शाही स्नान का पर्व था । घाट पर भारी भीड़ लग रही थी ।
शिव पार्वती आकाश से गुजरे । पार्वती ने इतनी भीड़ का कारण पूछा -
आशुतोष ने कहा - सिंहस्थ कुम्भ पर्व पर शाही स्नान करने वाले स्वर्ग जाते है । उसी
लाभ के लिए यह स्नानार्थियों की भीड़ जमा है ।
पार्वती का कौतूहल तो शान्त हो गया पर नया संदेह उपज पड़ा, इतनी भीड़ के लायक स्वर्ग
में स्थान कहाँ है ? फिर
लाखों वर्षों से लाखों लाख लोग इस आधार पर स्वर्ग पहुँचते तो उनके लिए स्थान भी तो
कहीं रहता ?
छोटे से स्वर्ग में यह कैसे बनेगा ? भगवती ने अपना नया सन्देह
प्रकट किया और समाधान चाहा । भगवान शिव बोले - शरीर को गीला करना अलग बात है, जबकि यहाँ मन की मलीनता धोने वाला
स्नान जरूरी है । स्वर्ग तो मन को धोने वाले ही जाएगा ।
सन्देह घटा नहीं, बढ़ गया । पार्वती बोलीं - इतने विशाल जनसमूह में यह कैसे पता चलेगा कि किसने शरीर धोया किसने मन संजोया ।
यह कार्य से जाना जाता है । शिवजी ने इस उत्तर से भी समाधान न होते देखकर प्रत्यक्ष उदाहरण से लक्ष्य समझाने का प्रयत्न किया ।
सन्देह घटा नहीं, बढ़ गया । पार्वती बोलीं - इतने विशाल जनसमूह में यह कैसे पता चलेगा कि किसने शरीर धोया किसने मन संजोया ।
यह कार्य से जाना जाता है । शिवजी ने इस उत्तर से भी समाधान न होते देखकर प्रत्यक्ष उदाहरण से लक्ष्य समझाने का प्रयत्न किया ।
मार्ग में शिव कुरूप कोढ़ी बनकर पढ़ रहे । पार्वती
को और भी सुन्दर सजा दिया,
दोनों बैठे थे । स्नानार्थियों की भीड़ उन्हें देखने के लिए रुकती । अनमेल
स्थिति के बारे में पूछताछ करती ।
पार्वतीजी रटाया हुआ विवरण सुनाती रही । ये मेरे पति हैं, गंगा स्नान की कामना से आए हैं । गरीबी के कारण इन्हें कंधे पर रखकर लाई हूँ । बहुत थक जाने के कारण थोड़े विराम के लिए हम लोग यहाँ बैठे हैं ।
अधिकाँश दर्शकों की नीयत डिगती दिखती । वे सुन्दरी को प्रलोभन देते और पति को छोड़कर अपने साथ चलने की बात कहते । पार्वती लज्जा से गढ़ गई । भला ऐसे भी लोग स्नान को आते हैं क्या ? निराशा देखते ही बनती थी ।
संध्या हो चली । एक उदारचेता आए, विवरण सुना तो आँखों में आँसू भर गए । सहायता का प्रस्ताव किया और कोढ़ी को कंधे पर लादकर तट तक पहुँचाया । जो सत्तू साथ में था उसमें से उन दोनों को भी खिलाया । साथ ही सुन्दरी को बार-बार नमन करते हुए कहा - आप जैसी देवियां ही इस धरती की स्तम्भ हैं । धन्य हैं आप जो इस प्रकार अपना धर्म निभा रही हैं । प्रयोजन पूरा हुआ - शिव पार्वती उठे और कैलाश की ओर चले गए । रास्ते में कहा - पार्वती इतनों में एक ही व्यक्ति ऐसा था, जिसने मन धोया और स्वर्ग का रास्ता बनाया । स्नान का महात्म्य तो सही है पर उसके साथ मन भी धोने की शर्त लगी है ।
पार्वतीजी रटाया हुआ विवरण सुनाती रही । ये मेरे पति हैं, गंगा स्नान की कामना से आए हैं । गरीबी के कारण इन्हें कंधे पर रखकर लाई हूँ । बहुत थक जाने के कारण थोड़े विराम के लिए हम लोग यहाँ बैठे हैं ।
अधिकाँश दर्शकों की नीयत डिगती दिखती । वे सुन्दरी को प्रलोभन देते और पति को छोड़कर अपने साथ चलने की बात कहते । पार्वती लज्जा से गढ़ गई । भला ऐसे भी लोग स्नान को आते हैं क्या ? निराशा देखते ही बनती थी ।
संध्या हो चली । एक उदारचेता आए, विवरण सुना तो आँखों में आँसू भर गए । सहायता का प्रस्ताव किया और कोढ़ी को कंधे पर लादकर तट तक पहुँचाया । जो सत्तू साथ में था उसमें से उन दोनों को भी खिलाया । साथ ही सुन्दरी को बार-बार नमन करते हुए कहा - आप जैसी देवियां ही इस धरती की स्तम्भ हैं । धन्य हैं आप जो इस प्रकार अपना धर्म निभा रही हैं । प्रयोजन पूरा हुआ - शिव पार्वती उठे और कैलाश की ओर चले गए । रास्ते में कहा - पार्वती इतनों में एक ही व्यक्ति ऐसा था, जिसने मन धोया और स्वर्ग का रास्ता बनाया । स्नान का महात्म्य तो सही है पर उसके साथ मन भी धोने की शर्त लगी है ।
पार्वती समझ गई कि स्नान महात्म्य सही होते हुए भी... क्यों लोग उसके
पुण्य फल से वंचित रहते हैं ?