पीटने का अभिप्राय किसी सीमा तक हल्की-फुल्की या
दिखावटी सजा से होता है,
अब वे सभी लोग जो यह सोचते हैं कि हम बच्चों
से संवाद बनाये रखकर व उन्हें सही-गलत का अन्तर बताते हुए उनका सर्वांगीण विकास कर
सकते हैं,
यह धारणा आधी या पौनी सच तो हो सकती है किन्तु
पूरी सच कभी नहीं हो सकती क्योंकि यदि ये पूरी सच होती तो शायद पूर्व काल से यह
कहावत जन्म ही नहीं ले पाती कि लातों के भूत बातों से नहीं मानते ।
संभवतः बच्चों की तीसरे-चौथे वर्ष की नासमझ
उम्र ऐसी होती है जहाँ बच्चा जिद्दी करके अपनी बात माता-पिता से मनवा लेना सीखना
प्रारम्भ कर लेता है और जितनी छोटी उम्र उतनी ही छोटी उसकी जिद भरी फरमाईशें होती
हैं जिनके लिये माता-पिता ही नहीं दादा-दादी व नाना-नानी जैसे निकटतम रिश्तेदार भी
ये मानकर ही चलते हैं कि अभी तो नासमझ है धीरे-धीरे सब समझने लगेगा फिलहाल तो इसकी
ये जरासी फरमाईश पूरी कर ही दो । जबकि बढती उम्र के साथ बच्चे को भी ये समझ में
आता चलता है कि अब मुझे कौनसे तरीके से अपनी बात (जिसे हम जिद कह सकते हैं) मनवानी
है । इधर माता-पिता की व्यस्तता व आमदनी भी बढ रही होती है नतीजा 99% अवसरों पर बच्चा इस जद्दोजहद में मानसिक रुप से अपने
अभिभावकों से जीतता ही चला जाता है और जब यही आदत उम्र के मुताबिक बढती चलती है तो
?
मैं ऐसे तीन लोगों को तो व्यक्तिगत रुप से
जानता हूँ जिन्हें बच्चों के बचपन में इस नरमदिली से परिपूर्ण पालन-पोषण के कारण
उनके युवावय में आने पर एक को पुत्र के दोस्तों के साथ संगीन अपराध कर फरार हो
जाने के कारण लगभग 6 दिन पुलिस कस्टडी में रहना पडा, दूसरे को व्यापार में अपनी वह साख जिसे बनाने में
उनकी जिन्दगी खप गई थी पुत्र के युवावय में आकर पिता के समानान्तर कुर्सी पर बैठने
के बाद उनकी गैर मौजूदगी में ये सोचकर उटपटांग सौदे कर लेने के कारण कि हमारा तो
अपना व्यवसाय है और हमें वे खर्च तो लग ही नहीं रहे हैं जो हमारे ग्राहकों को लग
रहे हैं और मेरे द्वारा किये जाने वाले इस सौदे में मोटी आमदनी तो तय है जो अपने
पिता से मांगे बगैर मेरे व्यक्तिगत उपयोग में आ सकेगी ऐसे सौदों में जो मोटे
नुकसान उनके व्यापार पर आ गये उसकी भरपाई में पिता को मुंह-मांगे ब्याज पर बाजार
से पैसे ले-लेकर लम्बे समय की जद्दोजहद के बाद अपनी साख बचानी पडी जिससे कुछ समय
बाद अन्ततः उनका शीघ्र प्राणान्त भी हो गया ।
तीसरे एक सज्जन जिन्होंने अपने पिता के जमाने में राजकुमारों जैसा पालन-पोषण पाया
। पिता के मरणोपरान्त उनका व्यवसाय भी कुशलतापूर्वक संचालित कर अपनी पिता के जमाने
की हैसियत को आगे भी बढाया किन्तु स्वयं के पुत्र की दखलन्दाजी के बाद हुए करोडों के नुकसान ने न सिर्फ उनके
पूरे परिवार को सडक पर ला दिया बल्कि पचास पार की उम्र में आने के बाद एक निर्जन
से क्षेत्र में 8x10 की किराने की निहायत ही मामूली सी दुकान में बैठकर
अपना आगे का जीवन व्यतीत करना पडा ।
जैसा कि अभी हम अपने इर्द-गिर्द देख रहे हैं
ये परिवारों में एक बच्चे का युग ही चल रहा है, और
लगभग 20 वर्ष पूर्व जब बढती आबादी के विस्फोट को रोकने के
लिये चीन ने एक बच्चे की नीति राष्ट्रीय स्तर पर घोषित की थी तब सरिता पत्रिका में
मैंने एक बच्चे के दुष्परिणाम से सम्बन्धित एक लेख पढा था उसके मुताबिक जब परिवार
में एक बच्चा होता है तो उसे सम्हालने वाले छः लोग हमेशा उसके इर्द-गिर्द रहते हैं
दो माता-पिता,
दो दादा-दादी और दो नाना-नानी । नतीजा बच्चे
के मुँह खोलने के पहिले ही उसकी फरमाईश पूरी हो जाती है, अपने खिलौने व अन्य कोई वस्तु उसे किसी भाई-बहिन से
शेअर नहीं करनी पडती,
ये सभी पैरेन्ट्स मिलकर उसके प्रति अपने
लाड-प्यार के चलते उसे स्वयं कोई निर्णय नहीं लेने देते और होश सम्हालने से लगाकर
बडे हो जाने तक बगैर प्रयासों के सब-कुछ पाते चले जाने वाला वह बच्चा निर्णय लेने
में अपरिपक्व और मेरा है कि भावना के साथ सामाजिक, पारिवारिक रुप से करीब-करीब स्वार्थी होता चला जाता
है । अब ऐसे बच्चे उम्र के स्वनिर्णय लेने के दौर में आकर कितने परिपक्व निर्णय ले
पाएंगे यह बात सहज ही समझी जा सकती है ।
इसलिये प्रेम-प्यार, लाड-दुलार व बच्चों के प्रति स्नेह की भावनाओं की
तमाम प्रबलता के बावजूद मेरी समझ में ये ध्यान रखना सदैव बच्चे के हित में ही
साबित होता है कि हम उसमें जिद करने की भावना को बने जहाँ तक न पनपने दें । जिसके
लिये हमें उसकी नासमझ उम्र से ही प्रयासरत होना पडेगा क्योंकि 20-22 वर्ष का हो चुकने पर तो उसका जैसा भी विकास तब तक हो चुका होगा, उसमें किसी भी प्रकार के बदलाव की कल्पना भी बेमानी
ही साबित होगी । इस सन्दर्भ में मुझे ड्रीम गर्ल, स्वप्नसुंदरी के रुप में देश-दुनिया में विख्यात
सुप्रसिद्ध हीरोईन हेमा मालिनी का संस्मरण अनुकरणीय लगता है कि घूमने-फिरने के
दौरान उनके बच्चों ने जब भी जिस चीज के लिये भी जिद की हेमा मालिनी ने संसाधनों की
प्रचुरता के बावजूद भी कभी उनकी जिद पूरी करने के लिये अपनी दोनों बच्चियों को वह
वस्तु नहीं दिलवाई । अलबत्ता दो दिन बाद स्वयं जाकर वह उसी वस्तु को अपनी बच्चियों
को खरीदकर लाकर दे देती किन्तु फरमाईश के वक्त या जिद के बाल हथियार के वक्त तो
उन्होंने वह वस्तु कभी भी खरीदकर बच्चियों को नहीं दी । निःसंदेह इससे जहाँ उनकी
बच्चियों को उस वस्तु के लिये तरसना नहीं पडा वहीं उनमें जिद करके अपनी बात मनवा
लेने की भावना भी कभी आगे नहीं बढ पाई ।
एक डाकू के द्वारा डाकेजनी के दौरान स्वयं को
पकड में आने से बचाव के प्रयास में एक व्यक्ति की हत्या हो गई । वह पकड में भी आ
गया और अपराध सिद्ध हो जाने की स्थिति में उसे मृत्यु-दंड की सजा मिली । जज के यह
पूछने पर कि क्या तुम्हें अपने बचाव में कुछ कहना है उस डाकू ने कहा कि मैं अपनी
माँ से कान में कुछ कहना चाहता हूँ । कोर्ट की इजाजत मिलने पर माँ उसके पास गई और
अपना कान उस डाकू पुत्र के मुँह के पास ले जाकर उसकी बात सुनने के लिये उसके मुँह
के नजदीक माँ ने सटाया और देखते ही देखते उस डाकू पुत्र ने अपनी माँ के उस कान को
दांतों से चबाकर लहूलुहान कर दिया । जज ने जब उससे पूछा कि तुमने ऐसा क्यों किया
तो उस डाकू ने जवाब दिया कि मैं जब पहली बार स्कूल के अपने सहपाठी की पेन्सिल
चुराकर घर लाया था तब इसने मुझे रोकने या सजा देने के बजाय उस पेन्सिल को घर में
रख लेने दिया था । यदि ये उसी दिन मुझे उस पेन्सिल को चुराकर लाने के लिये दण्डित
कर देती तो आज मुझे यह दिन नहीं देखना पडता ।
तो बच्चों के किसी गलत आचरण को हम समय रहते
सख्त व्यवहार के द्वारा यदि नहीं रोक पावें तो समय आने पर दुनिया तो दूर खुद बच्चे
भी हमारी उस कमजोरी के लिये हमें ही जिम्मेदार ठहराएंगे । अतः मारना-पीटना भले ही
हम आवश्यक न समझें किन्तु आवश्यकता के समय यदि हम उनके किसी अनुचित व्यवहार के
प्रति उन्हें सख्ती से न रोक पावें और यह समझते रहें कि मैंने उसे समझा दिया है और
आगे से सब ठीक हो जावेगा तब क्या आप जानते हैं कि उसे समझाने वाले उसके मित्र वर्ग
में ऐसे लोग भी हैं जिनकी स्वार्थपरक समझाईश आपकी समझाईश से बच्चे के मन में उपर
ही चलेगी ।
इसलिये मारना भले ही गलत हो किन्तु
बच्चे के समग्र विकास के लिये उसके प्रति कभी-कभी सख्ती का प्रदर्शन भी न कर पाना
तो मेरी समझ में ऐसा ही है जैसे हम बगैर ब्रेक की कार में यात्रा कर रहे हों ।
बच्चा जैसे-जैसे बडा होता जावेगा बगैर ब्रेक के आपकी उस कार की गति उतनी ही बढती
जावेगी और फिर वो हमें कहाँ ले जाकर भिडवा देगी और उसका फिर क्या परिणाम होगा इसकी
सहज ही कल्पना भी की जा सकती है । निःसंदेह बच्चों को मारना गलत है किन्तु कभी
अवसर आने पर पूरी सख्ती से उसे उसके किसी क्रिया-कलाप के लिये रोकना तो न सिर्फ उसके, स्वयं के और परिवार के बल्कि समाज के
हित में भी आवश्यक हो ही जाता है ।