अभी कुछ समय पूर्व एक
रेलयात्रा के दौरान सामने की बर्थ पर बैठी एक माँ और उसकी बच्ची में कुछ रोचक सा
देखने को मिला और वो यह कि उसकी माँ जब मेरी पत्नी सहित अन्य महिलाओं से बात कर
रही थी तब उसकी छोटी बच्ची उसकी उम्र की बाल-कहानियां पढ रही थी । उसकी माँ से जब पूछा
गया कि हमारे बच्चे तो ऐसे किसी भी समय में मोबाईल ही नहीं छोडते, फिर आपने इसमें
पढने की ऐसी आदत कैसे डाली ? तब उस माँ ने मुस्कराते हुए जबाब दिया कि बच्चे कहने
से नहीं बल्कि देखने से अधिक सीखते हैं और मैं इन्हें अक्सर पत्र-पत्रिकाएं पढते
हुए ज्यादा दिखती हूँ तो ये भी वैसी ही कोशिश करते आपको दिख रही है ।
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इसके विपरित जब मैं 18 वर्ष के आसपास की उम्र के युवाओं को नास्तिक होते देखता हूँ तो अटपटा तो लगता है किंतु बुरा नहीं लगता ।
बल्कि जब इन्हें नमाज़, कुरान, इस्लाम और मुसलमानों की इज़्ज़त
करते देखता हूँ तो अच्छा लगता है । लेकिन जब यही युवा पीढी मंदिर में होती आरती का या भगवान की मूरत और उसकी पूजा का मज़ाक बनाते दिखती है
तो दुःख होता है लेकिन टोकना व्यर्थ लगता है, क्योंकि इसमें मुझे इनसे ज्यादा इनके अभिभावकों के पालन-पोषण के तरीकों की कमी अधिक नज़र आती है ।
दूसरी ओर जब मैं किसी मुस्लिम परिवार के पांच साल के बच्चे को भी नियमित नमाज़ पढ़ते देखता हूँ तो अच्छा लगता है । मुस्लिम परिवार अपना धर्म, अपने संस्कार अपनी अगली पीढ़ी को ज़रूर देते हैं, चाहे प्यार से या चाहे सख्ती से डराकर, लेकिन उनकी नींव में उनके अपने बेसिक संस्कारों की गहरी पेठ होती है । यही ख़ूबसूरती सिखों के धर्म में भी देखी जा सकती है । एक बार बचपन में मैंने एक सरदार मित्र का जूड़ा पकड़ लिया था । उसने उसी वक़्त तेज़ आवाज़ में मुझे सिर्फ समझाया ही नहीं, धमकाया भी था । तब बुरा भी लगा था- लेकिन आज याद करता हूँ तो अच्छा लगता है ।
हिन्दू धर्म चाहें जितना ही अपने पुराने होने का
दावा कर ले पर इसका
प्रभाव अब सिर्फ सरनेम तक ही सीमित होता जा रहा है । मैं अक्सर देखता हूँ कि मज़ाक
में लोग यदि किसी ब्राह्मण की चुटिया खींच दें तो कई बार वो सिर्फ हँस देता है । एक माँ आरती कर रही होती है और उसका बेटा
जल्दी में प्रसाद छोड़ जाता है,
लड़का आधुनिक
है, उसे
इतना ज्ञान है कि प्रसाद गैरज़रूरी है । बेटी
इसलिए प्रसाद नहीं लेती कि उसमें कैलोरी ज़्यादा हैं और उसे
अपनी फिगर की चिंता है ।
छत पर खड़े कोई अंकल जब सूर्य को जल चढ़ाते दिखते हैं तो ये युवा हंसते हैं व सोचते हैं कि 'बुड्ढा कब नीचे जायेगा और कब इसकी बेटी ऊपर आयेगी ?' दो वक़्त
पूजा करने वाले के बारे में हम सहज ही मान लेते हैं कि बंदा जरुर दो नंबर की कमाई करता
होगा, इसीलिए इतना अंधविश्वास करता है ।
घर की पूजा में बेटे की गैरहाजरी को माँ यह कहकर टाल देती है
कि आज की जेनरेशन है, क्या कहें,
मॉडर्न
बन रहे हैं ।' पिता भी खीझ कर रह जाते हैं कि 'ये तो हैं ही ऐसे, इनके मुँह कौन लगे' । नतीजतन बच्चों का पूजा के वक़्त हाज़िर होना सिर्फ दीपावली जैसे महाउत्सव तक ही सीमित रह
जाता है ।
यही बच्चे जब अपने विभिन्न धर्मावलंबी हमउम्र साथियों को हर शनिवार
गुरुद्वारे में मत्था टेकते या हर शुक्रवार विधिवत नमाज़ पढ़ते या हर सन्डे चर्च में
मोमबत्ती जलाते देखते हैं तो बहुत प्रभावित होते हैं । सोचते हैं यही हैं असली गॉड, मम्मी तो यूं ही थाली घुमाती रहती है । अब धर्म बदलना तो संभव नहीं, इसलिए मन ही मन खुद को नास्तिक मान लेते हैं ।
शायद हिन्दू धर्म को हम कभी अच्छे से परिभाषित नहीं कर पाए । शायद हमारे
पूर्ववर्तियों को इसकी कभी ज़रूरत नहीं महसूस हुई । शायद आपसी वर्णों की मारामारी
में रीतिरिवाज और पूजा पाठ सिर्फ'
सौदा बन कर रह गया, वर्ना यह भी सत्य है कि- सूर्य को जल चढ़ाना सुबह जल्दी उठने की वजह भी बनता है । नियमपूर्वक पूजा करना जल्दी नहा-धोकर
दिन की व्यवस्थित शुरुआत करने का माध्यम
बन जाता है और घर में मंदिर बना हो तो घर व्यवस्थित साफ- सुथरा रखने का एक अतिरिक्त कारण बना रहता है ।
घण्टी बजने से होने वाली ध्वनि मन शांत रखने में मदद करती है तो आरती गाने से मनोबल बढ़ता है । हनुमान चालीसा विपरीत परिस्थितियों में डर को भगाने और शक्ति-संचार करने के लिए सर्वोत्तम है । सुबह टीका लगा लो तो ललाट चमक उठता है । प्रसाद में मीठा खाना इतना शुभ तो होता ही है कि टी.वी. पर विज्ञापनों में भी इसका उल्लेख चलता है ।
संस्कार हमेशा घर से शुरु होते हैं । जब घर के बड़े ही आपको अपने संस्कारों के बारे में नहीं बताते-समझाते तो आप इधर-उधर भटकते ही हैं जो स्वाभाविक है । लेकिन इस भटकन में जब कोई कुछ भी ग़लत समझा जाए तो ये भूल जाते हैं कि आप उस शिवलिंग का मज़ाक बना रहे हैं जिसपर आपकी माँ हर सोमवार जल चढ़ाती है ।
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संस्कार हमेशा घर से शुरु होते हैं । जब घर के बड़े ही आपको अपने संस्कारों के बारे में नहीं बताते-समझाते तो आप इधर-उधर भटकते ही हैं जो स्वाभाविक है । लेकिन इस भटकन में जब कोई कुछ भी ग़लत समझा जाए तो ये भूल जाते हैं कि आप उस शिवलिंग का मज़ाक बना रहे हैं जिसपर आपकी माँ हर सोमवार जल चढ़ाती है ।
लेकिन मैं किसी को बदल नहीं सकता । मैं किसी के ऊपर
कुछ थोपना भी नहीं चाहता । मैं सिर्फ अपना घर देख सकता हूँ और मुझे गर्व है कि
मुझे आज भी हनुमान चालीसा कंठस्थ है । शिव-स्तुति मैं रोज़ करता हूँ । सूरज को जल
चढ़ाना मेरे लिए ओल्ड फैशन नहीं हुआ है । दुनिया मॉडर्न है इसलिए भजन यू-ट्यूब पर भी
सुन लेता हूँ । अपने भगवान को मैं अपना आदर्श मानता हूँ और मुझे यकीन है कि ये सब आदतें मेरी आने वाली पीढी मुझसे ज़रूर सीखेगी ।
मैं गुरुद्वारे भी जाता हूँ । चर्च भी गया हूँ ।
कभी किसी धर्म का मज़ाक नहीं उड़ाया है, हर धर्म
के रीति-रिवाज़ पर मैं तार्किक बहस कर सकता हूँ लेकिन किसी को भी इतनी छूट नहीं
देता कि वो मेरे सामने हमारी आस्थाओं-परम्पराओं या मूर्तिपूजा का मज़ाक बनाये । मेरे लिए हिन्दू होना कोई शर्म की बात नहीं है । यदि आपकी आस्था धर्म
के प्रति ना हो तो ना सही लेकिन कृपया इसका उलजलूल संदेशों में मज़ाक न बनाएं, आप चाहें जिसकी आराधना करें या न करें, लेकिन कम से कम अपनी या किसी भी अन्य की धार्मिक आस्थाओं का उपहास न करें ऐसी उम्मीद तो आपसे की ही जा सकती है ।