26.12.10

कैसे-कैसे महापुरुष !

     क सज्जन हैं हीरालालजी । नाम ही जब हीरालाल हो तो कुछ काम-धाम करने का तो सवाल ही नहीं बचता । लिहाजा अपने पिता की इकलौती सन्तान होने के अधिकारस्वरुप पिता के गुजरते ही उनकी जिन्दगी भर की बचत को अपने कब्जे में करने के बाद बूढी माँ को कोठरी में पटक दिया । माँ का रिश्तेदारी व समाज में आना-जाना बन्द और जो जैसा भोजन मिल जाए खालो और पडे रहो वाली स्थिति में छोडकर दिन में तो आप सट्टे में पैसा बढाने की जुगत बिठाते रहते और रात में बच्चे पैदा करने में । माँ घुट-घुटकर जल्दी मर गई और बाप का संचित पैसा भी रास्ते लग गया, लेकिन अजगर करे ना चाकरी और पंछी करे न काम वाली शैली में दिन भर मटरगश्ती करते रहने का उनका क्रम जारी रहा । तब तक पत्नि भी एक-एक करके तीन पुत्री व एक पुत्र को जन्म दे चुकी थी, और परिवार की ये सारी जिम्मेदारीयां उन हीरालालजी की बला से ।

            अब गाज गिरनी चालू हुई उनकी पत्नि पर, वो बेचारी अपने बच्चों को भूखा-प्यासा कैसे और कब तक देख पाती । लिहाजा दूसरों के घरों में छोटे-छोटे काम करके व बचे हुए समय में पापड बेलकर और शादी-ब्याह के अवसरों पर मेंहदी मांडकर जैसे-तैसे वो अपने पतिदेव सहित सारे घर का खर्चा चलाती रही । जान-पहचान के लोगों व रिश्तेदारों की मदद से जोड-जुगाड कर समय आने पर दो लडकियों की शादी भी पत्नि ने अपने बलबूते पर कामचलाऊ लडकों के साथ करवा दी । लेकिन उसकी शारीरिक मशीन भी कब तक जोर मारती, हाडतोड श्रम, पति का जिम्मेदारियों में कोई रुचि न लेना और गाहे-बगाहे अपने चाय-सिगरेट जैसे खर्चों के लिये मार पीटकर पत्नि से पैसे भी छीन लेना जैसी प्रताडनाओं से गुजरते हुए उसे भी टी. बी. की ऐसी जानलेवा बीमारी लग गई जिसने उसे प्रौढावस्था तक पहुँचने के पूर्व ही मौत के चंगुल में फंसा दिया । तब भी उसने उस बीमार अवस्था में अपने पति के लक्षणों को देखते हुए सबसे छोटी व सुन्दर लडकी जो उस समय बमुश्किल 13-14 वर्ष की रही होगी का विवाह मरते-मरते भी एक 24-25 वर्ष के जरुरतमन्द किन्तु सम्पन्न सूर्यमुखी लडके के साथ करा दिया और उस लडकी की शादी के एक महिने के अन्दर ही वह पत्नि भी इस दुनिया से कूच कर गई । 
  
         
अब बचे श्री हीरालाल और उनका तीसरे नम्बर की सन्तान के रुप में मौजूद इकलौता लडका । कुछ समय तो लडके ने छोटे-मोटे काम करके बाप-बेटे का खर्चा चलाने के लिये इधर-उधर हाथ पैर मारे, लेकिन आखिर उसकी रगों में भी अपने अकर्मण्य पिता का खून दौड रहा था, वो भी कब तक मेहनत मजदूरी कर पाता । लिहाजा कुछ काम कर पाना उसके भी बस की बात नहीं रही । तब समाज के कुछ लोगों ने उन बाप-बेटों को मन्दिर में रहने वाले असहाय वृद्ध लोगों के साथ रहने की व्यवस्था करवा दी । अब वो संड-मुसंड हीरालालजी और उनका लडका समाज पर बोझ बनी स्थिति में शान से मन्दिर में रहकर मुफ्त का खा-पी रहे हैं और उनकी भाषा में ऐश से जी रहे हैं ।

           ये तो थे मुझसे बुजुर्ग वर्ग के लोगों के अनुभव अब एक अनुभव अपने हमउम्र साथी श्री कैलाश जैन का । साईन्स की पढाई ग्रेजुएशन के बीच में ही छोडकर ये अपने लिये ऐसा कोई व्हाईट कालर जाब ढूंढने लगे, जिसमें मेहनत न करनी पडे । ऐसा जाब न मिलना था न मिला । उस दौर में कलकत्ता की एक MLM कंपनी दि पिअरलेस जनरल फाईनेन्स एन्ड इन्वेस्टमेंट कंपनी का बहुत बोलबाला था । सन् 1980 से 1984 के मध्य मैं भी उस कंपनी को अपनी सेवाएँ दे रहा था । मुझे देखकर इन्होंने भी उसमें काम करना चालू किया और लोगों से जुडने और उन्हें जोडने के काम में ये भी लग गये ।
 
         
चूंकि मेहनत इनसे होती नहीं थी और शानदार जिन्दगी जीना इनकी चाहत में शामिल था अतः ये अपने विवाह के लिये कोई ऐसी लडकी तलाशने लगे जिसका पिता इन्हें अच्छी व सुन्दर लडकी के साथ ही एकाध घरु मकान और बैंक-बैलेन्स भी दे सके । यहाँ भी बिल्ली के भाग्य का छिंका न टूटना था और न टूटा । लिहाजा इन्हीं की टीम में शामिल एक लडकी जिसका पिता मिल में नौकरी पूरी करके स्वर्गवासी हो चुका था और मां-बेटी अकेले अपना जीवन-यापन कर रहे थे उस लडकी से इन्होंने यह सोचकर शादी करली कि पिता की सारी भविष्यनिधि तो इन्हे ही मिलनी है । वहाँ यदि इन्हे थोडा कुछ मिला भी तो वो ऐसा तो कतई नहीं था जिससे तीन प्राणियों की जिन्दगी गुजर जावे । जब तक वह माँ शान्त हुई तब तक इनके भी दो बच्चे एक लडका व एक लडकी हो चुके थे । पिअरलेस का काम समस्याओं की अधिकता के कारण बन्द हो चुका था और बिना मेहनत के जिन्दगी गुजारने के अपने सिद्धान्त पर ये तब भी चल रहे थे । नतीजा आज के इस प्रतिस्पर्धी युग में इनके वे बच्चे स्कूल में प्राथमिक शिक्षण भी नहीं ले पाये । इधर अभावग्रस्त जिन्दगी और टाईमपास नशों का शौक इनके भी शरीर को जर्जर करता चला गया । तब इनकी 16 वर्ष की कन्या ने किसी परिचित युवक से इनसे यह कहते हुए शादी करली कि पापा आप तो कुछ कर पाओगे नहीं । इसलिये मैं यह रिश्ता जोड रही हूँ । 
  
       
कुछ समय बाद पता चला कि इनकी वह लडकी वापस इनके ही साथ रहने आ गई है । उसके स्वयं द्वारा निर्धारित उस वैवाहिक सम्बन्ध का क्या हुआ ? राम जाने । अब ये दोनों पति-पत्नि हड्डियों का ढांचा बने बीमारियों से जूझते हुए जिन्दा रहने की जद्दोजहद कर रहे हैं । इनकी दोनों सन्तान किस हाल में होंगी ये उन्हींसे बेहतर और कौन जान सकता है
    
          
र अन्त में बात मेरे बाद वाली पीढी की- मेरे ही एक मित्र जो दिनभर बाजार में घूमकर कठोर परिश्रम द्वारा आफिसों में उपयोगी सामग्री सप्लाय करते हुए अपनी पत्नि व दो लडकों के परिवार को पालते आ रहे हैं उनके बडे लडके की तो संयोगवश शासकीय सर्विस लग गई, उसकी शादी हो गई और बच्चे भी हो गये । किन्तु छोटा लडका-  उसने पहले साईन्स पढा, फिर उसे बीच में छोडकर PMT करने बैठ गया । फैल होने के बाद फिर PMT में बैठा, फिर फैल । तब तक आगे पढने की उम्र भी समाप्त हो गई थी । फिर अपने पिता से कहकर ज्योतिष का कोर्स किया । काम-धाम कुछ करना नहीं और सुबह 5 बजे से उठकर अपनी भाभी के कामों में मीन मेख निकालने बैठ जाना । सुबह 5 से रात्रि 11 बजे तक करीब तीन बार मंदिर जाकर 5-6 घंटे वहीं रहना और बस बाकि समय घर में बैठकर पराए घर की लडकी का जीना दूभर करना, यही इनकी कुल दिनचर्या हो गई है । बाप कमाई पर जिन्दा हैं, उम्र 30 पार हो चुकी है । मैंने जब मित्र को सुझाव दिया कि यदि किसी भी काम में इसका मन नहीं लगता तो इसे घर से क्यों नहीं निकाल देते । शरीर की भूख-प्यास और नींद की जरुरत ही सब दुनियादारी इसे अपने आप सिखा देगी । तब मेरे वे हमउम्र मित्र कहने लगे कि मेरी पत्नि इसलिये ऐसा नहीं चाहती कि अचानक उस संघर्ष का सामना न कर पाने के कारण कभी ये कुए-बावडी में कूद जावे तो ? देर-सवेर इनकी भी शादी कहीं न कहीं तो हो ही जाएगी, और आगे फिर किसी बदले हुए रुप में वही कहानियां चलेंगी जो हम उपर के उदाहरणों में देख रहे हैं ।
  
          
इन सभी अकर्मण्य पुरुषों को खाने व पहनने को तो अच्छे से अच्छा चाहिये ही इसके साथ ही स्त्री देह का सुख भी इनकी प्राथमिकता में साथ-साथ चलता है जो कि प्राकृतिक रुप से इन्सान की नैसर्गिक आवश्यकता भी है ही । लेकिन इनकी इस पुरुषार्थहीन अकर्मण्य जिन्दगी का खामियाजा किसे भुगतना पडता है ? सबसे पहले इनके मां-बाप को जिन्हे उम्र के सिद्धान्त के मुताबिक थोडे समय ही भुगतना पडता है, दूसरे नम्बर पर इनकी पत्नि को जिसका जीवन जीतेजी अभावों और फाकाकशी के कारण नर्क से भी बदतर हो जाता है, और फिर इनकी सन्तान को जो अभाव, अशिक्षा और कुण्ठा के बीच पलते हुए बडे होते हैं और जिन्दगी भर इन्हे कोसते रहते हैं ।

         
क्या पूत के पांव पालने में देखकर ऐसे बच्चों के मां-बाप को अपने माया-मोह से परे सोचकर बिल्कुल सख्त रुख अपनाते हुए समय रहते ही इन्हें पूरी तरह से घर से बेदखल करके इन्हे इनके हाल पर नहीं छोड देना चाहिये ? जिससे कि मन से या बेमन से ये स्वयं के लिये आवश्यक राशि कमाना सीखने के साथ ही कम से कम अपनी पत्नि व आने वाले एक या दो बच्चों का भरण-पोषण स्वयं के बल पर करना सीख सकें ।

7 टिप्‍पणियां:

  1. ... gambheer samasyaa par kendrit lekhan ... kyaa kahen .... agar kuchh kah bhee den to maanane vaalaa kaun hai ? ..... saarthak post !!!

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  2. अजीब दास्ताँ है ये ...कोई सलाह काम नहीं आएगी ..



    यहाँ आपका स्वागत है

    गुननाम

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  3. समाज में ऐसे उदाहरण बिखरे पड़े हैं बस जहाँ पत्नियां समझदार हैं वे घर को जैसे-तैसे चला लेती हैं नहीं तो फिर भगवान ही मालिक है।

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  4. वास्तव में कुछ लोग लाइलाज ही होते हैं। दायित्वों से बंधी पत्नियां जैसे तैसे निभाती हैं।

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  5. बहुत अच्छा लेख है.आगे भी पढाने की चाहत रहेगी.
    मेरा एक और ब्लॉग है www.dramanainital.blogspot.com mei unkavi नाम से .आप वहाँ पर भी दिखेंगे तो अच्छा लगेगा.

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  6. सुशील जी,
    आँखे खोलने वाला लेख !
    जिन लोगों को ऐसा जीवन जीने की आदत पड़ जाती है उनके साथ उनका निर्दोष परिवार भी दुःख भोगने पर मज़बूर हो जाता है ! ऐसे लोग ही धरती पर बोझ होते हैं !
    -ज्ञानचंद मर्मज्ञ

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  7. बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!

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आपकी अमूल्य प्रतिक्रियाओं के लिये धन्यवाद...

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