एक समय एक महात्मा अपने शिष्यों के साथ विहार करते हुए किसी गांव में
रात्रि-विश्राम हेतु रुके । इसके पूर्व की उनका काफिला वहाँ से आगे बढता
उन्होंने देखा कि गांव के लोगों में एक दूसरे को नुकसान पहुँचाकर, आपस में झगडे करवाकर आनंद
लेने और अपना मंतव्य साधने की प्रवृति बहुतायद से थी । किंतु फिर भी महात्मा तो
महात्मा - बहते पानी सी प्रवृति के साथ अपने काफिले सहित रात्रि-विश्राम से दूसरे
दिन की उर्जा संरक्षण के समयानुसार जितने भी आवश्यक समय वे वहाँ रुके लोग उन्हें
देखने, सुनने व
उनकी सेवा-सुश्रुषा के निमित्त उनके नजदीक तो आये । उन सभी लोगों को महात्मा ने
वहाँ से विहार करते हुए आशीर्वाद दिया - बने रहो, आनंद करो ।
फिर आगे की रात्रि में दूसरे किसी गांव में स्थिति इससे बिल्कुल उलट
देखने को मिली- वहाँ साधुओं ने देखा कि वहाँ के निवासियों में त्याग, सेवा भावना और परमार्थ जैसे
गुणों से ओत-प्रोत लोगों की संख्या बहुतायद में थी । वहाँ से विहार करते वक्त
महात्मा ने उन्हें सामूहिक रुप से आशीर्वाद दिया कि उजड जाओ ! बिखर जाओ !
उनके कुछ शिष्यों को उनका दोनों ही विपरीत गांवों के लोगों को दिये
जाने वाले आशीर्वाद का कारण जब समझ में नहीं आया तो आगे चलते हुए एकांत में उन
शिष्य साधुओं ने महात्मा से पूछा । गुरुदेव जिस गांव में दुष्ट प्रवृति के लोगों
की भरमार थी, जहाँ आपस
में एक-दूसरे को नुकसान पहुँचाकर अपना स्वार्थ साधने व आनंद लेने वाले व्यक्तियों
के हुजूम के हुजूम निवास करते थे वहाँ तो आपने आशीर्वाद दिया कि - बने रहो आनंद
करो, और जिस
गांव में त्यागी, सेवाभावी
व स्वयं भूखे रहकर भी मेहमानों को भूखे न जाने देने जैसी भावना वाले लोग मौजूद थे
वहाँ आप आशीर्वाद दे आये कि उजड जाओ, बिखर जाओ । ऐसा क्यों गुरुदेव ?
महात्मा ने तब उन्हें उसका कारण समझाते हुए बताया कि जहाँ दुष्टता बहुतायद में भरी हो वे लोग यदि वहीं रहेंगे तो उनकी दुष्टता का दायरा भी सीमित क्षेत्र में ही सिमटकर रह जावेगा और समाज के बहुसंख्यक लोग उनकी दुष्टता के कपटजाल से बचे रह सकेंगे । इसके विपरीत जब त्यागी, सेवाभावी और परमार्थ में सुख ढूंढने वाले लोग यदि यहाँ से उजड और बिखर जावेंगे तो वे जहाँ-जहाँ भी जावेंगे अपने इन गुणों के कारण न सिर्फ बहुसंख्यक लोगों के लिये मददगार साबित होंगे बल्कि इनकी सोहबत में आने वाले भी इन्हीं गुणों को अपनाते हुए सम्पूर्ण मानव-जाति के उच्चस्तरीय विकास में सहायक बनते चले जाएँगे ।
बात तो छोटी सी है - निःसंदेह पहले सभी की कहीं न कहीं देखी-सुनी हुई
भी रही हो किंतु है तो अपने अंदर गूढ अर्थों को छिपाये रखने वाली । इसीलिये हम
देखते हैं कि वैवाहिक आयोजनों में दुष्ट प्रवृत्ति के पति अथवा पत्नी का संबध अपने
से विपरीत स्वभाव वाले सीधे-साधे व्यक्ति के साथ हो जाता है तो अधिकांशतः आगे के
जीवन में उस सीधे-साधे व्यक्ति की जिंदगी नर्क बन जाती है जबकि यही मिलाप
पति-पत्नी के रुप में एक समान दुष्ट प्रवृत्ति के स्त्री-पुरुषों में हो जाता है
तो आगे चलकर उनके परिवार में दुष्टों व अपराधियों की फौज जमा हो जाती है और जहाँ
पति-पत्नी एक समान त्यागी व सेवाभावी प्रवृत्ति के मिल जाते हैं तो...
राम - कृष्ण, गौतम जैसे अनेकानेक वे सभी देवी-देवता जिनका उदय माता के गर्भ से हुआ और जिन्हें आज तक अलग-अलग समुदायों में हजारों लाखों लोगों के द्वारा भगवान के रुप में पूजा जाता रहा है ऐसी दिव्य संतानें समाज के सामने बारम्बार आई और आती रही हैं । निःसंदेह आज हम कालखंड की भाषा में कलियुग में जी रहे हैं और परमार्थ से परिपूर्ण त्यागी वृत्ति के लोग आज उंगलियों पर गिने जाने जैसे रह गये हैं, किंतु फिर भी हैं तो ।
वर्तमान समय में यदि ऐसे किसी दम्पत्ति
अथवा उनकी संतानों के बारे में उदाहरण सहित बात करने की आवश्यकता हम देखें तो जैन
समाज में सर्वोपरी आचार्य मुनि श्री विद्यासागरजी महाराज का नाम निःसंकोच लिया जा
सकता है जिनके गुणों का विस्तार एक लम्बे-चौडे साधु संघ के रुप में देखे जाने के साथ ही न सिर्फ
उनके चारों-पांचों भाई भी उनके
निर्देशन में मुनि - जीवन गुजार रहे हैं, बल्कि उनके जन्मदाता माता-पिता भी उन्हीं के
निर्देशन में इसी त्यागी व मुनि जीवन की निर्वाहना करते चल रहे हैं ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपकी अमूल्य प्रतिक्रियाओं के लिये धन्यवाद...