6.1.15

चिराग कहाँ रोशनी कहाँ...






वर्तमान समय में विवाह के पश्चात् आधे से अधिक युवतियाँ अपने ससुराल में मौजूद परिजनों से तालमेल नहीं बैठा पाती, जिसके अनेकों कारण हो सकते हैं- इनमें मुख्य रुप से उसके अपने नजरिये में सास-ससुर के सोचने के पुराने तरीके होना, उसकी अपनी ये सोच बन जाना कि मुझसे पहले से मौजूद बडे बेटे-बहू को मेरे ससुराल वाले हर समय मुझसे व मेरे पति से ज्यादा तवज्जो देते हैं, सास-ससुर का किसी शारीरिक बीमारी से त्रस्त रहना या अपने ससुराल पक्ष के किसी भी अन्य कमाने वाले शख्स की तुलना में उसके अपने पति की आमदनी बहुत अच्छी होने के बावजूद निज स्वार्थ के चलते उसमें अपने ससुराल के लिये एक पैसा भी खर्च नहीं होने देना, जैसे कई कारण देखे जा सकते हैं ।


जहाँ पति की आमदनी बहुत अच्छी हो और लडकी स्वयं को बहुत आधुनिका समझते हुए घर में आई हो वहाँ तो ये स्थिति और भी कोढ में खाज के समान हो जाती है क्योंकि वहाँ प्रायः धन व यौवन के मद में चूर ऐसी युवतियों की सोच यह भी बन जाती है कि मेरे माँ-बाप ने मेरे लिये लडका देखा है और मैं लडके से निभा रही हूँ या यदि किसी को बुरा लगता हो तो मेरी बला से, मैं किसी से क्यों डरुँ. अब वह लडका आएगा तो मेरे ही आगोश में और जो कुछ भी कमा कर लाएगा वो सिर्फ मेरे लिये, मेरे पति के लिये और यदि हमारी अपनी कोई सन्तान है तो उसके लिये बस । अब मैं चाहूँ उतनी फिजूल-खर्ची करुँ, अपनी हैसियत का नाना प्रकार से दिखावा करुँ किन्तु खर्च तो मेरे इस दायरे से बाहर होने नहीं दूँगी और यदि मेरे ससुरालजन के पास बँटवारे योग्य कोई सम्पत्ति है तो उसमें से भी मैं 51% भले ही हासिल करलूँ, किन्तु 49% नहीं ।

प्रायः इन स्थितियों में कभी मान-सम्मान की खातिर तो कभी किसी अन्य मजबूरी के खातिर बूढे और अशक्त सास-ससुर को खून का घूंट पीकर भी चुप रहना पडता है जिससे ऐसी युवतियों के हौसले और बुलन्द ही होते है किंतु यहाँ प्रायः प्रकृति दो प्रकार से तात्कालिक इन्साफ करती दिखाई देती है, पहला तो यह कि जैसे-जैसे इस प्रकार की कोई युवती अपने सास-ससुर व ससुरालजनों के प्रति बेरुखी का व्यवहार करती है वैसै-वैसे कहीं दूर बैठे उस युवती के अपने  माता-पिता के शारीरिक व आर्थिक कष्ट बढना चालू हो जाते हैं और मानसिक रुप से भी वे ऐसे पंगु होते जाते हैं कि अपने इन जैसे कष्टों के बारे में किसी से खुलकर कुछ बोल पाने लायक भी नहीं रह पाते । कई बार जब ऐसी युवतियाँ अपने इस छोटे से दायरे (पति, सन्तान व स्वयं) में हारी-बीमारी या अन्य किसी आपदा-विपदा में फँस जाती है तो ससुराल वाले या अन्य परिजन तो दूर उसके अपने माता-पिता तक उनकी कोई मदद कर पाने की स्थिति में नहीं दिख पाते ।

  अतः जब भी कोई विवाहित युवती यदि यह देखे कि मेरी शादी के बाद मेरे माता-पिता के बुरे दिन न सिर्फ चालू हो गये हैं बल्कि निरन्तर नित नई दुश्वारियाँ उनके जीवन में बढती ही जा रही हैं तो सबसे पहले वो अपने ससुराल में स्वयं के द्वारा किये जाने वाले व्यवहार के प्रति तटस्थ व निष्पक्ष भाव से स्वयं यह सोचे कि कहीं यहाँ ससुराल में किया जाने वाला मेरा व्यवहार अप्रत्यक्ष रुप से मेरे अपने माता-पिता के दुःखों को बढाने वाला कारण तो नहीं बन रहा है ? क्या मेरे अपने सास-ससुर, जेठ-जेठानी अथवा ससुराल पक्ष मे रहने वाले बडे व आदरणीय सदस्य मेरे व्यवहार से क्षुब्ध, दुःखी अथवा ऐसी किसी शिकायत के दायरे में तो नहीं हैं जिसे वो मन मारकर बस जैसे-तैसे झेल रहे हैं और मुझे उससे कोई फर्क नहीं पड रहा है ।

   निश्चित रुप से जैसे-जैसे वो अपनी स्वार्थवृत्ति में सुधार लाकर व अपने अहँ के दायरे से बाहर निकलकर अपने व्यवहार में सुधार लाते हुए अपने ससुरालजनों का दिल जीतने में सफल हो सकेगी वैसे-वैसे अपने स्वयं के माता-पिता के दुःखों व कष्टों को स्वयं ही कम होते भी देख पाएगी । 
     
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