वर्षों
पूर्व एक फिल्म आई थी नाम था आंसू
बन गये फूल. फिल्म
के कलाकारों में हीरो देव मुखर्जी थे जिनका रोल एक उद्दंड कालेज छात्र का था, हीरोईन संभवतः तनूजा
थी और उसी कालेज के आदर्शवादी प्रिंसीपल की भूमिका निभा रहे थे दादामुनि अशोक
कुमार । इसी फिल्म का एक विशेष किरदार अत्यंत खूंखार गुंडे की भूमिका में शंभू
महादेवराव नामक पात्र का था जिसके लिये फिल्म के निर्माता निर्देशक ने हिंदी
फिल्मों के मशहूर खलनायक प्राण का चुनाव किया था । पूरी फिल्म किसी सफल बंगाली
फिल्म का रीमेक ही थी, हिन्दी
संस्करण के लिये भी पूरी टीम करीब-करीब बंगाल से जुडे कलाकारों की ही थी जिसमें
प्राण जैसे इक्के-दुक्के कलाकार ही ऐसे रहे होंगे जिनका शायद बंगाली पृष्ठभूमि से
कोई जुडाव नहीं रहा हो ।
पूर्व की सफल बंगाली फिल्म जिसके रीमेक में यह फिल्म हिन्दी
में बन रही थी इसके बंगाली संस्करण में शंभू महादेवराव का किरदार जिस बंगाली
अभिनेता ने निभाया था उसका अभिनय ही उस फिल्म का सबसे सशक्त पक्ष रहा था अतः
निर्माता-निर्देशक चाह रहे थे कि प्राण कम से कम एक बार उस बंगाली फिल्म में उस
कलाकार को शंभू महादेवराव के रोल में अभिनय करते देख लें जिससे कि हिन्दी संस्करण
में इस पात्र की भूमिका के साथ अभिनेता प्राण पूरा न्याय कर सकें । उनके सामूहिक
आग्रह पर प्राण ने बहुत ध्यान से सोचने के बाद भी विन्रमतापूर्वक हिन्दी फिल्म के
बनने से पहले उस बंगाली संस्करण की फिल्म देखने का उनका अनुरोध यह कहते हुए
अस्वीकार कर दिया कि जब आपने मुझे यह रोल दिया है तो मुझे मेरे तरीके से ही इसे
करने दीजिये । निर्माता-निर्देशक ने अभिनेता प्राण के इस अनुरोध को स्वीकार कर
लिया । हिन्दी फिल्म आंसू बन गये फूल बनी और उस फिल्म का जो सबसे सशक्त पक्ष सामने
आया वह प्राण का यही शंभू महादेवराव वाला किरदार ही रहा जिसके लिये इस फिल्म की
समूची टीम ने एकमत से यह स्वीकार किया कि प्राण ने जो भूमिका इस पात्र के रुप में
इस फिल्म में अभिनीत की उसके समक्ष बंगाली फिल्म के उस कलाकार का अभिनय जो इसी
किरदार का उस बंगाली कलाकार ने निभाया था वह प्राण के अभिनय की उत्कृष्टता से बहुत
पीछे छूट गया था ।
यहाँ इस घटना का उल्लेख क्यूँ ? दरअसल हम जीवन में जिस भी क्षेत्र में
जाते हैं वहाँ उस क्षेत्र के कुछ सुस्थापित सफल नाम ऐसे भी हमारे सामने आते हैं जो
हमारे लिये किसी न किसी रुप में प्रेरणास्तोत्र बन जाते हैं । वहाँ कभी ऐसा भी लगता है
कि यदि हम इनकी कार्यशैली का
अनुसरण करें तो हमें अधिक तेजी से सफलता मिल सकती है जबकि उनका अनुसरण कर लेने के
प्रयास में हम उन जैसे तो बन नहीं पाते बल्कि अपनी स्वयं की मौलिकता और गंवा बैठते
हैं । अतः जिन्दगी में हमारा कार्यक्षेत्र चाहे जो रहे हम अपने उन
प्रेरणास्तोत्रों से प्रेरणा भले ही लें किन्तु स्वयं की समझ-बूझ के साथ यदि अपनी
मौलिक शैली को ही कायम रखते हुए अपनी ओर से श्रेष्ठतम परिणाम देने के प्रयास के
साथ ही यदि हम अपना कार्य करते रहें तो निश्चय ही किसी की नकल के बगैर भी उस
क्षेत्र में अपनी एक अलग पहचान अधिक आसानी से बनाई जा सकती है ।
वास्तविक जीवन में कई बार ऐसे अनुभव स्वयं भी देखने में आते
हैं और इस फिल्म की भूमिका के माध्यम से अभिनेता प्राण का ये उदाहरण भी इसी तरीके
को अधिक अहमियत देता दिखता है
।
सुशील जी, बिल्कुल मन मुताबिक बात है। नकल में असल भी चले जाता है। एक बार हमने राष्ट्रीय स्तर का एक कार्यक्रम कराया। हमने वरिष्ठ लोगों से कहा कि पुराने कार्यक्रम की फाइल दिखा दे लेकिन उन्होंने नहीं दिखायी। तब हमने अपनी मर्जी से पूरा आयोजन किया और वह बेहद सफल रहा। आयोजन के बाद में वह फाइल हमारे सामने आयी। इसलिए पुराना देखने पर हम उसी के अनुरूप चलने लगते हैं अपना दिमाग नहीं लगाते हैं। प्राण के उदाहरण से आपने बात को एकदम स्पष्ट कर दिया।
जवाब देंहटाएंमुझे उपरोक्त फोटो से प्राण साहब का एक गाना याद आ गया जो मैं भुला नहीं पाता !
जवाब देंहटाएंयारी है ईमान मेरा ....
आभार आपका !
सतीशजी,
जवाब देंहटाएंकोशिश तो बहुत की थी कि प्राण का इसी फिल्म का काली वेशभूषा में घनी मूंछों व आग उगलती सी आंखों के साथ दोनों हाथों में चाकू वाला फोटो ही इस जगह लगा पाता किन्तु वह मुझे मिल नहीं पाया तो फिर जंजीर का यही यारी है ईमान वाला चित्र काम में ले लिया ।
प्राणजी का अभिनय सच में बहुत सशक्त लगा।
जवाब देंहटाएंकस्मे वादे प्यार वफा का गाना याद आ जाता है।
बिलकुल आपसे सहमत हूँ नक्ल अक्ल से हो।
जवाब देंहटाएंबिलकुल सहमत हूँ | अक्सर जब हम जो कम करने जा रहे है वैसा ही किसी और को करते देखा हो तो उसका कुछ न कुछ प्रभाव हम पर आ ही जाता है और फिर उसमे वो बात नहीं होती जो हम अपनी इच्छा से करते |
जवाब देंहटाएंप्राण साहब के बारे में रोचक जानकारी...
जवाब देंहटाएंकिसी से प्रभावित होना अलग बात है और खुद को स्थापित करना अलग और उसके लिये खुद ही राह बनानी पडती है और मुकाम हासिल करना पडता है…………विचारणीय आलेख्।
जवाब देंहटाएंप्राण साहब का तो मे दिवाना हू, अपने रोल मे जान डालदेते थे,बहुत सुंदर जानकारी दी.
जवाब देंहटाएंठीक कहा है आपने किसी की नक़ल करने की बजे खुद अपनी मंजिल तलाशनी चाहिए|
जवाब देंहटाएंjis film me pran nahi
जवाब देंहटाएंoos film me jaan nahi........
hamne to aisa sun rakha tha
pranam.
अपनी खुद की शैली होगी तभी अपनी खुद की पहिचान बनेगी
जवाब देंहटाएंसशक्त हस्ताक्षर से मिलवाने का आभार।
जवाब देंहटाएंये फिल्म देखी तो नहीं है पर अब मौका मिला तो जरूर देखूँगी.
जवाब देंहटाएंसुशील भाई जी , "आंसू बन गए फूल" मेरी भी देखी हुई है|
जवाब देंहटाएंमें आप की बात से पूरी तरह सहमत हूँ | ये पिक्चर सिर्फ 'प्राण'साहिब की अदाकारी पर ही चली थी |
पूरी सहमति है आपसे ....
जवाब देंहटाएंमहाजनों येन पथे गतः सा पन्था...किसी की नक़ल मार के आगे बढ़ना आसन है...पर अपनी राह बनाना कठिन...मौलिकता को बचाए रखना ज़रूरी है...तभी ने किरदार मिल सकते हैं...
जवाब देंहटाएंfor copy , experience necessary.very good.
जवाब देंहटाएंक्या बात है। बात और बात कहने के अंदाज दोनों से सहमत
जवाब देंहटाएंप्राण साहब में तो नस नस में प्राण भरे थे ..
जवाब देंहटाएंक्या अदा होती थी उनकी..
सच लिखा है आपने,
जवाब देंहटाएंबधाई,
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
जीवंत अभिनय की मूर्ति से मिलकर अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएं------
तांत्रिक शल्य चिकित्सा!
…ये ब्लॉगिंग की ताकत है...।
बहुत सार्थक प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंहमें अपनी मौलिकता को ही श्रेष्ठ बनाने का प्रयास करना चाहिए।
जवाब देंहटाएंबढ़िया आलेख।
इस पोस्ट के माध्यम से जो सन्देश आप देना चाहते हैं मैं सहमत हूँ पूरी तरह ... और जो लोग अपनी विशिष्ट पहचान को कायम रख पाते अहिं वो ही लम्बू दूरी तक जाने जाते हैं ...
जवाब देंहटाएंबहुत सार्थक प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंप्राण साहब से मिलवाने का आभार!
बिलकुल सही बात।
जवाब देंहटाएंमैं भी इसका अनुकरण करने का प्रयास करता हूँ। किसी नये विषय में लिखना शुरू करता हूँ तो लोग सलाह देते हैं कि फलाने को पढ़ लो उसने इस विषय में बहुत अच्छा लिखा है, मदद मिलेगी तो मैं इनकार कर देता हूँ। यहां तक कि ब्लॉग पोस्ट में कमेंट करते वक्त भी, प्रयास करता हूँ कि अपनी कमेंट के बाद ही दूसरों का लिखा पढ़ूं। इससे दो फायदे होते हैं। एक तो अपनी समझदानी का मुल्यांकन हो जाता है दूसरे मौलिकता बनी रहती है। हां खराब लिख बैठा तो समय व श्रम दोनो बेकार जाता है, हंसी का पात्र बनने की संभावना रहती है। लेकिन मौलिकता के निर्वहन के लिए यह रिस्क तो उठाना ही पड़ेगा।
...बहुत अच्छी लगी आपकी सीख।
सार्थक एवं अनुकरणीय लेख....
जवाब देंहटाएंमौलिकता अपनी जगह है ......नक़ल कभी उसकी बराबरी नहीं कर सकती |
इसी बहाने पुरानी यादें भी ताजा हो गयीं। आभार।
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जिन्दगी में हमारा कार्यक्षेत्र चाहे जो रहे हम अपने उन प्रेरणास्तोत्रों से प्रेरणा भले ही लें किन्तु स्वयं की समझ-बूझ के साथ यदि अपनी मौलिक शैली को ही कायम रखते हुए अपनी ओर से श्रेष्ठतम परिणाम देने के प्रयास के साथ ही यदि हम अपना कार्य करते रहें तो निश्चय ही किसी की नकल के बगैर भी उस क्षेत्र में अपनी एक अलग पहचान अधिक आसानी से बनाई जा सकती है । aapki ye baate bahut khub hai jisse hame sangarsh karne ki prena milti hai !
जवाब देंहटाएंयह फिल्म बचपन में दूरदर्शन पर देखी थी। फिल्म तो कुछ याद नहीं पर यह विलेन का नाम अभी तक याद है। प्राण जैसा खलनायक हिन्दी फिल्मों में नहीं आया। एक सर्वे में यह पाया गया था कि जब प्राण अपने कैरियर के चरम पर थे तो उन दो दशकों में किसी भी भारतीय ने अपने बच्चे का नाम प्राण नहीं रखा। फिल्म 'हलाकू' में किया गया उनका अभिनय मुझे आज भी याद है। बाद में चरित्र अभिनेता के रोल में भी वह उतने ही कामयाब रहे।
जवाब देंहटाएंबहुत सही कहा आप ने प्रेरणा भले ही जिससे जितनी भी लें लेकिन अपनी मौलिकता अपने गुण अपने सामर्थ्य से अपने पंख लगा लें तो बेहतर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
शुक्ल भ्रमर ५
aapkee yaad dasht kee daad denee padegee .
जवाब देंहटाएंsarthaklekh seekh deta saa.
achha lga padh kar
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