10.1.11

नया धंधा - नये शौक.

                            ये शाम मस्तानीमदहोश किये जाए
                              मुझे डोर कोई खींचे, तेरी ओर लिये जाए.

               इन दिनों हमारे शहर में कुकुरमुत्तों की फौज के समान जो नये किस्म के व्यवसायिक केन्द्र तेजी से बढते जा रहे हैं उनका परिचय है शीशा पार्लर । नवाबों व रजवाडों के जमाने के हुक्के में विभिन्न फ्लेवरों और तम्बाकू के मिश्रण के साथ ही शीशा मिश्रित मादकता का एक नया चस्का जो जितना धंधेबाजों को भा रहा है उतना ही नवयुवाओं को भी अपनी ओर लुभा रहा है । इसके मादक फ्लेवर युवाओं को जिस तेजी से अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं उतनी ही तेजी से इन पार्लरों की संख्या में निरन्तर इजाफा होता जा रहा है ।

               
वैसे तो किसी भी किस्म के नशेबाजों के लिये नशे का कोई टाईम नहीं होता, शुरुआत तो सुबह से ही हो जाती है, लेकिन बहुसंख्यक युवा प्रायः शाम से लगाकर देर रात तक यहाँ महफिलें जमाये नजर आते हैं । धनाढ्य व रईस परिवार के युवाओं से शुरु हुए इस चस्के ने देखते-देखते सामान्य मध्यमवर्गीय युवाओं को भी अपनी गिरफ्त में तेजी से जकड लिया है । युवा वर्ग में मित्रों के आपस में मेल-जोल के ठिकाने बन चुके ये शीशा लाऊंज अपने शानदार इन्टीरियर से सुसज्जित माहौल में ग्राहकों को आरामदायक सोफों व दीवानों पर पसरी हुई मुद्राओं में घंटों यहाँ मुगलकालीन लम्बे नलीदार हुक्कों में  रायल पान मसालागोल्डन एपललिकर आईसपान रसनाकीवीमिंट    सुपारी  फ्लेवरों में शीशे के एसेंस मिश्रीत तम्बाकू के जानदार-शानदार कश लगवाते हुए टेंशन दूर करने या गम गलत करने जैसे माहौल का आभास करवाते हैं ।

               
यहाँ आने वाले इनके स्थाई ग्राहकों में मध्यमवर्गीय समुदाय के वे लोग भी शामिल हैं जो चार-चार, पांच-पांच के ग्रुपों में यहाँ आकर एक ही फ्लेवर के आर्डर के द्वारा 1000/-, 1200/- रुपये महीने के कान्ट्रीब्यूट खर्च में सब आनन्द लेने की अपनी इच्छा पूरी कर जाते हैं तो ऐसे ग्राहकों की भी कमी नहीं है जो अकेले ही 5000/- 6000/- रु. महीना यहाँ नियमित रुप से खर्च करते हैं ।
  
               
कुछ समय पहले तक दस-पांच की संख्या में शुरु हुए ये शीशा पार्लर  अब अकेले इन्दौर शहर में इस समय 250 से अधिक केन्द्रों के रुप में अपनी मौजूदगी दर्शा रहे हैं । पुलिस-प्रशासन की हिस्सेदारी इन पार्लर मालिकों से कितनी तयशुदा अनुपात में बंधी होगी इसका अनुमान इसी स्थिति से लगाया जा सकता है कि जब समाचार-पत्रों में इनके खिलाफ आवाजें उठती हैं तो पुलिस अपनी छापामार कार्यवाही के लिये प्रायः दोपहर का वक्त ही चुनती है क्योंकि उस समय शोर कम सन्नाटा ज्यादा रहता है ।

               
अभी किसी पार्लर में निरन्तर इसके जहरीले धुंए के प्रभाव में रहने के कारण इस माहौल में कार्यरत एक 19-20 वर्षीय युवा कर्मचारी की मृत्यु होने के बाद कलेक्टर ने इनके खिलाफ कार्यवाही तेज करने के आदेश दिये हैं । लेकिन अभी तक तो इन पार्लर मालिकों की सेहत पर अपनी उंची पहुँच और कानून में कमियों की आड के चलते कोई फर्क पडता दिखाई देता नहीं है । चूंकि सार्वजनिक रुप से धूम्रपान अपराध की श्रेणी में गिना जाता है, और इनके यहाँ से बरामद इन फ्लेवरों की पेकिंग पर तम्बाखू मिश्रित लिखा होने के बावजूद ये पार्लर मालिक दृढता से इस बात का खंडन करते दिखाई देते हैं कि इनमें तम्बाकू का नशा नहीं होता है और हमारा काम किसी गैरकानूनी दायरे में नहीं आता । जब कानून की सख्ती ज्यादा होते दिखती है तो सीमित समय के लिये ये पार्लर अपने शटर भी डाउन कर लेते हैं ।

               
इधर इसका सेवन करने वालों का कहना है कि हम पिछले दो, तीन व चार वर्षों से इसका सेवन कर रहे हैं और इसमें कुछ भी नुकसान नहीं है, जबकि इसका विरोध करने वाले जानकारों की राय में इसके नियमित सेवन के तयशुदा दुष्परिणामों की सौगात ये है कि- इसके शीशे में निकोटिन की मौजूदगी के कारण इसका धुंआ हानिकारक होता है जो शौक से आदत में परिवर्तित होते हुए इसके सेवनकर्ताओं को केंसर के खतरे में धकेल रहा है ।

9.1.11

रात-रात भर जाग-जागकर इन्तजार करते हैं...


 
                 ये मैं कोई गीत नहीं गा रहा हूँ बल्कि ठण्ड के उस  खतरनाक हालात को समझने का प्रयास कर रहा हूँ जिसमें किसी भी कारण से घर की सुविधा से वंचित रह गये वे सभी लोग जिनकी रात सडक पर या खुले प्रांगण में इस समय गुजर रही है उनकी पल-पल गुजरती घडी की टिकटिक कितनी लम्बी होती जा रही है ये महसूस करने की कोशिश कर रहा हूँ ।

              सर्दी का जानलेवा कहर दिन-ब-दिन प्रचण्ड होता चल रहा है । इन्दौर में जहाँ पारा लगातार 5.0 के नीचे चल रहा है वहीं 50 किलोमीटर की दूरी पर उज्जैन में यह 2.0 डिग्री तक पहुँच गया है । खेतों में खडी फसल पर इस जानलेवा सर्दी से जो नुकसान कृषकों को भुगतना पड रहे हैं उनकी भरपाई तो हमें थोडी और मंहगाई के मुख में ले जाकर शायद पूरी हो जावेगी किन्तु इस ठण्ड से आसपास के क्षेत्र से मृत्यु के आगोश में समा जाने के जो परिदृश्य लगातार सामने आ रहे हैं वे इसकी भयावहता का बखूबी चित्रण कर रहे हैं ।
 
             सबसे पहले वे भिखारी जिनके पास सिवाय सडक पर रात गुजारने के दूसरा कोई विकल्प ही नहीं है, जो जैसे अलाव के रुप में कुछ मिल जावे उसे जलाकर बैठे रहते हैं, नींद यदि आवे तो वहीं पड लिये लेकिन कितनी देर तक ? आंच घंटे भर भी गर्म नहीं रख पा रही है और गहराती रात के साथ ठण्ड बढती जा रही है । जब भी जो भी उधर से गुजरे- उनका एक ही सवाल सामने आ रहा है-  ए भाई टाईम क्या हुआ है ? सुबह कब होगी ?

              अस्पतालों में उपचार के लिये आसपास के गांव-कस्बों से रोगियों के साथ आए ग्रामीणों पर भी ये ठण्ड कहर बनकर टूट रही है और बस व रेल्वे-स्टेशनों पर अपनी गाडियों की प्रतिक्षा जिन्हे रात में करना पड रही है उनके भी हाल-बेहाल कर रही है ये ठण्ड ।

              मात्र एक सप्ताह की इस शीतलहर में सिर्फ मध्यप्रदेश में ही लगभग 25 व्यक्तियों की जान ले चुकी ये ठण्ड शेष भारत में कहाँ क्या तांडव कर रही होगी और इसका प्रकोप कब तक थमेगा, राम जाने । फिलहाल तो सब तरफ यही सुनने में आ रहा है- कदी नी देखी रे दादा असी ठण्ड ।


5.1.11

टिप्पणियों की अनिवार्यता और माडरेशन का नकाब ?

         ब्लाग लेखन की ये दुनिया यहीं थम जावे यदि इस पर से टिप्पणियों का चलन बन्द हो जावे । मुझे नहीं लगता कि मेरी इस सोच से कोई भी ब्लागर शत-प्रतिशत असहमति रख पावेगा । आखिर हम लिखते ही इसलिये हैं कि पाठक न सिर्फ हमारे लिखे को पढें बल्कि वो अपने विचारों से हमें अवगत भी करवाते चलें । 

             
टिप्पणी इस ब्लाग जगत की वैसी ही अनिवार्यता है जैसे किसी कथा-वार्ता या कहानी सुनते वक्त सुनने वाले के मुखारबिन्द से चलता हुंकारा । जो वक्ता को लगातार इस बाबत प्रेरित करता रहता है कि मैं यदि बोल रहा हूँ तो सामने वाला मुझे सुन भी रहा है, और इसीलिये वो अपने सुनाने के तरीके में नाना प्रकार की रोचकता का समावेश भी अलग-अलग तरीकों से करता चलता है । किन्तु यदि सुनने वाला सुनने के दरम्यान हुंकारा भरना बन्द करदे तो, तब वार्ता सुनाने वाले को लगता है कि सुनने वाला सो चुका है और अब मुझे भी अपनी वार्ता बन्द कर देनी चाहिये ।

             
जो टिप्पणी ब्लाग-लेखक के लिये प्राण-वायु का काम करती हो, जिसकी गैर-मौजूदगी लेखक का हाजमा बिगाड देने की अहमियत रखती हो, जिस टिप्पणी की महत्ता पर ब्लाग-लेखकों के पचासों लेख पढे जा सकते हों । वही टिप्पणी हमें चाहिये तो अधिक से अधिक किन्तु रखेंगे हम उसे माडरेशन के नकाब में, आखिर क्यों ? क्यों हमें इस बात का डर सताता रहता है कि टिप्पणी के माध्यम से कोई खुल्लम-खुल्ला हमारा अपमान कर जावेगा या यदि और भी चलताऊ भाषा में बात को कहा जावे तो यह कि इस टिप्पणी के माध्यम से कोई हमारा शीलहरण कर जावेगा । क्या हम हमेशा ही ऐसा कुछ विवादास्पद लिख रहे हैं जिससे हर बार पढने वाले क्रुद्ध होकर हमारा अपमान करने पर उतारु हो जावें । 

             
मुझे एक ब्लाग याद आ रहा है शायद भंडाफोड ही रहा होगा जो विवादास्पद धार्मिक लेख अपने ब्लाग पर छापा करता था और जहाँ तक मुझे याद है उसकी टिप्पणियां भी बिना किसी माडरेशन के झंझट के तत्काल दिखने लगती थी । जबकि ऐसे लेखों पर किसी न किसी रुप में विवाद होना तो तय रहता ही है । यहाँ यदि लेखक टिप्पणी पर माडरेशन रखे या कोई पहेली के उत्तरों पर पुरस्कार दिये जाने जैसी आवश्यकता के अनुरुप इस माडरेशनरुपी हथियार का इस्तेमाल किया जावे वहाँ तो इसका औचित्य समझ में भी आता है किन्तु जब हम कोई कविता लिख रहे हों या जनसामान्य के लिये उपयोगी समझे जाने जैसे किसी विषय पर अपना लेख लिख रहे हों और वहाँ भी इन टिप्पणियों पर हम माडरेशन व्यवस्था लागू करके बैठे रहें यह बात मेरी समझ में तो नहीं आती ।


             
यह लिखने का विचार मेरे मन में इस कारण से उपजा कि आप किसी का लेख या कविता पढो और जैसी की आवश्यकता लगे या परम्परा के निर्वाहन जैसी औपचारिकता ही क्यों न लगे आप वहाँ टिप्पणी करो और स्क्रीन पर यह लिखा हुआ देखो कि "आपकी टिप्पणी सहेज दी गई है और ब्लाग स्वामी की स्वीकृति के बाद दिखने लगेगी" सही मायनों में इससे टिप्पणी देने वाले को एक अनावश्यक बोरियत का अहसास ही होता है। जिस प्रकार शब्द पुष्टिकरण की व्यवस्था जिस ब्लाग पर दिखती है वहाँ लोग टिप्पणी करने से कतराने लगते हैं उसी प्रकार माडरेशन की यह व्यवस्था भी जाने-अन्जाने हमारे टिप्पणीकारों को हमारे लेख पर टिप्पणी करने से विमुख भी करती ही  है । भले ही इसका प्रतिशत कम होता हो किन्तु होता तो है ।

               
प्रत्येक टिप्पणीकर्ता इस बात को बखूबी समझता है कि किसी का लेख पढने के बाद यदि उस पर टिप्पणी करनी है तो वह किन शब्दों में हो जिससे लेखक के साथ उसके सामान्य रिश्ते मजबूत बनें न कि खराब हों । जाहिर है इसके लिये टिप्पणीकर्ता को लेख के बारे में कुछ सोचना भी पडता हैफिर उसे टाईप भी करना होता है और जब तक टिप्पणी या उससे सम्बन्धित निर्देश स्क्रीन पर दिखाई न देने लगे तब तक प्रतिक्षा भी करना होती है । यह ठीक है कि ये सारी प्रक्रिया एक साझा उद्देश्य (मैं तुम्हें दे रहा हूँ तो तुम मुझे भी दोगे) के निमित्त भी यदि चल रही होती है तो भी इस किस्म के साझेदार इस ब्लागवुड में हम अकेले ही तो नहीं हैं । यहाँ भी ये सिद्धान्त बखूबी काम करता है कि "तू है हरजाई तो अपना भी यही दौर सही, तू नहीं और सही, और नहीं और सही." । करीब-करीब सभी लिखने-पढने वाले यहाँ अपने जीविकोपार्जन के लिये लगने वाले समय के बाद ही यहाँ आकर शेष समय में इस माध्यम का प्रयोग अपने शौक की पूर्ति के लिये या अपने विचारों के सम्प्रेषण के लिये इस मंच पर करने आते हैं याने सब सीमित समय के लिये ही यहाँ आते हैं ऐसे में कितने व्यक्ति इस मानसिकता के साथ यहाँ आ पाते होंगे कि आज तो फलां लेखक के ब्लाग पर अनर्गल टिप्पणी करने ही जाना है ।
  
             
मुझे तो किसी भी ब्लाग लेखक के द्वारा टिप्पणियों पर लगाये जाने वाले इस माडरेशन की प्रक्रिया का कोई औचित्य समझ में नहीं आता । यदि मान भी लिया जावे कि सौ-पचास में कोई एक टिप्पणी हमारे आलेख पर किसी ने ऐसी दे भी दी जो हमें उचित नहीं लग रही हो तो हमारे पास उसे वहाँ से हटा देने का विकल्प भी सेटिंग में मौजूद रहता ही है फिर क्यों हम उन सभी टिप्पणिकर्ताओं से डर या सहमकर बैठे रहें कि प्रत्येक टिप्पणी जो हमारे आलेख पर हमें मिलेगी उसे पहले हम पढेंगे और हमें अच्छी लगी तो अपनी रचना के नीचे उसे स्थान देंगे वर्ना वहीं से उसे चलता कर देंगे । कुल मिलाकर माडरेशन प्रणाली के किसी भी समर्थक की सोच अनचाहे तौर पर ही सही लेकिन क्या उस दायरे में नहीं चली जाती जिसके लिये कहा जा सके कि- मीठा-मीठा गप और कडवा-कडवा थू.

             
प्रत्येक ब्लाग लेखक यहाँ सिर्फ और सिर्फ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के समर्थन में ही इस मंच पर आया होता है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता विषय पर लम्बे-चौडे लेख लिखता है लेकिन टिप्पणियों पर माडरेशन का यह नकाब औढाकर सबसे पहले अभिव्यक्ति का गला भी वही घोटते नजर आता है । यदि ऐसी सोच के साथ ऐसे व्यक्ति शासक-दल में किसी नीति-निर्धारक की हैसियत से पहुँचेंगे तो वे इस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सिर्फ दिखावी तौर पर ही हिमायती दिख पावेंगे । अन्दरुनी तौर पर तो सेंसरशिप कैसे लागू रखी जावे जिससे मैं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पक्षधर भी लगूँ और मेरी इच्छा के बगैर कहीं कोई पत्ता भी न खडके वाली कार्यप्रणाली के अन्तर्गत ही कार्य करते नजर आ पावेंगे ।

              
विशेष-  ब्लागलेखन में टिप्पणियों की भूमिका प्राणवायु जैसी आवश्यक दिखने के बाद भी अनेक ब्लाग्स पर ये माडरेशन प्रणाली देखे जाने पर मुझे यह आपत्तिसूचक लेख लिखना समझ में आया और मैंने किसी के भी प्रति बगैर किसी दुर्भावना के इसे लिखकर सभी लेखकों व पाठकों की अदालत में प्रस्तुत कर दिया है । यदि आपको इसे पढने के बाद ये लगता है कि मेरा सोचना एकपक्षीय है और माडरेशन प्रणाली के बगैर तो अनेक समस्याएँ सामने आ खडी होंगी तो मैं आपके विचारों को भी न सिर्फ समझने का बल्कि ग्राह्य करने का भी प्रयास करुँगा किन्तु यदि अन्य पाठकों को जो मेरे जैसे तरीके से इस प्रतिबन्ध की अनावश्यकता को महसूस कर रहे होंगे तो उनके विचारों का भी अपनी इस सोच के पक्ष में विशेष स्वागत करुंगा । आगे फिर विचार भी आपके और फैसला भी आपका.

3.1.11

उम्मीद पे कायम दुनिया.

             देश भर में नूतन वर्ष के स्वागतम्-अभिनन्दनम् के नाम पर जनता जनार्दन द्वारा 31 दिसम्बर की मध्यरात्रि में हजारों हजार पेग गले में उंडेलते हुए, रात-रात भर मलाईका, केटरीना, राखी और ऐसी अनेकों महान नर्तकियों के 'हुस्न के लाखों रंग' टाईप के नृत्य का नामी-गिरामी होटलों में रात्रिकालीन आनन्द लुत्फ उठाते हुए व ई-मेल, एस एम एस व टेलीफोनिक माध्यमों से एक दूसरों को देश-दुनिया में करोडों की तादाद में शुभकामनाओं का आदान-प्रदान करते हुए आखिर आ ही पहुँचे हैं हम सब 2011 के इस नये वर्ष में ।
 
           
क्या ये सही समय हो सकता है इस बात को सोचने का कि आखिर इस 2011 में सामान्य नागरिक के पास अमन-चैन से जी पाने के नाम पर क्या कुछ नया मिल पाना है । कुछ बडी समस्याएँ जो जाने अनजाने हममें से हर किसी को प्रभावित कर  रही हैं, उन पर एक नजर-
 
            
भ्रष्टाचार-  बडे से बडे खुलते जा रहे घोटालों के साथ हम इस नूतन वर्ष में प्रविष्ट हो रहे हैं और सुधार की कोई गुंजाईश कहीं दिखती नहीं है । क्योंकि जिनके हाथों में सत्ता है उन्हे पहले वोट खरीदने, फिर सत्ता सुरक्षित रखने, फिर अपना उत्तराधिकारी सुरक्षित रखने और इन सब माध्यमों से अपना आने वाला कल इन्श्योर्ड रखने के लिये बेशुमार धन की आवश्यकता बनी ही रहनी है । इसलिये इनकी ओर से भ्रष्टाचार उन्मूलन की दिशा में कोई ठोस सुधारात्मक प्रयास हो पावें यह सोच पाना मृग-मरीचिका से ज्यादा कुछ नहीं लगता, जो छोटी-बडी मछलियां कानून के शिकंजे में आ रही हैं उनके पास भी इस विकल्प की पर्याप्त गुंजाईशें बनी ही रहनी हैं कि लेके रिश्वत पकडे गए तो देके रिश्वत छूट जा । बचे हम सामान्य देशवासी, तो हमें भी सरकारी आफिसों में अपना काम निकालने के लिये, सम्पत्तिकर, जलकर, आयकर, विक्रयकर बचाने के लिये, लम्बी-चौडी कतारों में पीछे लगकर अपना समय नष्ट होने से बचाने के लिये, अनुपलब्ध दिखाई देने वाले गेस सिलेण्डर की अपने किचन या कार के ईंधन के लिये, यात्रा में बर्थ की आसान उपलब्धि के लिये और न जाने कितने ही ऐसे छोटे-बडे प्रयोजनों के लिये आगे बढकर अहिसाबी मुद्रा के छोटे-मोटे आदान-प्रदान के लिये पहले भी बाध्य होना पडता था और आगे भी इसकी बाध्यता बनी ही रहनी है ।
 
            
आतंकवाद- जनसामान्य से अनचाहे तौर पर चिपका हुआ यह ऐसा भूत है जो पहले जिसकी रक्षा करते हुए दिखता रहा, बाद में उसी को निगलते हुए दिखता चला आ रहा है । एक समय में पंजाब समस्या के निदान के नाम पर अपने तात्कालिक मन्तव्य साधने के लिये पहले कभी इन्दिरा गांधी ने भिण्डरावालां को इसी माध्यम से अपना हथियार बनाया था और बाद में इसी कौम के उन्हींके सुरक्षाकर्मियों की गोली से विश्व की इस सर्वाधिक शक्तिशाली महिला को अपने प्राण गंवाना पडे थे । फिर तो यह सिलसिला कभी देश के तस्करों व भाईगिरी के माध्यम से हर प्रकार के अनैतिक काम के द्वारा दौलत पैदा करने की चाहत रखने वालों द्वारा राह में आने वाले अपने सभी विरोधियों व दुश्मनों को निपटाने के लिये ऐसा चला कि अनेक देश भी अपने-अपने स्वार्थ साधने की चाहत में इस खेल में पर्दे के पीछे से शामिल होते चले गये । जाहिर है आतंक फैलाकर अपना मकसद पूरा करने की चाहत रखने वाले किसी भी पक्ष के और किसी भी देश के इन प्रयोजनकर्ताओं का मुख्य शिकार राह चलते आम आदमी को पहले भी होते रहना पडा है और आगे भी होते रहना ही पडेगा ।
 
            
मंहगाई- मंहगाई में सामान्य उछाल तो साल-दर-साल सालों पहले से दिखता चला आ रहा है जिसे बढती आबादी के साथ ही जमाखोरी व मुनाफाखोरी से जोडकर भी देखा जाता रहा है किन्तु पिछले लगभग 5 वर्षों में ये मँहगाई जिस विकराल रुप से बढी है इसकी तुलना किसी भी वस्तु के तबके और अबके बाजार मूल्यों को सामने रखकर बखूबी समझी जा सकती है । सामान्यजन की सोच में इसका एक प्रमुख कारण कम्प्यूटर पर आनलाईन कमोडिटी के काल्पनिक सौदौं द्वारा धातुओं और खाद्यान्न सामग्री के वे सौदे बनते हैं जिनमें मात्र 20% पैसा जमा करने के बाद  सम्पन्न व्यापारी उस सौदे को एक महिने तक अपने अधिकार में रखकर अपनी आर्थिक ताकत के आधार पर काल्पनिक मूल्यवृद्धि करता चला जाता है और फिर सामान्य बाजार में हमें भी उन वस्तुओं को उसी बढे हुए भाव में खरीदना पडता है ।
  
           
आखिर इस कमोडिटी व्यवसाय से किसका लाभ हो रहा है और यह खेल जो बगैर जिंसों के मनमानी मात्रा में सौदे करके अति सम्पन्न वर्ग द्वारा खेला जा रहा है सरकार इस ओर से आँख मूंदकर क्यों बैठी है ? बार-बार सरकार इन सौदों की सूचि में खाद्य सामग्रियों को क्यों जुडवा रही है ? क्यों इसके सौदों में ये अनिवार्यता नहीं रखी जा सकती कि यदि सौदा किया है तो पूरा भुगतान करो और अपने माल की डिलीवरी लो ? यदि इन आनलाईन कमोडिटी सौदों की कार्यप्रणाली पर सरकार किसी ईमानदार संकल्प के साथ थोडा भी शिकंजा कसा रख सके तो मंहगाई की समस्या में बहुत कुछ आनुपातिक कमी देखने की पर्याप्त उम्मीद की जा सकती है ।
 
              
परिवहन- जनसामान्य की सार्वजनिक जीवन की एक और बडी समस्या परिवहन बनी हुई है । यहाँ सब तरफ समस्याओं का अंबार लगा दिखता है । जिस गति से जनसंख्या बढ रही है उससे भी तेज गति से देश-दुनिया की जानी-मानी आटोमोबाईल कंपनियां दिन की तीन-तीन शिफ्टों में अपना उत्पादन बढाकर बैंकों के आसान लोन की मदद से सडकों पर वाहनों का जखीरा फैलाती जा रही हैं । सडकें जो आबादी का बढता बोझ ही सहन कर पाने की स्थिति में नहीं हैं उन पर इन बेतहाशा बढते वाहनों का बोझ, खुले भ्रष्टाचार के साये में बनी सडकें जो गड्ढो के रुप में बमुश्किल अपना वजूद दिखाने की कोशिश करती नजर आती हैं इन पर चलते असुरक्षित यात्री 5, 10, 25, 50 के अनुपात में हर छोटे बडे शहरों में रोज एक्सीडेंट का शिकार होकर असमय मौत के आगोश में जा रहे हैं ।
 
             
दुनिया के कई देशों की परिवहन व्यवस्था के अनुसार किसी भी आटोमोबाईल कं. को तब तक लाईसेन्स नहीं दिया जाता जब तक कि वह कम्पनी उस देश में तयशुदा अनुपात में सडकें बनाकर देने का अनुबन्ध स्वीकार न करलें । यदि लायसेन्स राज के भ्रष्टाचार से उपर उठकर सोचा जा सके तो हमारे देश में ऐसा कोई कानून लागू क्यों नहीं किया जा सकता ?
 
             
उपर दर्शित ये असाध्य समस्याएँ जो देश के सभी नागरिकों के जीवन को समान रुप से प्रभावित कर रही हैं, इनके उन्मूलन की दिशा में कोई ठोस पहल इस नूतन वर्ष में यदि शासकिय या अशासकिय स्तर पर होने वाले प्रयास के रुप में दिख सके तो शायद ये इस वर्ष ही नहीं वरन् इस दशाब्दी की श्रेष्ठ उपलब्धि कही जा सकती है. वरना तो यही कहना है-
 
            
न बदले थेन बदलेंगे.  जहाँ थे हम वहीं होंगे,
           
समस्य़ा लाख समझो तुम, तरक्की हम तो समझेंगे.

1.1.11

कामना शुभकामना...





सुप्रभातकारी बेला में
'नजरिया' 
परिवार की ओर से
अपने सभी
पाठकों, समर्थकों, प्रचारकों व अपने
परिचित-अपरिचित साथियों को
इस नूतन वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ....

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