीं देनी चाहिये

           यहाँ यह सोचना भी गलत नहीं होगा कि रोकथाम के तमाम सरकारी व सामाजिक प्रतिबन्धों के बावजूद भी ये व्यवसाय चोरी-छुपे चल तो रहा ही है, किन्तु वर्तमान स्वरुप में हर जरुरतमंद की इन तक पहुँच नहीं है और इस व्यवसाय से होने वाली आमदनी का बडा हिस्सा मात्र बिचौलियों व भ्रष्ट अधिकारियों की जेबों में पहुंचकर रह जाता है, जबकि शासकीय स्तर पर सुरक्षा मिलने से न सिर्फ उपरोक्त दर्शित जरुरतमंद तबके की इस प्रकार की आवश्यकता पूर्ण होती रह सकती है, बल्कि व्यवसायिक स्तर पर इसके चलते रहने से किसी भी अन्य व्यवसाय के समान इससे देश के राजस्व में बढौतरी भी होती रह  सकेगी ।  आज भी विश्व के कई बडे व नामी शहर इस व्यवसाय को शासकीय सुरक्षा मुहैया करवाकर अन्य शहरों व देशों से कहीं अधिक तेजी से उन्नति करते देखे जा सकते हैं और वहाँ के समाज में पुरुषों की परदे के पीछे की इस आवश्यकता के कारण युवतियों व बच्चियों पर इस प्रकार के यौनआक्रमण भी प्रायः देखने-सुनने या पढने में नहीं आ पाते हैं ।

14.4.13

क्यों हमें मंदिर जाना ही चाहिये...?

सर्वधर्म समभाव.                                                                                                            
सबका मालिक एक....
                                                                      

        मंदिर और उसमें स्थापित भगवान की प्रतिमा हमारे लिए आस्था के केंद्र हैं। मंदिर हमारे धर्म का प्रतिनिधित्व करते हैं और हमारे भीतर आस्था जगाते हैं । किसी भी मंदिर को देखते ही हम श्रद्धा के साथ सिर झुकाकर भगवान के प्रति नतमस्तक हो जाते हैं। आमतौर पर हम मंदिर भगवान के दर्शन और कामनाओं की पूर्ति के लिए जाते हैं लेकिन मंदिर जाने के और कई लाभ भी हैं

        मंदिर वह स्थान है जहां जाकर मन को शांति का अनुभव होता है, वहां हम अपने भीतर अतिरिक्त शक्ति का अहसास करते हैं, हमारा मन-मस्तिष्क प्रफुल्लित हो जाता है, शरीर उत्साह और उमंग से भर जाता है, मंत्रों के स्वर, घंटे-घडिय़ाल, शंख और नगाड़े की ध्वनियां सुनना मन को अच्छा लगता है, और इन सभी के पीछे ऐसे वैज्ञानिक कारण हैं जो हमें प्रभावित करते हैं ।

        मंदिरों का निर्माण पूर्ण वैज्ञानिक विधि से होता है । मंदिर का वास्तुशिल्प ऐसा बनाया जाता है, जिससे वहां शांति और दिव्यता उत्पन्न होती रहे । मंदिर की वह छत जिसके नीचे मूर्ति की स्थापना की जाती है, ध्वनि सिद्धांत को ध्यान में रखकर बनाई जाती है, जिसे गुंबद कहा जाता है इसी गुंबद के शिखर के केंद्र बिंदु के ठीक नीचे मूर्ति स्थापित होती है । गुंबद तथा मूर्ति का मध्य केंद्र एक रखा जाता है जिससे मंदिर में किए जाने वाले मंत्रोच्चारण के स्वर और अन्य ध्वनियां गूंजती है तथा वहां उपस्थित व्यक्ति को प्रभावित करती है । गुंबद और मूर्ति का मध्य केंद्र एक ही होने से मूर्ति में निरंतर ऊर्जा प्रवाहित होती है। हम जब उस मूर्ति को स्पर्श करते हैं, उसके आगे सिर टिकाते हैं, तो हमारे अंदर भी ऊर्जा प्रवाहित होने लगती है और इसी ऊर्जा से हमारे अंदर शक्ति, उत्साह, प्रफुल्लता का संचार होता है ।

        मंदिर की पवित्रता हमें प्रभावित करती है । हमें अपने अंदर और बाहर इसी तरह की शुद्धता रखने की प्रेरणा देती है । मंदिर में बजने वाले शंख और घंटों की ध्वनियां वहां के वातावरण में कीटाणुओं को नष्ट करते रहती हैं । घंटा बजाकर मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश करना हमें यह शिष्टाचार भी सिखाता है कि जब हम किसी के घर में प्रवेश करें तो पूर्व में सूचना दें । घंटे का स्वर देवमूर्ति को जाग्रत करता है, ताकि आपकी प्रार्थना सुनी जा सके। शंख और  घंटे-घडिय़ाल की ध्वनि दूर-दूर तक सुनाई देती है, जिससे आसपास से आने-जाने वाले अंजान व्यक्ति को पता चल जाता है कि आसपास कहीं मंदिर भी है।

        मंदिर में स्थापित देव प्रतिमा में हमारी आस्था और विश्वास होता है । मूर्ति के सामने बैठने से हम एकाग्र होते हैं और यही एकाग्रता धीरे-धीरे हमें भगवान के साथ एकाकार करती है, तब हम अपने अंदर ईश्वर की उपस्थिति को महसूस करने लगते हैं, एकाग्र होकर चिंतन-मनन से हमें अपनी समस्याओं का समाधान जल्दी मिल जाता है ।

        मंदिर में स्थापित देव प्रतिमाओं के सामने नतमस्तक होने की प्रक्रिया से हम अनजाने ही योग और व्यायाम की सामान्य विधियां भी पूरी कर लेते हैं जिससे हमारे मानसिक तनाव, शारीरिक थकावट, आलस्य दूर हो जाते हैं । मंदिर में परिक्रमा भी की जाती है जिसमें पैदल चलना होता है । मंदिर परिसर में हम नंगे पैर पैदल ही घूमते हैं, यह भी एक व्यायाम है । नए शोध में साबित हुआ है कि मंदिर तक नंगे पैर  जाने से पगतलियों में एक्यूपे्रशर होता है, इससे पगतलियों में शरीर के कई भीतरी संवेदनशील बिंदुओं पर अनुकूल दबाव पड़ता है जो स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता है ।

        इस तरह हम देखते हैं कि मंदिर जाने से हमे कितने लाभ मिलते है । मंदिर को वैज्ञानिक शाला के रूप में विकसित करने के पीछे हमारे पूर्वज ऋषि-मुनियों का यही लक्ष्य था कि सुबह जब हम अपने काम पर जाएं उससे पहले मंदिर से ऊर्जा लेकर जाएं, ताकि अपने कर्तव्यों का पालन सफलता के साथ कर सकें और जब शाम को थककर वापस आएं तो नई ऊर्जा प्राप्त करें । इसलिए दिन में कम से कम एक या दो बार मंदिर अवश्य जाना चाहिए ।
        
      इससे हमारी आध्यात्मिक उन्नति तो होती है, साथ ही हमें निरंतर ऊर्जा मिलती है और शरीर स्वस्थ रहता है ।

मुनि श्री सिद्धांतसागरजी महाराज के चिंतन से साभार...


10.4.13

सार्थक झूठ...


        बडे बाबू अपनी उम्र के 95 वर्ष पूरे कर चुके थे और उनकी ये जिद थी कि मैं तो 100 साल पूरे करके ही इस संसार से बिदा लूंगा और अपने-आप से उनका यह इतना प्रबल आग्रह था कि पिछले 3-4 वर्षों से तो वे किसी को पहचानते तक नहीं थे, कौनसी तारीख, कौनसा दिन, कौनसा साल कुछ भी उनकी स्मृति में बाकि नहीं बचा था, अलबत्ता नाते-रिश्तेदार, उनके पुत्र के आफिस के मित्र-परिचित जो भी घर आते और औपचारिकतावश उनसे मिलकर कुशलक्षेम पूछते तब भी उनमें से किसी को भी पहचाने बगैर वे यह कहना नहीं भूलते कि अब तो 100 साल पूरे करके ही बिदा लूंगा ।

        उनकी धर्मपत्नी तो 20 वर्ष पहले ही अपना शरीर और उनका साथ छोडकर जा चुकी थी किन्तु बडे बाबू की बात ही ओर थी । अपने कार्यकाल में सरकारी कार्यालय के मलाईदार ओहदे पर रहते हुए उन्होंने नाम और नावां दोनों कमाए थे, अच्छे-खासे लोगों से जान-पहचान और उसी अनुसार उनका रुतबा हुआ करता था । सुबह की शुरुआत कसरत, योग और दौड जैसी स्वास्थ्यप्रद गतिविधियों से होती थी और नियमित पौष्टिक भोजन की आदत उनके पिताजी के जमाने से ही चली आ रही थी, इसीलिये शरीर से भी उतने ही मजबूत रहते थे । जब उनके रिटायरमेंट का बिदाई समारोह हुआ तब हार-मालाओं से लदे, हाथ में बडा सा गुलदस्ता लिये अपने सैकडों मित्रों और सहकर्मियों के साथ पूरे जुलूस के माहौल में 3 किलोमीटर का चक्कर लगाकर बडे बाबू घर आये थे और उनके उन सभी सहकर्मी मित्रों का देर रात तक खाना-पीना और मिलने-मिलाने का दौर चलता रहा था ।

        तब उनकी पूरी गृहस्थी साथ थी बेटी व बेटे की शादियों की जिम्मेदारी से भी ताजे-ताजे ही निवृत्त हुए थे । आर्थिक समस्या भी कुछ नहीं थी लेकिन खाली वक्त भी अपने आप में समस्या होता है सो उसका समाधान भी उन्होंने पार्ट टाईम प्राईवेट जाब करके निकाल लिया था और इस प्रकार आमोद-प्रमोद सी स्थिति में अपने मन के मालिक बने रहकर बाबूजी अपनी जीवन-यात्रा उम्र के इस मुकाम तक ले आये थे, लेकिन पिछले 8-10 वर्षों से जो मीनिया उनके दिमाग में बैठ गया था कि अब तो सौ साल पूरे करके ही यहाँ से बिदा लूंगा यह सोच हर गुजरते दिन के साथ बलवती होती चली गई और अब तो स्थिति यह हो गई थी कि उनके जीवन में इस सोच के अलावा बाकि कुछ बचा ही नहीं था ।

        जर्जर हो चुकी उनकी काया को न तो नियमित नींद, भूख-प्यास लगती थी और न ही मल-मूत्र विसर्जन का कोई होश रहता था, कई-कई दिन बिस्तर पर पडे रहने से पर्याप्त साफ-सफाई के बाद भी घर के उस हिस्से में बदबू ने अपना स्थाई डेरा बना रखा था । बेटे-बहू भी एक ही पुत्री और एक पुत्र के माता-पिता थे । बेटी शादी करके बिदा हो गई थी और बेटा विदेश में रहकर अपने भविष्य की बुनियाद वहीं बना रहा था और तीन वर्ष में एक बार ही मिलने आ पा रहा था । इस बार जब बेटा घर आया और सबसे मिलने-जुलने के बाद अपनी माँ से दादाजी की कमजोरी और बेचारगी की बात करने लगा तो माँ लगभग रो पडी और उनकी ऐसी स्थिति में भी उस जिद्दी सोच के कारण
वे कितनी मुश्किलों से उनकी सार-संभाल कर पा रही हैं इसका पूरा हाल उन्होंने अपने बेटे को बताया । बेटा रात-भर सोचता रहा और दूसरे दिन अपने कुछ स्थानीय मित्रों और मिलने-जुलने वालों से मिलकर आने वाले कल की तैयारी में लग गया ।

        दूसरे दिन सुबह उठते ही दो सेविकाओं ने आकर दादाजी को अच्छे सुगंधित साबुन से नहला-धुला कर बिल्कुल नये कपडों में सजाकर साफ-सुथरे माहौल में लिटा दिया फिर उनके पोते ने आकर उन्हें फूलों का गुलदस्ता देते हुए उनके पैर छूकर कहा- बधाई हो दादाजी.. आज आप पूरे सौ साल के हो गये । उसके बाद पहले तो पूरे परिवार के लोग उन्हें फूल-मालाएँ पहना-पहनाकर उनके सौ वर्ष पूरे होने की बधाईयाँ देने लगे और फिर घर के बाहर के मित्रों और परिचितों का भी उन्हें उनके जीवन के सौ साल पूरे होने की बधाई देने का सिलसिला चल पडा । 

        उस पूरे दिन घर में बीसियों मेहमानों के लिये शानदार भोजन का आयोजन चलता रहा और दादाजी की प्रसन्नता उनके जीर्ण-शीर्ण चेहरे पर अलग ही दमदमाती रही । देर रात तक भी उस दिन घर अपने सामान्य क्रम में नहीं आ पाया और सुबह सवेरे माँ ने फिर अलसुबह ही अपने बेटे को नींद से जगाकर यह बताते हुए काम की नई जिम्मेदारियां सौंप दी की बेटा दादाजी महाप्रयाण कर गये ।

1.4.13

निरन्तर मामा बनते हम...

मूर्ख दिवस (अप्रेल फूल) पर विशेष
       
           एक सज्जन बनारस पहुँचे । स्टेशन पर उतरे ही थे कि एक लडका दौडकर आया- मामाजी ! मामाजी !! लडके ने चरण छुए ।

          वे पहचाने नहीं । बोले "तुम कौन" ?

          "मै मुन्ना । आप पहचाने नहीं मुझे" ?

          मुन्ना ? वे सौचने लगे ।

          "हाँ मुन्ना । भूल गये आप मामाजी" ! खैर कोई बात नहीं, इतने साल भी तो हो गए ।

          तुम यहाँ कैसे ?

          मैं आजकल यहीं हूँ ।

        अच्छा ! चलो कोई साथ तो मिला । सोचते हुए मामाजी अपने भानजे के साथ बनारस घूमने लगे । कभी इस मंदिर, कभी उस मंदिर । फिर पहुँचे गंगाघाट । सोचा नहा लें...

         मुन्ना नहा लें ?

         जरुर नहाईये मामाजी ! बनारस आए हैं और नहाएँगे नहीं, यह कैसे हो सकता है ?

         मामाजी ने अपने कप़डे खोल गंगा में डुबकी लगाई । हर-हर गंगे...

         बाहर निकले तो सामान गायब, कपडे भी गायब और मुन्ना भी गायब ।

         मुन्ना... ए मुन्ना ! 

         मगर मुन्ना वहाँ हो तो मिले । वे तौलिया लपेट कर खडे थे । क्यों भाई साहब क्या आपने मुन्ना को देखा है ?

         कौन मुन्ना ?

         वही जिसके हम मामा हैं ।

         मैं समझा नहीं ।

         अरे हम जिसके मामा हैं वो मुन्ना कहते हुए वे तौलिया लपेटे इधर से उधर दौडते रहे किन्तु मुन्ना नहीं मिला ।

          भारतीय नागरिक और भारतीय वोटर के रुप में हमारी भी वही स्थिति है मित्रों ! चुनाव के मौसम में कोई आता है और हमारे चरणों में गिर जाता है । मुझे नहीं पहचाना, मैं चुनाव का उम्मीदवार । आपका होने वाला एम. पी. । मुझे नहीं पहचाना !

         हम उसे अपना समझते हुए प्रजातंत्र की गंगा में डुबकी लगाते है । बाहर निकलने पर देखते हैं कि वह शख्स जो कल तक हमारे चरण छू रहा था, वो हमारा वोट ही नहीं, वोटों की पूरी पेटी लेकर भाग गया ।

         हम समस्याओं के घाट पर तौलिया लपेटे खडे हैं और अपने पास-पडौस में सबसे पूछ रहे हैं- क्यों साहब, वह कहीं आपको नजर आया ? अरे वही, जिसके हम वोटर हैं ।
        वही जिसके हम मामा हैं और पांच साल ऐसे ही तौलिया लपेटे घाट पर खडे बीत जाते हैं ।

परिवर्तित शीर्षक में- मशहूर व्यंगकार शरद जोशी की कलम से...                दैनिक भास्कर द्वारा साभार.

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