इस समय सब तरफ एक अंतहीन बहस 'साहित्य बनाम ब्लाग्स' पर लगातार चलते हुए दिख रही है । कहीं आमने-सामने की कुश्ति की लंगोटें कसी जा रही हैं तो कहीं ब्लाग्स के अस्तित्व को समाप्त करवा देने जैसी चेतावनीयुक्त गीदडभभकी के दर्शन हो रहे हैं और कहीं तो ब्लागर्स V/s साहित्यकारों के बीच प्रथम विश्वयुद्ध छिडने जैसा रोमांचकारी माहौल भी बनते दिख रहा है । संभवतः ब्लाग माध्यम की चौतरफा बढ रही दिन दूनी-रात चौगुनी लोकप्रियता से कुढकर कुछ तथाकथित साहित्यकारों का एक वर्ग इस ब्लाग-विधा को निकृष्टतम श्रेणी में आंकने की कोशिशों में ही लगा दिख रहा है और लगभग सभी उल्लेखनीय ब्लाग्स व टिप्पणियों को पढते हुए जो कुछ मेरी समझ में आ रहा है मैं उसे यहाँ कलमबद्ध करने की कोशिश कर रहा हूँ-
'साहित्य' निश्चित रुप से बडा ही व्यापक अर्थों वाला शब्द रहा है जिसके दायरे में मैंने अपने प्राथमिक शिक्षण काल से ही हिन्दी भाषा के उन सभी ऐतिहासिक कवियों व लेखकों को उनकी रचनाओं के साथ बार-बार सुना व पढा है जिन्हें साहित्य के सन्दर्भ में हम कालजयी नामों के रुप में (जिन सभी का उल्लेख करना इस लेख को अनावश्यक लम्बाई में फैलाना ही होगा) आज तक देखते, सुनते व पढते आ रहे हैं । उनमें से बहुत कुछ तो अब इस इन्टरनेट (अन्तर्जाल) पर भी आसानी से उपलब्ध मिल रहा है, और अपने प्राथमिक शिक्षण काल के जिस दौर की मैं बात कर रहा हूँ वह युग तरक्की व यातायात के साधनों के रुप में बैलगाडी से चलते हुए तांगों तक के प्रचलन का ही युग रहा था ।
कुछ और आगे बढने पर जब हम आटोरिक्शा, व टेम्पों जैसे यातायात के विकसित साधनों के दौर में आये तब तक साहित्य के क्षेत्र में भी साप्ताहिक हिन्दुस्तान, धर्मयुग जैसी पत्रिकाओं का चलन प्रारम्भ हो चुका था जिनमें साहित्य के पूर्व रुप को कायम रखते रहने के बावजूद विभिन्न विषयों पर छोटे-छोटे लेख, कथा, कहानियां, राजनैतिक समाचार, सुप्रसिद्ध व्यक्तियों के साक्षात्कार आदि भी स्थान पाने लगे थे ।
विकास के इसी दौर में कुछ और आगे आने पर जब हम तेज गति की बसों व रेलगाडियों के साथ ही कम क्षमता वाले हवाई-जहाजों के युग तक आए तब तक प्रिन्टिंग विधा में भी समानान्तर विकास के चलते गुलशन नंदा, ओमप्रकाश शर्मा, वेदप्रकाश काम्बोज और इसी श्रेणी के अगनित उपन्यासकार अपनी-अपनी रचनाएं जनसाधारण के समक्ष लेकर उपस्थित होने लगे और तब का पाठकवर्ग उन्हें भी बडे चाव से अपने पढने के दायरे में समेटता दिखता रहा । तब भी स्वयं को प्रथम श्रेणी के साहित्यकार समझने वाले तबके मे ऐसे सामाजिक व जासूसी उपन्यासकारों की स्वयं के बीच मौजूदगी और अपने से अधिक लोकप्रियता हासिल करने की स्थिति इनमें एक विशेष किस्म की बैचेनी का भाव पैदा करते दिखाई देती थी जिसकी चिन्ता गाहे-बगाहे उन स्वनामधन्य साहित्यकारों द्वारा यदा-कदा स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में देखने व पढने को मिल जाती थी ।
और अब... अब तो हद ही हो गई है जैसे-जैसे हम जेट-युग में पहुँचते जा रहे हैं वैसे-वैसे कम्प्यूटर व इन्टरनेट के बढते चले जा रहे प्रचार-प्रसार ने इन ब्लाग्स के रुप में एक ऐसा माध्यम जनसाधारण में उपलब्ध करवा दिया है जहाँ हर व्यक्ति इस विधा से जुडकर इन साहित्यकारों को अपने अस्तित्व को चुनौति देते दिख रहा है । आपको सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार करना हो तो ये ब्लाग हाजिर, सरकार की कार्य-प्रणाली की आलोचना करना हो तो ये ब्लाग हाजिर, स्वयं को लेखक या कवि के रुप में प्रचारित करना हो तो भी ये ब्लाग हाजिर, और तो और अपने नाकाम प्रेम-प्रसंगों में लडकी व उसके परिवार वालों पर दबाव बनाने जैसी आवश्यकता की पूर्ति हेतु भी यही ब्लाग माध्यम सामने आ रहा है, कहीं फोटोग्राफी या वीडियोग्राफी के शौकीन लोग अपने खींचे हुए फोटो या क्लिपिंग्स इन ब्लागस पर लगाकर व दुनिया को दिखाकर आनन्दित हो रहे हैं तो जिनकी रुचि गायन विधा में है वे अपने गीतों को स्वयं की गाई आवाज में रेकार्ड कर ब्लाग्स पर प्रसारित कर अपने चाहने वालों तक पहुँचाकर इस ब्लाग विधा का लाभ लेने में लगे हैं ।
अब ऐसे सर्वव्यापी ब्लाग्स से इन आधुनिक साहित्यकारों के चिढने का इसके सिवाय भला और क्या कारण हो सकता है की अब इनका लिखा वो साहित्य जो न जाने कितने प्रकाशकों की मान-मनौव्वल के बाद कभी छप पाया होगा उसे बाजार से खरीदकर पढने वाले पाठक कम होते-होते गायब होते जा रहे हैं और तो और साहित्यकार का जो उपनाम इन्होंने न जाने कितनी जद्दोजहद के बाद अपने साथ जुडवा पाया होगा आज इस ब्लाग माध्यम से अनगिनत छोटे-छोटे साहित्यकार न जाने कहाँ-कहाँ से अवतरित होकर इनके उस अस्तित्व को चुनौति देते (इनकी नजरों में) भी दिख रहे हैं । जबकि ब्लागर्स नाम की इस प्रजाति को तो मालूम भी नहीं रहा होगा कि उनकी इस विधा से वर्तमान साहित्यकार रुपी ये प्राणी अन्दर ही अन्दर किस बौखलाहट के शिकार हो रहे हैं ।
ज्यादा समय नहीं हुआ है जब फिल्में देखने के शौकीन लोग घन्टों पहले से टिकिट खिडकी पर लाईन में लगकर टिकिट पाने की हसरत पूरी कर पाते थे, उंची हैसियत वाले लोग अपने पदों के हवाले से टेलीफोन करके पिक्चरों की टिकिट की जुगाड करके अपना रौब गांठते दिखते थे और टाकीज मालिक... वे तो ऐसी स्थिति में दिखते थे कि उनकी अगली पीढियों को भी अब कोई नया काम कभी तलाशना ही नहीं पडेगा । किन्तु अब... विज्ञान के प्रसार ने वीडियो क्रांति के द्वारा घर-घर में नाम मात्र के पैसों में नई से नई फिल्मों की डीवीडी उपलब्ध करवा दी और वे ही टाकीज मालिक जो कभी सिर्फ उन टाकीजों के बल पर ऐश किया करते थे उन्हे अपने टाकीजों पर ताले डाल-डालकर नये काम-धंधों की तलाश में लगना पडा ।
अब ऐसे में वैज्ञानिक रुप से पूर्ण सुसज्जित आज के इन ब्लाग्स माध्यम की सार्वभौमिकता की यदि उदाहरण सहित बात की जावे तो चंद महिनों पहले तक मेरा इस माध्यम से कोई सरोकार नहीं होने के बावजूद एक बार यहाँ आने के बाद व अपने लिखे को तत्काल पाठक मिलने के साथ ही टिप्पणियों के रुप में तात्कालिक प्रतिक्रिया मिलते दिखने की इस यथार्थवादी स्थिति ने मुझे भी अलग-अलग विषयों पर लिखते रहने के लिये लगातार ही प्रेरित किया । पारदर्शिता इतनी अधिक की पूरी दुनिया में जो पाठक मेरे लेखन को मिल रहे हैं उनमें प्रथम दस देशों की यदि बात की जावे तो भारत के बाद सबसे अधिक पाठक संयुक्त राज्य अमेरिका फिर कनाडा, आस्ट्रेलिया, थाईलेंड, जर्मनी, फ्रांस, मलेशिया, संयुक्त अरब अमीरात और स्पेन से मिले । अब इसकी तुलना में वर्षों पूर्व से अपने नाम के साथ साहित्यकारों का लेबल लगाकर घूमते इन साहित्यिक प्रतिभाओं की कितनी रचनाएँ इन सुदूर देशों तक पहुँची व पढी गई होंगी ? पारदर्शिता के इसी क्रम को और भी आगे बढकर यदि सोचा जावे तो अभी 18-2-2011 को इसी ब्लाग पर प्रकाशित मेरे लेख "नये ब्लाग लेखकों के लिये उपयोगी सुझाव" को अभी तक 225 वास्तविक पाठक मिले और इनमें से 48 पाठकों की प्रतिक्रिया टिप्पणियों के रुप में मेरे सामने भी आ गई ऐसी तीव्र तात्कालिकता क्या पूर्व माध्यमों से जुडे इन साहित्यकारों को कभी उपलब्ध रही थी ?
अतः बजाय इसके की इस ब्लाग माध्यम
पर ये पूर्व साहित्यकार किसी भी रुप में अपनी भडास निकालें, आवश्यक यह है कि अब इसी माध्यम से
जुडकर ये वर्ग भी अपनी साहित्यिक गतिविधियां आगे चलाते रहने के नये मार्ग तलाशने
का प्रयास करें क्योंकि कहीं न कहीं ये दोनों माध्यम एक दूसरे के पूरक ही हैं ।
लेकिन यदि ये इस ब्लाग माध्यम को अपना प्रतिद्वंदी या दुश्मन मानकर इस पर दांत ही
पिसते रहें तो फिर तो पुराने लोगों की शैली में जो कहावत कही जाती रही है और जिसका
प्रकाशन शायद यहाँ शोभनीय नहीं लगेगा तो ताऊ महामात्य की अपनी तोतली शैली में मैं
यही कहूँगा कि "लांदें लोती लहेंदी औल पावने दिमते लहेंगे"
साहित्य विधाओं से परे है।
जवाब देंहटाएंराम राम
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक और बेबाक लिखा सुशील जी । सच है ये और आने वाले समय में ये अपने आप ही प्रमाणित भी हो जाएगा , शुभकामनाएं ।
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें आपको !
जवाब देंहटाएंयही कहूँगा कि उनकी ये सीनियर होने का अहम् या फिर भाव न मिलने की खीज ही है !
जवाब देंहटाएंबहुत ही सही ...विचारणीय प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंआज इस ब्लाग माध्यम से अनगिनत छोटे-छोटे साहित्यकार न जाने कहाँ-कहाँ से अवतरित होकर इनके उस अस्तित्व को चुनौति देते (इनकी नजरों में) भी दिख रहे हैं । जबकि ब्लागर्स नाम की इस प्रजाति को तो मालूम भी नहीं रहा होगा कि उनकी इस विधा से वर्तमान साहित्यकार रुपी ये प्राणी अन्दर ही अन्दर किस बौखलाहट के शिकार हो रहे हैं ।
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही कह रहे हैं आप सुशील जी……………जब भी कोई नया इंसान हो या वस्तु या माध्यम नया कदम रखने की कोशिश की तो उसे पीछे धकेलने की कोशिश की ही जातीहै मगर जो इनसे पार पा जाता है अंत मे जीत उसी की होती है…………और आज की ये विधा एक दिन मील का पत्थर साबित होगी इसमे कोई भी शक नही है।
वंदना जी के विचारों से काफी हद तक सहमत हूँ ....
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया रचना!
जवाब देंहटाएंलौहांगना ब्लॉगर का राग-विलाप
हर बदलाव के साथ नयी संभावनाओं का भी जन्म होता रहा है !
जवाब देंहटाएंविचारणीय लेख के लिए बधाई !
विचारणीय पोस्ट। बधाई।
जवाब देंहटाएं---------
काले साए, आत्माएं, टोने-टोटके, काला जादू।
वैसे तो साहित्य बनाम ब्लाग्स' जैसा कोई मुद्दा उठना ही नहीं चाहिए लेकिन है तो क्या किया जा सकता है. आप का लेख़ काबिल ए तारीफ है.
जवाब देंहटाएंआदरणीय सुरेश जी '
जवाब देंहटाएंबहुत ही सार्थक विश्लेषण किया है आपने 'साहित्यकार बनाम ब्लागर ' जैसे निरर्थक विवाद का |
सलाह तो सौ टके की है |
बहुत ही सही ...विचारणीय प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर अभिब्यक्ति| धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंबेहतरीन विचार रखे हैं आपने इस विषय पर, बधाई.
जवाब देंहटाएंबहुत सार्थक विचारणीय पोस्ट..
जवाब देंहटाएंबहुत ही सार्थक विचार....
जवाब देंहटाएंब्लोगर्स कोई उनकी जगह छीनने नहीं आए हैं...बल्कि अपने लिए एक नई जमीन तलाश की है...जिसका उन्हें कोई गिला नहीं होना चाहिए....बेहतर तो ये है कि इस नई विधा को वे लोग भी अपनाएँ...ब्लॉग्गिंग की भी स्तरीयता बढ़ेगी और...उन्हें भी नए पाठक मिलेंगे.
sahi kaha aapne
जवाब देंहटाएंaabhar
नमस्कार सुशील जी । समयाभाव के कारण ब्लाग्स पर कम जा पाता हूँ । ब्लागिंग
जवाब देंहटाएंपर आपकी लेखमाला अच्छी चल रही है । यदि आपकी अनुमति होगी । तो आपके
कुछ लेख सचित्र लिंक के साथ ब्लागर्स प्राब्लम ब्लाग पर प्रकाशित करूँगा । कृपया यह
भी बतायें । ये नजरिया पर कोड पेज आपने किस तरह लगाया है ।
धन्यवाद सुशील जी कोड बनाना तो मुझे भी आता है । पर ये कोड लिखा पेज या विजेट
जवाब देंहटाएंकौन सा है । मतलव तैयार कोड आपने किस तरीके से ब्लाग पर एड किया ।
जैसे एच टी एम एल थर्ड पार्टी आप्श्न होता है । वगैरह । वो तरीका जानना
चाहता हूँ । मैं ऐसा ही पेज ब्लाग वर्ल्ड काम पर लगाना चाहता हूँ ।
आदरणीय सुरेश जी 'नमस्कार .
जवाब देंहटाएंबहुत ही सार्थक विश्लेषण किया है ....
आज पहली बार आप के ब्लॉग पर आया हूँ आकर बहुत अच्छा लगा .
कभी समय मिले तो http://shiva12877.blogspot.com ब्लॉग पर भी अपनी एक नज़र डालें
कृपया फालोवर बनकर उत्साह वर्धन कीजिये
vicharniya post sir....achchha laga!
जवाब देंहटाएंजय जिनेन्द्र..!!
जवाब देंहटाएंबहुत महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है आपने..!! ऐसा हो जाए, हम अपनी सारी इन्द्रियां जीवन को योग्य बनाने में लगायें..!!! साहित्यकार अगर ऐसा सोचते हैं, कोई और उनका स्थान ले सकेगा..ऐसा संभव ही नहीं है..!! वैसे भी हर मानव की स्व-शैली होती है..कोई भी किसी का ज्ञान नहीं चुरा सकता..!!!
हम उस देश के वासी हैं, जहाँ पक्षियों कि चहचहाहट को भी कविता और गीत माना जाता रहा है!! फिर यह तो साहित्य के समानांतर है यह विधा, ईर्ष्या का विषय तो बनेगी ही!!
जवाब देंहटाएंमीडिया की नष्ट होती विश्वसनीयता के बाद ब्लॉग जगत लोकतंत्र का पाँचवा खम्बा घोषित होने जा रहा है! मिस्र की क्रांति इसका ताज़ातरीन उदाहरण है!!
जवाब देंहटाएंहाथी की चाल कहीं बेहतर है...
जवाब देंहटाएंब्लौगिंगी तुरंत प्रतिक्रिया प्राप्त होना और लेखक और पाठक के सीधे संवाद का एक सहज और सरल माध्यम है .
जवाब देंहटाएंब्लॉगर्स और साहित्यकार विवाद पर अच्छा आलेख ...
साहित्य बनाम ब्लागिंग
जवाब देंहटाएंतुलना बेमानी प्रतीत होती है
आपने सभी बातों पर प्रकाश डालते हुए विस्तृत आलेख लिखा है
आपके लेखन की शैली प्रभावशाली है. बधाई
संग्रहणीय पोस्ट
प्रशंसा करें या आलोचना दोनो ही दशा में अपनी भलाई है। प्रिंट मीडिया या साहित्यकार किसी भी साहित्यिक हलचल से अधिक समय तक दूर नहीं रह सकते। अभी बड़े साहित्यकार नेट से दूर हैं लेकिन एक समय आयेगा जब सभी नेट वर्क में सिद्धहस्थ होंगे।
जवाब देंहटाएं...अच्छा लिखा है आपने।
जबकि ब्लागर्स नाम की इस प्रजाति को तो मालूम भी नहीं रहा होगा कि उनकी इस विधा से वर्तमान साहित्यकार रुपी ये प्राणी अन्दर ही अन्दर किस बौखलाहट के शिकार हो रहे हैं ।
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही कहा आपने।देवेन्द्र जी की बात भी सोलह आने सही है। धन्यवाद।
साहित्य तो साहित्य ही रहेगा ,उसे अभ्व्यिक्ति देने का माध्यम चाहे ब्लॉगिंग ही क्यों न हो।
जवाब देंहटाएंमुद्दे का अच्छा और सटीक विश्लेषण किया है आपने।
Blogging is informative and interactive as well .
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