देश भर में नूतन वर्ष के
स्वागतम्-अभिनन्दनम् के नाम पर जनता जनार्दन द्वारा 31 दिसम्बर की मध्यरात्रि में हजारों हजार
पेग गले में उंडेलते हुए, रात-रात
भर मलाईका, केटरीना, राखी और ऐसी अनेकों महान नर्तकियों के 'हुस्न के लाखों रंग' टाईप के नृत्य का नामी-गिरामी होटलों
में रात्रिकालीन आनन्द लुत्फ उठाते हुए व ई-मेल, एस एम एस व टेलीफोनिक माध्यमों से एक
दूसरों को देश-दुनिया में करोडों की तादाद में शुभकामनाओं का आदान-प्रदान करते हुए
आखिर आ ही पहुँचे हैं हम सब 2011 के इस नये वर्ष में ।
क्या ये सही समय हो सकता है इस बात को सोचने का कि आखिर इस 2011 में सामान्य नागरिक के पास अमन-चैन से जी पाने के नाम पर क्या कुछ नया मिल पाना है । कुछ बडी समस्याएँ जो जाने अनजाने हममें से हर किसी को प्रभावित कर रही हैं, उन पर एक नजर-
भ्रष्टाचार- बडे से बडे खुलते जा रहे घोटालों के साथ हम इस नूतन वर्ष में प्रविष्ट हो रहे हैं और सुधार की कोई गुंजाईश कहीं दिखती नहीं है । क्योंकि जिनके हाथों में सत्ता है उन्हे पहले वोट खरीदने, फिर सत्ता सुरक्षित रखने, फिर अपना उत्तराधिकारी सुरक्षित रखने और इन सब माध्यमों से अपना आने वाला कल इन्श्योर्ड रखने के लिये बेशुमार धन की आवश्यकता बनी ही रहनी है । इसलिये इनकी ओर से भ्रष्टाचार उन्मूलन की दिशा में कोई ठोस सुधारात्मक प्रयास हो पावें यह सोच पाना मृग-मरीचिका से ज्यादा कुछ नहीं लगता, जो छोटी-बडी मछलियां कानून के शिकंजे में आ रही हैं उनके पास भी इस विकल्प की पर्याप्त गुंजाईशें बनी ही रहनी हैं कि लेके रिश्वत पकडे गए तो देके रिश्वत छूट जा । बचे हम सामान्य देशवासी, तो हमें भी सरकारी आफिसों में अपना काम निकालने के लिये, सम्पत्तिकर, जलकर, आयकर, विक्रयकर बचाने के लिये, लम्बी-चौडी कतारों में पीछे लगकर अपना समय नष्ट होने से बचाने के लिये, अनुपलब्ध दिखाई देने वाले गेस सिलेण्डर की अपने किचन या कार के ईंधन के लिये, यात्रा में बर्थ की आसान उपलब्धि के लिये और न जाने कितने ही ऐसे छोटे-बडे प्रयोजनों के लिये आगे बढकर अहिसाबी मुद्रा के छोटे-मोटे आदान-प्रदान के लिये पहले भी बाध्य होना पडता था और आगे भी इसकी बाध्यता बनी ही रहनी है ।
आतंकवाद- जनसामान्य से अनचाहे तौर पर चिपका हुआ यह ऐसा भूत है जो पहले जिसकी रक्षा करते हुए दिखता रहा, बाद में उसी को निगलते हुए दिखता चला आ रहा है । एक समय में पंजाब समस्या के निदान के नाम पर अपने तात्कालिक मन्तव्य साधने के लिये पहले कभी इन्दिरा गांधी ने भिण्डरावालां को इसी माध्यम से अपना हथियार बनाया था और बाद में इसी कौम के उन्हींके सुरक्षाकर्मियों की गोली से विश्व की इस सर्वाधिक शक्तिशाली महिला को अपने प्राण गंवाना पडे थे । फिर तो यह सिलसिला कभी देश के तस्करों व भाईगिरी के माध्यम से हर प्रकार के अनैतिक काम के द्वारा दौलत पैदा करने की चाहत रखने वालों द्वारा राह में आने वाले अपने सभी विरोधियों व दुश्मनों को निपटाने के लिये ऐसा चला कि अनेक देश भी अपने-अपने स्वार्थ साधने की चाहत में इस खेल में पर्दे के पीछे से शामिल होते चले गये । जाहिर है आतंक फैलाकर अपना मकसद पूरा करने की चाहत रखने वाले किसी भी पक्ष के और किसी भी देश के इन प्रयोजनकर्ताओं का मुख्य शिकार राह चलते आम आदमी को पहले भी होते रहना पडा है और आगे भी होते रहना ही पडेगा ।
मंहगाई- मंहगाई में सामान्य उछाल तो साल-दर-साल सालों पहले से दिखता चला आ रहा है जिसे बढती आबादी के साथ ही जमाखोरी व मुनाफाखोरी से जोडकर भी देखा जाता रहा है किन्तु पिछले लगभग 5 वर्षों में ये मँहगाई जिस विकराल रुप से बढी है इसकी तुलना किसी भी वस्तु के तबके और अबके बाजार मूल्यों को सामने रखकर बखूबी समझी जा सकती है । सामान्यजन की सोच में इसका एक प्रमुख कारण कम्प्यूटर पर आनलाईन कमोडिटी के काल्पनिक सौदौं द्वारा धातुओं और खाद्यान्न सामग्री के वे सौदे बनते हैं जिनमें मात्र 20% पैसा जमा करने के बाद सम्पन्न व्यापारी उस सौदे को एक महिने तक अपने अधिकार में रखकर अपनी आर्थिक ताकत के आधार पर काल्पनिक मूल्यवृद्धि करता चला जाता है और फिर सामान्य बाजार में हमें भी उन वस्तुओं को उसी बढे हुए भाव में खरीदना पडता है ।
आखिर इस कमोडिटी व्यवसाय से किसका लाभ हो रहा है और यह खेल जो बगैर जिंसों के मनमानी मात्रा में सौदे करके अति सम्पन्न वर्ग द्वारा खेला जा रहा है सरकार इस ओर से आँख मूंदकर क्यों बैठी है ? बार-बार सरकार इन सौदों की सूचि में खाद्य सामग्रियों को क्यों जुडवा रही है ? क्यों इसके सौदों में ये अनिवार्यता नहीं रखी जा सकती कि यदि सौदा किया है तो पूरा भुगतान करो और अपने माल की डिलीवरी लो ? यदि इन आनलाईन कमोडिटी सौदों की कार्यप्रणाली पर सरकार किसी ईमानदार संकल्प के साथ थोडा भी शिकंजा कसा रख सके तो मंहगाई की समस्या में बहुत कुछ आनुपातिक कमी देखने की पर्याप्त उम्मीद की जा सकती है ।
परिवहन- जनसामान्य की सार्वजनिक जीवन की एक और बडी समस्या परिवहन बनी हुई है । यहाँ सब तरफ समस्याओं का अंबार लगा दिखता है । जिस गति से जनसंख्या बढ रही है उससे भी तेज गति से देश-दुनिया की जानी-मानी आटोमोबाईल कंपनियां दिन की तीन-तीन शिफ्टों में अपना उत्पादन बढाकर बैंकों के आसान लोन की मदद से सडकों पर वाहनों का जखीरा फैलाती जा रही हैं । सडकें जो आबादी का बढता बोझ ही सहन कर पाने की स्थिति में नहीं हैं उन पर इन बेतहाशा बढते वाहनों का बोझ, खुले भ्रष्टाचार के साये में बनी सडकें जो गड्ढो के रुप में बमुश्किल अपना वजूद दिखाने की कोशिश करती नजर आती हैं इन पर चलते असुरक्षित यात्री 5, 10, 25, 50 के अनुपात में हर छोटे बडे शहरों में रोज एक्सीडेंट का शिकार होकर असमय मौत के आगोश में जा रहे हैं ।
दुनिया के कई देशों की परिवहन व्यवस्था के अनुसार किसी भी आटोमोबाईल कं. को तब तक लाईसेन्स नहीं दिया जाता जब तक कि वह कम्पनी उस देश में तयशुदा अनुपात में सडकें बनाकर देने का अनुबन्ध स्वीकार न करलें । यदि लायसेन्स राज के भ्रष्टाचार से उपर उठकर सोचा जा सके तो हमारे देश में ऐसा कोई कानून लागू क्यों नहीं किया जा सकता ?
उपर दर्शित ये असाध्य समस्याएँ जो देश के सभी नागरिकों के जीवन को समान रुप से प्रभावित कर रही हैं, इनके उन्मूलन की दिशा में कोई ठोस पहल इस नूतन वर्ष में यदि शासकिय या अशासकिय स्तर पर होने वाले प्रयास के रुप में दिख सके तो शायद ये इस वर्ष ही नहीं वरन् इस दशाब्दी की श्रेष्ठ उपलब्धि कही जा सकती है. वरना तो यही कहना है-
न बदले थे, न बदलेंगे. जहाँ थे हम वहीं होंगे,
समस्य़ा लाख समझो तुम, तरक्की हम तो समझेंगे.
क्या ये सही समय हो सकता है इस बात को सोचने का कि आखिर इस 2011 में सामान्य नागरिक के पास अमन-चैन से जी पाने के नाम पर क्या कुछ नया मिल पाना है । कुछ बडी समस्याएँ जो जाने अनजाने हममें से हर किसी को प्रभावित कर रही हैं, उन पर एक नजर-
भ्रष्टाचार- बडे से बडे खुलते जा रहे घोटालों के साथ हम इस नूतन वर्ष में प्रविष्ट हो रहे हैं और सुधार की कोई गुंजाईश कहीं दिखती नहीं है । क्योंकि जिनके हाथों में सत्ता है उन्हे पहले वोट खरीदने, फिर सत्ता सुरक्षित रखने, फिर अपना उत्तराधिकारी सुरक्षित रखने और इन सब माध्यमों से अपना आने वाला कल इन्श्योर्ड रखने के लिये बेशुमार धन की आवश्यकता बनी ही रहनी है । इसलिये इनकी ओर से भ्रष्टाचार उन्मूलन की दिशा में कोई ठोस सुधारात्मक प्रयास हो पावें यह सोच पाना मृग-मरीचिका से ज्यादा कुछ नहीं लगता, जो छोटी-बडी मछलियां कानून के शिकंजे में आ रही हैं उनके पास भी इस विकल्प की पर्याप्त गुंजाईशें बनी ही रहनी हैं कि लेके रिश्वत पकडे गए तो देके रिश्वत छूट जा । बचे हम सामान्य देशवासी, तो हमें भी सरकारी आफिसों में अपना काम निकालने के लिये, सम्पत्तिकर, जलकर, आयकर, विक्रयकर बचाने के लिये, लम्बी-चौडी कतारों में पीछे लगकर अपना समय नष्ट होने से बचाने के लिये, अनुपलब्ध दिखाई देने वाले गेस सिलेण्डर की अपने किचन या कार के ईंधन के लिये, यात्रा में बर्थ की आसान उपलब्धि के लिये और न जाने कितने ही ऐसे छोटे-बडे प्रयोजनों के लिये आगे बढकर अहिसाबी मुद्रा के छोटे-मोटे आदान-प्रदान के लिये पहले भी बाध्य होना पडता था और आगे भी इसकी बाध्यता बनी ही रहनी है ।
आतंकवाद- जनसामान्य से अनचाहे तौर पर चिपका हुआ यह ऐसा भूत है जो पहले जिसकी रक्षा करते हुए दिखता रहा, बाद में उसी को निगलते हुए दिखता चला आ रहा है । एक समय में पंजाब समस्या के निदान के नाम पर अपने तात्कालिक मन्तव्य साधने के लिये पहले कभी इन्दिरा गांधी ने भिण्डरावालां को इसी माध्यम से अपना हथियार बनाया था और बाद में इसी कौम के उन्हींके सुरक्षाकर्मियों की गोली से विश्व की इस सर्वाधिक शक्तिशाली महिला को अपने प्राण गंवाना पडे थे । फिर तो यह सिलसिला कभी देश के तस्करों व भाईगिरी के माध्यम से हर प्रकार के अनैतिक काम के द्वारा दौलत पैदा करने की चाहत रखने वालों द्वारा राह में आने वाले अपने सभी विरोधियों व दुश्मनों को निपटाने के लिये ऐसा चला कि अनेक देश भी अपने-अपने स्वार्थ साधने की चाहत में इस खेल में पर्दे के पीछे से शामिल होते चले गये । जाहिर है आतंक फैलाकर अपना मकसद पूरा करने की चाहत रखने वाले किसी भी पक्ष के और किसी भी देश के इन प्रयोजनकर्ताओं का मुख्य शिकार राह चलते आम आदमी को पहले भी होते रहना पडा है और आगे भी होते रहना ही पडेगा ।
मंहगाई- मंहगाई में सामान्य उछाल तो साल-दर-साल सालों पहले से दिखता चला आ रहा है जिसे बढती आबादी के साथ ही जमाखोरी व मुनाफाखोरी से जोडकर भी देखा जाता रहा है किन्तु पिछले लगभग 5 वर्षों में ये मँहगाई जिस विकराल रुप से बढी है इसकी तुलना किसी भी वस्तु के तबके और अबके बाजार मूल्यों को सामने रखकर बखूबी समझी जा सकती है । सामान्यजन की सोच में इसका एक प्रमुख कारण कम्प्यूटर पर आनलाईन कमोडिटी के काल्पनिक सौदौं द्वारा धातुओं और खाद्यान्न सामग्री के वे सौदे बनते हैं जिनमें मात्र 20% पैसा जमा करने के बाद सम्पन्न व्यापारी उस सौदे को एक महिने तक अपने अधिकार में रखकर अपनी आर्थिक ताकत के आधार पर काल्पनिक मूल्यवृद्धि करता चला जाता है और फिर सामान्य बाजार में हमें भी उन वस्तुओं को उसी बढे हुए भाव में खरीदना पडता है ।
आखिर इस कमोडिटी व्यवसाय से किसका लाभ हो रहा है और यह खेल जो बगैर जिंसों के मनमानी मात्रा में सौदे करके अति सम्पन्न वर्ग द्वारा खेला जा रहा है सरकार इस ओर से आँख मूंदकर क्यों बैठी है ? बार-बार सरकार इन सौदों की सूचि में खाद्य सामग्रियों को क्यों जुडवा रही है ? क्यों इसके सौदों में ये अनिवार्यता नहीं रखी जा सकती कि यदि सौदा किया है तो पूरा भुगतान करो और अपने माल की डिलीवरी लो ? यदि इन आनलाईन कमोडिटी सौदों की कार्यप्रणाली पर सरकार किसी ईमानदार संकल्प के साथ थोडा भी शिकंजा कसा रख सके तो मंहगाई की समस्या में बहुत कुछ आनुपातिक कमी देखने की पर्याप्त उम्मीद की जा सकती है ।
परिवहन- जनसामान्य की सार्वजनिक जीवन की एक और बडी समस्या परिवहन बनी हुई है । यहाँ सब तरफ समस्याओं का अंबार लगा दिखता है । जिस गति से जनसंख्या बढ रही है उससे भी तेज गति से देश-दुनिया की जानी-मानी आटोमोबाईल कंपनियां दिन की तीन-तीन शिफ्टों में अपना उत्पादन बढाकर बैंकों के आसान लोन की मदद से सडकों पर वाहनों का जखीरा फैलाती जा रही हैं । सडकें जो आबादी का बढता बोझ ही सहन कर पाने की स्थिति में नहीं हैं उन पर इन बेतहाशा बढते वाहनों का बोझ, खुले भ्रष्टाचार के साये में बनी सडकें जो गड्ढो के रुप में बमुश्किल अपना वजूद दिखाने की कोशिश करती नजर आती हैं इन पर चलते असुरक्षित यात्री 5, 10, 25, 50 के अनुपात में हर छोटे बडे शहरों में रोज एक्सीडेंट का शिकार होकर असमय मौत के आगोश में जा रहे हैं ।
दुनिया के कई देशों की परिवहन व्यवस्था के अनुसार किसी भी आटोमोबाईल कं. को तब तक लाईसेन्स नहीं दिया जाता जब तक कि वह कम्पनी उस देश में तयशुदा अनुपात में सडकें बनाकर देने का अनुबन्ध स्वीकार न करलें । यदि लायसेन्स राज के भ्रष्टाचार से उपर उठकर सोचा जा सके तो हमारे देश में ऐसा कोई कानून लागू क्यों नहीं किया जा सकता ?
उपर दर्शित ये असाध्य समस्याएँ जो देश के सभी नागरिकों के जीवन को समान रुप से प्रभावित कर रही हैं, इनके उन्मूलन की दिशा में कोई ठोस पहल इस नूतन वर्ष में यदि शासकिय या अशासकिय स्तर पर होने वाले प्रयास के रुप में दिख सके तो शायद ये इस वर्ष ही नहीं वरन् इस दशाब्दी की श्रेष्ठ उपलब्धि कही जा सकती है. वरना तो यही कहना है-
न बदले थे, न बदलेंगे. जहाँ थे हम वहीं होंगे,
समस्य़ा लाख समझो तुम, तरक्की हम तो समझेंगे.
बाऊ जी,
जवाब देंहटाएंनमस्ते!
सही कहा आपने: उम्मीद पर ही कायम है दुनिया.
इन्श'अल्लाह हमें इन समस्याओं से निजात मिलेगी.
आशीष
---
हमहूँ छोड़के सारी दुनिया पागल!!!
चलिये आपकी बात सच हो जाय
जवाब देंहटाएंनये साल की हार्दीक शुभकामनाए..
सार्थक लेख....
जवाब देंहटाएंसमय मिलाने पर यह भी पढ़ें.....
http://dramanainital.blogspot.com/2010/09/blog-post_24.html
सार्थक रचना...
जवाब देंहटाएंनववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं...
उमीद पर ही तो यहाँ तक पहुँचे हैं। वो भी समय था जब हमे रेडिओ भी नसीब नही था आज हमारे पास क्या नही है? लेकिन हम उपल्ब्धिओं को हमेशा नज़र अन्दाज़ करते हैं। बहुत कुछ बदला है आगे भी बदलेगा। शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंयही उम्मीद है तभी जिन्दगी है।
जवाब देंहटाएं... ab kyaa kahen ... saaraa kuchh to aap ne bayaan kar hi diyaa hai ... antim sher to shubhaan-allaa hai !!
जवाब देंहटाएंसही कहा है आपने,आपको भी नए वर्ष की शुभकामनाएँ !
जवाब देंहटाएंसार्थक रचना...
जवाब देंहटाएंनववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं...
सही कहा है आपने ... वो सुबह कभी तो आएगी .....
जवाब देंहटाएंअंतिम पंक्तियों ने तो लाजवाब ही कर दिया.
जवाब देंहटाएंaisa hi ho!
जवाब देंहटाएंachchha lekh.
इस देश को सम्पूर्ण क्रान्ति की आवश्यकता है। अभी तो सभी एक दूसरे को लूटने में लगे हैं। अच्छा आलेख है, बधाई।
जवाब देंहटाएंसमस्याएँ तो सबकी जानी पहचानी हैं, अब तो उनके समाधान पर ज़ोर दिया जाना ज़रूरी है।
जवाब देंहटाएंप्रमोद ताम्बट
भोपाल
व्यंग्य http://vyangya.blog.co.in/
व्यंग्यलोक http://www.vyangyalok.blogspot.com/
फेसबुक http://www.facebook.com/profile.php?id=1102162444
उम्मीद पर दुनिया कायम है और आशावादी हम भी है । समस्य़ा लाख समझो तुम, तरक्की हम तो समझेंगे......
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने, उम्मीद पर ही कायम है दुनिया| शुभकामनाएँ|
जवाब देंहटाएंतरक्की समझने में कोई दिक्कत नहीं
जवाब देंहटाएंकिशोरों और युवाओं के लिए उपयोगी ब्लॉगों की जानकारी जल्दी भेजिएगा
उम्मीद पर ही कायम है दुनिया| शुभकामनाएँ|
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