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11.1.20

प्रेरणा कहाँ-कहाँ से...


       किसी समय एक राजा था जिसे राज भोगते काफी समय हो गया था बाल भी सफ़ेद होने लगे थे । एक दिन उसने अपने दरबार में उत्सव रखा । उत्सव मे मुजरा करने वाली के साथ दूर देश के राजाओं को भी अपने गुरु के साथ बुलाया । कुछ मुद्राएँ राजा ने यह सोचकर अपने गुरु को दी कि जो बात मुजरा करने वाली की अच्छी लगेगी वहाँ गुरु स्वयं ये मुद्राएँ देंगे ।  

           सारी रात मुजरा चलता रहा । सुबह होने वाली थीं, मुज़रा करने वाली ने देखा मेरा तबले वाला ऊँघ रहा है उसको जगाने के लियें मुज़रा करने वाली ने एक दोहा पढ़ा-

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 "बहु बीतीथोड़ी रहीपल-पल गयी बिहाई ।
एक पलक के कारनेना कलंक लग जाए।"

           अब इस दोहे का अलग-अलग व्यक्तियों ने अपने-अपने अनुरूप अर्थ निकाला ।

           तबले वाला सतर्क होकर  बजाने लगा ।

           जब ये बात गुरु ने सुनी तो गुरु ने अपने पास की सारी मोहरें उस मुज़रा करने वाली को दे दी ।

           वही दोहा उसने फिर पढ़ा तो राजा की लड़की ने अपना नवलखा हार उसे दे दिया ।

           जब वही दोहा नर्तकी ने फिर दोहराया तो राजा के लड़के ने अपना मुकट उतारकर दे दिया । 

           जब वह उस दोहे को फिर दोहराने लगी तो राजा ने कहा अब बस भी कर एक दोहे से तुने वेश्या होकर भी सबको लूट लिया है ।

           जब ये बात राजा के गुरु ने सुनी तो गुरु के नेत्रों मे जल आ गया और वो कहने लगे, "राजन् इसे तू वेश्या न कह, ये मेरी गुरू है । इसने मुझें मति दी है कि मै सारी उम्र जंगलो मे भक्ति करता रहा और आखरी समय मे मुज़रा देखने आ गया । भाई मैं तो चला ।

           राजा की लड़की ने कहा, "आप मेरी शादी नहीं कर रहे थेआज मुझे आपके महावत के साथ भागकर अपना जीवन बर्बाद कर लेना था । इसने मुझे सुमति दी है कि कभी तो तेरी शादी होगी । क्यों अपने पिता को कलंकित करती है ?"

           राजा के लड़के ने कहा, "आप मुझे राज नहीं दे रहे थे । मैंने आपके सिपाहियो से मिलकर आपका क़त्ल करवा देना था । इसने समझाया है कि आखिर राज तो तुम्हें ही मिलना है । क्यों अपने पिता के खून का इलज़ाम अपने सर लेते हो ?

           जब ये बातें राजा ने सुनी तो राजा ने सोचा क्यों न मैं अभी ही ये राजतिलक कर दूँ, गुरु भी मौजूद हैं । उसी समय राजकुमार का राजतिलक कर दिया और राजकुमारी से कहा बेटी, "मैं जल्दी ही आपकी शादी भी कर दूँगा।"

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           तब नर्तकी कहने लगी, "मेरे एक दोहे से इतने लोग सुधर गए, पर मैं तो ना सुधरी । इसलिये आज से मैं भी अपना धंधा बंद कर प्रभु मै भी तेरा नाम सुमिरन करुँगी ।

           समझ आने की बात है, दुनिया बदलते देर नहीं लगती । एक दोहे की दो लाईनों में जब इतना सामर्थ्य जुट सकता है तो बडी से बडी समस्या में भी बस थोड़ा धैर्य रखने की ज़रूरत होती है...

29.6.11

एक थे शंभू महादेव राव


          वर्षों पूर्व एक फिल्म आई थी नाम था आंसू बन गये फूल. फिल्म के कलाकारों में हीरो देव मुखर्जी थे जिनका रोल एक उद्दंड कालेज छात्र का था, हीरोईन संभवतः तनूजा थी और उसी कालेज के आदर्शवादी प्रिंसीपल की भूमिका निभा रहे थे दादामुनि अशोक कुमार । इसी फिल्म का एक विशेष किरदार अत्यंत खूंखार गुंडे की भूमिका में शंभू महादेवराव नामक पात्र का था जिसके लिये फिल्म के निर्माता निर्देशक ने हिंदी फिल्मों के मशहूर खलनायक प्राण का चुनाव किया था । पूरी फिल्म किसी सफल बंगाली फिल्म का रीमेक ही थी, हिन्दी संस्करण के लिये भी पूरी टीम करीब-करीब बंगाल से जुडे कलाकारों की ही थी जिसमें प्राण जैसे इक्के-दुक्के कलाकार ही ऐसे रहे होंगे जिनका शायद बंगाली पृष्ठभूमि से कोई जुडाव नहीं रहा हो ।

          पूर्व की सफल बंगाली फिल्म जिसके रीमेक में यह फिल्म हिन्दी में बन रही थी इसके बंगाली संस्करण में शंभू महादेवराव का किरदार जिस बंगाली अभिनेता ने निभाया था उसका अभिनय ही उस फिल्म का सबसे सशक्त पक्ष रहा था अतः निर्माता-निर्देशक चाह रहे थे कि प्राण कम से कम एक बार उस बंगाली फिल्म में उस कलाकार को शंभू महादेवराव के रोल में अभिनय करते देख लें जिससे कि हिन्दी संस्करण में इस पात्र की भूमिका के साथ अभिनेता प्राण पूरा न्याय कर सकें । उनके सामूहिक आग्रह पर प्राण ने बहुत ध्यान से सोचने के बाद भी विन्रमतापूर्वक हिन्दी फिल्म के बनने से पहले उस बंगाली संस्करण की फिल्म देखने का उनका अनुरोध यह कहते हुए अस्वीकार कर दिया कि जब आपने मुझे यह रोल दिया है तो मुझे मेरे तरीके से ही इसे करने दीजिये । निर्माता-निर्देशक ने अभिनेता प्राण के इस अनुरोध को स्वीकार कर लिया । हिन्दी फिल्म आंसू बन गये फूल बनी और उस फिल्म का जो सबसे सशक्त पक्ष सामने आया वह प्राण का यही शंभू महादेवराव वाला किरदार ही रहा जिसके लिये इस फिल्म की समूची टीम ने एकमत से यह स्वीकार किया कि प्राण ने जो भूमिका इस पात्र के रुप में इस फिल्म में अभिनीत की उसके समक्ष बंगाली फिल्म के उस कलाकार का अभिनय जो इसी किरदार का उस बंगाली कलाकार ने निभाया था वह प्राण के अभिनय की उत्कृष्टता से बहुत पीछे छूट गया था ।
 
          यहाँ इस घटना का उल्लेख क्यूँ ? दरअसल हम जीवन में जिस भी क्षेत्र में जाते हैं वहाँ उस क्षेत्र के कुछ सुस्थापित सफल नाम ऐसे भी हमारे सामने आते हैं जो हमारे लिये किसी न किसी रुप में प्रेरणास्तोत्र  बन जाते हैं । वहाँ कभी ऐसा भी लगता है कि यदि हम इनकी कार्यशैली का अनुसरण करें तो हमें अधिक तेजी से सफलता मिल सकती है जबकि उनका अनुसरण कर लेने के प्रयास में हम उन जैसे तो बन नहीं पाते बल्कि अपनी स्वयं की मौलिकता और गंवा बैठते हैं । अतः जिन्दगी में हमारा कार्यक्षेत्र चाहे जो रहे हम अपने उन प्रेरणास्तोत्रों से प्रेरणा भले ही लें किन्तु स्वयं की समझ-बूझ के साथ यदि अपनी मौलिक शैली को ही कायम रखते हुए अपनी ओर से श्रेष्ठतम परिणाम देने के प्रयास के साथ ही यदि हम अपना कार्य करते रहें तो निश्चय ही किसी की नकल के बगैर भी उस क्षेत्र में अपनी एक अलग पहचान अधिक आसानी से बनाई जा सकती है ।

          वास्तविक जीवन में कई बार ऐसे अनुभव स्वयं भी देखने में आते हैं और इस फिल्म की भूमिका के माध्यम से अभिनेता प्राण का ये उदाहरण भी इसी तरीके को अधिक अहमियत देता दिखता  है ।
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