6.1.20

आनंद की चाह में - तनाव क्यों...?


       एक परिचित का पुत्र अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद छोटे-मोटे काम करते हुए जीवन में स्थापित होने का प्रयास कर रहा था । शादी योग्य उसकी उम्र थी और संयोग से उचित लडकी के साथ उसका विवाह हो गया । लडकी जिस शहर व परिवार से थी वहाँ उनके कोई परिचित रेडिमेड कपडों में प्रयुक्त होने वाला केनवास बनाते व वस्त्र निर्माताओं को सप्लाय करते थे जबकि लडकी की बडी बहन भी पहले से उसके ससुराली शहर में ब्याही थी ।

       अब दोनों युवतियों ने मिलकर पार्टटाईम जॉब करने की चाहत के साथ अपने ससुराल वाले शहर में उस केनवास का मार्केट बनाना प्रारम्भ किया और शुरुआती संघर्षों के साथ वे अपने को स्थापित कर पाने में सफल होने लगी । किंतु कहीं हिसाब-किताब की कमजोरी व कहीँ लेनदेन का तालमेल बैठाने में होने वाले तकलीफों के निदान हेतु मेरे परिचित का पुत्र अपनी पत्नी व उसकी बहन की मदद करने लगा ।

Read Also-

       काम जमता गया, पहले से शहर में मौजूद बहन ने अपना पृथक कामकाज सेट कर लिया और ये पति-पत्नी अपने प्रयासों से उस व्यवसाय को आगे चलाने लगे । अब मेरे परिचित का वह पुत्र जो 6-8 वर्ष पूर्व 20,000/- रु. भी महिने में नहीं कमा पाता था वह खाते-पीते 5-7 लाख रु. वार्षिक की बचत करने लगा । जाहिर है कि वे अपने प्रयासों से अपने लक्ष्य में पर्याप्त सफल रहे लेकिन आश्चर्य यह कि 20,000/- रु. मासिक की कोशिश करता वह हँसमुख मनोविनोदी युवक अब सुबह से रात तक असंतुष्ट स्थिति में चिडचिडाते हुए ही दिखाई देने लगा ।

      मेरी नजर में यह उस व्यवसायिक सफलता का उल्टा रिएक्शन हुआ । ऐसा क्यों का कारण खोजने की जब कोशिश की तो एक ही उत्तर दिखा कि जो हमारे पास है उस उपलब्धि की संतुष्टी से बढकर जिस लक्ष्य तक हम नहीं पहुँच पाए या पा रहे हैं यह असंतोष जीवन में शायद हर किसी के लिये अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है और तब हमारी तब तक की उपलब्धि का जो आनंद हमें व हमारे परिजनों को मिलना चाहिये था वह गायब हो जाता है ।

      इसका विपरीत उदाहरण भी कहीं पढी एक कहानी के रुप में सामने आया था । देखिये-

      बेल बजने पर देखा- चौकीदार खड़ा था जो पेड़े देने आया था, बोला साहब मेरा बेटा दसवीं पास हो गया । मैंने अंदर बुलाकर उसे बैठने को कहा, तो उसने पेड़े का पैकेट मेरे हाथ पर रखा । मैंने पूछा कि कितने मार्क्स मिले बेटे को ? तो उसने बताया बासठ प्रतिशत.

      मुझे आश्चर्य हुआ कि आजकल जहाँ 90 प्रतिशत से अधिक जब तक सुनने में ना आवे तो बच्चा फेल हुआ सा लगता हो । वहीं चौकीदार बोला- साहब, मैं बहुत खुश हूँ । मेरे खानदान में इतना पढ़ने वाला मेरा बेटा ही है । अच्छा, इसीलिए पेड़े. तो वो हँसकर बोला- साहब, अगर मेरी सामर्थ्य होती तो हर साल पेड़े बाँटता । "मेरा बेटा बहुत होशियार नहीं है, मुझे मालूम है । लेकिन वो कभी फैल नहीं हुआ और हर बार 2-4 प्रतिशत नंबरों से बढ़कर ही पास हो रहा है, क्या ये ख़ुशी की बात नहीं ? वो बिना किसी सुख-सुविधा के पढ़ रहा है, इसलिये वो सिर्फ पास भी हो जाता, तब भी मैं पेड़े बाँटता ।वैसे भी मेरे बाबा कहते थे कि, आनंद अकेले मत हजम करो बल्कि, सब में बांटो । तो ये सिर्फ पेड़े नहीं हैं साहब - ये मेरा आनंद है !"

      मेरा मन भर आया । मैं उठकर भीतरी कमरे में गया और एक सुन्दर पैकेट में कुछ रुपए रखकर भीतर से ही मैंने आवाज लगाईचौकीदार, बेटे का नाम क्या है ? "प्रकाश" बाहर से आवाज आई । मैंने पैकेट पर लिखा - प्रिय प्रकाश, हार्दिक अभिनंदन ! अपने पिता की तरह सदा, आनंदित रहो ।

      बहुत ना-नुकर के साथ चौकीदार ने वो पैकिट लिया और मेरा आभार मानता चला गया लेकिन उसका आनंदित चेहरा मेरी नजरों के सामने से हट नहीं रहा था । बहुत दिनों बाद एक आनंदित और संतुष्ट व्यक्ति से मेरी मुलाकात हुई थी । वर्ना आजकल ऐंसे लोग मिलते कहाँ हैं । किसी से जरा कुछ बोलने की कोशिश करो और विवाद शुरू । मुझे उन माता-पिताओं के लटके हुए चेहरे याद आए जिनके बच्चों को 90 प्रतिशत अंक मिले थे । लेकिन आनंदित होने की बजाय वे चेहरा लटकाकर ये सोचते दिखते थे कि इस परसेंटेज में बच्चे को मनपसंद कॉलेज में एडमिशन मिलेगा या नहीं ।

     जबकि देखा जाये तो आनंद के स्रोत कहाँ-कहाँ नहीं बिखरे पडे हैं- किसी फूल की खुशबू सूंघकर आनंदित होने में कितना समय लगता है ? सूर्योदय-सूर्यास्त को देख आनंदित होने में कहाँ कुछ खर्च होता हैं ? स्नान करते हुए गीत गुनगुनाएं, तो कौन हमें रोकता है ? मौसम की शुरुआती बारिश में भीगकर देखें- तो आनंद मिलता हे कि नहीं । ऐसा कुछ भी करने के लिए हमें मूड़ की आवश्यकता आखिर क्यों लगती है ?

        जन्म के समय हमारी बंद मुट्ठी में ईश्वर ने एक हाथ में आनंद और दूसरे में संतोष भरके भेजा है । किंतु दुसरों से तुलना करते हुए... और पैसे, और कपड़े, और बड़ा घर, और हाई पोजीशन, और परसेंटेज...! इस और-और के पीछे भागते-भागते आनंद के उस स्वाभाविक स्रोत से कितने आगे निकल गये हैं हम !

       कहीं पर भी जीवन में पाने के लिये निरन्तर प्रयासरत रहना गलत नहीं है बल्कि हमारा कर्तव्य भी है कि जीवन की अंतिम सांस तक हमारी कर्मठता कायम रहे, किंतु इस पाने के प्रयास में जो कुछ हमने पा लिया है उसका वास्तविक आनंद भी जो हमें लेना चाहिये वहीं हममें से अधिकांश लोग उस पाये हुए के आनंद को भुलाकर अप्राप्य का तनाव लेकर जी रहे हैं । पा लेने की कोशिश की जद्दोजहद और पाये जा चुके की उपलब्धि के बीच यह सीमारेखा तो हमें रखना ही चाहिये कि जो प्राप्त है, वो भी पर्याप्त है ।

Read Also-

       आनंद की उपलब्धि का एक रास्ता यह भी है कि अपने आसपास के किसी वास्तविक जरुरतमंद और सुपात्र प्राणी की ऐसी मदद हम अवश्य करें जिसे हम आसानी से कर सकते हैं और जिसमें हमारा कोई नुकसान न हो रहा हो । किसी वास्तविक जरुरतमंद की मदद के संतोष-सुख को दर्शाती मात्र (1-30) डेढ मिनिट की यह छोटी सी वीडिओ क्लिप अवश्य देखिये, कितनी कुशलता के साथ इसके निर्माता ने इतनी छोटी अवधि में एक बडा संदेश प्राणी मात्र के लिये सफलतापूर्वक दिया है...



3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 06 जनवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  2. रोचक पोस्ट। आपने सही कहा हम हर चीज पाने के लिए इतनी दौड़ भाग करते हैं कि जो पा लिया है उसका आनंद नहीं ले पाते हैं। एक फिल्म देखी थी जिसमें दो किरदार बातचीत करते रहते हैं। एक किरदार दूसरे को अपनी छत की बालकनी दिखाते हुए कहता है कि जब यह घर लिया था तो यह देखकर लिया था कि बालकनी से व्यू अच्छा आता है। बैठकर चाय पीने का आनंद लूँगा लेकिन जब से घर लिया है मैं इधर बैठ नहीं पाया हूँ। यह दृश्य काफी कुछ कह जाता है। इसने काफी कुछ सिखा दिया था। सुंदर पोस्ट। 

    जवाब देंहटाएं
  3. जीवन के प्रति नजरिया बदलने की सन्देश देती सुंदर प्रस्तुति.

    जवाब देंहटाएं

आपकी अमूल्य प्रतिक्रियाओं के लिये धन्यवाद...

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...