बचपन के दिनों में होली का
डांडा गिरधारी, पकड
चुटैया दे मारी... के नारों के बीच होली के एक महिने पहले से नुक्कड व चौराहों पर
होली का डांडा गडने के साथ ही चंदेबाजी का दौर शुरु हो जाता था । मोहल्ले भर के
लोगों को होली की शैली में चुभती हुई मीठी-मीठी उपाधि से भरी पत्रिकाएँ देखने में
आने लगती थी । ऐसी ही एक धुलंडी की सुबह मोहल्ले के बंसीलालजी जब उठकर घर के बाहर
आये तो ओटले पर जमा बरसों पुराना लकडी का तखत अपने स्थान से गायब देखकर चकरघिन्नी
हो गये तभी उनकी धर्मपत्नी जली हुई होली की पूजा कर उम्बी सेंककर लाते हुए घर में
घुसते हुए उनसे बोली कि अपने घर का तखत तो होली में जला हुआ पडा है । दौडे-दौडे
बंसीलालजी नुक्कड पर गये और बाप-दादाओं के जमाने के जले हुए तखत के अवशेष देखकर
माथा पीटते हुए हुडदंगियों की माँ-बहनों को याद करते हुए वापस आए । आते ही उनकी
श्रीमतीजी ने भी उन्हें ही आडे हाथों लिया कि मैंने तो पहले ही कहा था कि इन चंदा
मांगने वालों से हुज्जत मत करो और जो ये मांग रहे हैं इन्हे दे-दिलाकर बिदा करो
किन्तु आपने मेरी बात नहीं मानी और उनसे बहस करने के बाद भाव-ताव करते हुए कंजूसी
से चंदा दिया तो अब भुगतो । इधर बंसीलालजी अपने अडौस-पडौस के लोगों से अपनी व्यथा
बयान कर रहे थे कि रांड तो गई ही साथ में 16 हाथ की धोती भी ले गई ।
होली की
पूर्व रात्रि में ठौले मसखरी से भरी इसकी तो माँ का... वाली शैली में गली-गली में
शवयात्राएँ निकालते थे और उसमें आगे-आगे मटकी लेकर चलने वाला बंदा मैला-गोबर से
भरा वह मटका उस शख्स के घर के दरवाजे पर पूरी नारेबाजी व दिलेरी के साथ फोडता था
जहाँ से चंदे की माकूल पूर्ति नहीं हुई हो । कम्प्यूटर मोबाईल जैसे संसाधन उस समय
होते नहीं थे, प्रत्येक
परिवार पोस्ट द्वारा आने-जाने वाली डाक पर ही निर्भर रहते थे और करीब-करीब हर
परिवार का अपना पृथक लेटर-बाक्स घर के बाहर या गलियारे में लगा रहता था जिसे पूरी
हिफाजत से सयाने लोग होली की पूर्व रात्रि में ही निकालकर अपने कब्जे में कर लेते
थे किन्तु जहाँ गल्ति से भी ये लेटरबाक्स लगे रह जाते थे तो फिर उनके अवशेष जली
हुई होली में किसी के फरिश्ते भी नहीं ढूंढ पाते थे ।
कभी जब
होली का मूहर्त रात 4 बजे के
आसपास का होता और यदि वहाँ नशे की गिरफ्त में आयोजकों की निगरानी में थोडी भी चूक
हो जाती तो जैसे आजकल घर के बाहर खडी कारों के भाई लोग बेमतलब कांच फोड जाते हैं
वैसे ही एक मोहल्ले की होली दूसरे मोहल्ले के मस्तीखोर सुलगाकर भाग लेते थे । होली
के नाम पर वैसे ही सब तरह की गाली-गलौच और बेजा हरकतों की छूट चलती है उसमें
मस्तीखोर बढ-चढकर हिस्सेदारी करते थे और गम्भीर प्रवृत्ति के लोग देखकर व
मुस्कराकर उसका आनन्द लेते देखे जाते थे । इसी त्यौंहार पर कमोबेश हर तरह के नशे
के शौकीन अपने-अपने दारु और भांग की तरंग में-
कीचड, गोबर, चिंथडे, सबकी पूरी छूट
होली का आनन्द ये,
लूट सके
तो लू़ट.
वाली
शैली में पूनम से पंचमी तक चलने वाले महापर्व का भरपूर आनन्द निरन्तर बदलते परिवेश
में आज तक लेते देखे जा रहे हैं ।
बहुत पुराने ज़माने की यादें याद दिला दी। सोचकर भी हंसी आती है। होली की हार्दिक शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंbehtreen post...
जवाब देंहटाएंहोली मुबारक
जवाब देंहटाएंकल देखिए चर्चा मंच को , आपकी पोस्ट भी मिलेगी वहां पर
धन्यवाद आपको दिलबाग विर्क सा.
जवाब देंहटाएंयह तो हद है होली की !
जवाब देंहटाएंहोली के अवसर पर ढेरों शुभकामनाएं!
जवाब देंहटाएंइतना सब करने के बाद भी कहते हैं बुरा न मानो होली है ...
जवाब देंहटाएंशानदार पोस्ट सर सच में बचपन की याद आ गई।
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जवाब देंहटाएंहृदयस्पर्शी भावपूर्ण प्रस्तुति.बहुत शानदार भावसंयोजन .आपको बधाई.होली की हार्दिक शुभ कामना .
ना शिकबा अब रहे कोई ,ना ही दुश्मनी पनपे
गले अब मिल भी जाओं सब, कि आयी आज होली है
प्रियतम क्या प्रिय क्या अब सभी रंगने को आतुर हैं
हम भी बोले होली है तुम भी बोलो होली है .
Yaden taja karwadee. Holi kee shubh kamnaen.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंआजकल चंदा तो शरीफों की तरह दे दिया जाता है...गोबर छूने वाले बच्चे अब कहाँ शानदार संस्मरण...होली की शुभकामनाएं...
जवाब देंहटाएंवाह वाह क्या आनंदमयी पोस्ट है सर जी । होली की असीम शुभकामनाएं आपको भी
जवाब देंहटाएंउन्मुक्त मन का निरूपण है होली..
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