गत 16-17 जून को उत्तराखंड अंचल में हुई त्रासदी की भयावहता बयान करने जैसा नया अब कुछ नहीं बचा है किंतु उसी अवधि में दैनिक भास्कर में प्रकाशित एक कविता उन पाठकों के लिये जो किसी कारण से उनकी नजरों से ना गुजरी हो हुबहू पेश है-
समाचार चैनल का संवाददाता जोर-जोर से चिल्ला रहा है,
मां गंगा को विध्वंसिनी और सुरसा बता रहा है,
प्रकृति कर रही है अपनी मनमानी,
गांव शहर और सडकों तक भर आया है बाढ का पानी,
मां गंगा को विध्वंसिनी और सुरसा बता रहा है,
प्रकृति कर रही है अपनी मनमानी,
गांव शहर और सडकों तक भर आया है बाढ का पानी,
नदियों को सीमित करने वाले तटबंध टूट रहे हैं
और पानी को देखकर प्रशासन के पसीने छूट रहे हैं,
पानी की मार से जनता का जीवन दुश्वार हो रहा है,
गंगा-यमुना का पानी आपे से बाहर हो रहा है,
बैराजों के दरवाजे चरमरा रहे हैं और
टिहरी जैसे बांध भी पानी को रोकने में खुद को असमर्थ पा रहे हैं,
किसी ने कहा- पानी क्या है साहब तबाही है तबाही,
प्रकृति को सुनाई नहीं देती मासूमों की दुहाई,
नदियों के इस बर्ताव से मानवता घायल हुई जाती है,
सच कहे तो बरसात के मौसम में नदियां पागल हो जाती हैं,
ये सब सुनकर माँ गंगा मुस्कराई और बयान देने जनता की अदालत में चली आई,
जब कठघरे में आकर माँ गंगा ने अपनी जुबान खोली,
तो वो करुणापूर्ण आक्रोश में कुछ यूं बोली,
मुझे भी तो अपनी जमीन छिनने का डर सालता है,
और मनुष्य मेरी निर्मल धारा में सिर्फ कूडा-करकट डालता है,
धार्मिक आस्थाओं का कचरा मुझे झेलना पडता है,
जिंदा से लेकर मुर्दों तक का अवशेष अपने भीतर ठेलना पडता है,
अरे, जब मनुष्य मेरे अमृत से जल में पोलीथिन बहाता है,
जब मरे हुए पशुओं की सडांध से मेरा जीना मुश्किल हो जाता है,
जब मेरी निर्मल धारा में आकर मिलता है
शहरी नालों का बदबूदार पानी
तब किसी को दिखाई नहीं देती मनुष्यों की मनमानी,
ये जो मेरे भीतर का जल है इसकी प्रकृति अविरल है,
किसी भी तरह की रुकावट मुझसे सहन नहीं होती है,
फिर भी तुम्हारे अत्याचार का भार धाराएं अपने ऊपर ढोती हैं
तुम निरंतर डाले जा रहे हो मुझमें औद्योगिक विकास का कबाड,
ऐसे ही थोडी आ जाती है ऐसी प्रलयंकारी बाढ.
मानव की मनमानी जब अपनी हदें लांघ देती हैं
तो प्रकृति भी अपनी सीमाओं को खूंटी पर टांग देती है,
नदियों का पानी जीवनदायी है,
इसी पानी ने युगों-युगों से खेतों को सींचकर मानव की भूख मिटाई है
पर मानव, ये तो स्वभाव से ही आततायी है,
इसने निरंतर प्रकृति का शोषण किया,
और अपने स्वार्थों का पोषण किया
नदियों की धारा को ये बांधता चला गया,
मीलों फैले मेरे पाट को कांक्रीट के दम पर पाटता गया,
और अपने स्वार्थों का पोषण किया
नदियों की धारा को ये बांधता चला गया,
मीलों फैले मेरे पाट को कांक्रीट के दम पर पाटता गया,
सच तो ये है कि मनुष्य निरंतर नदियों की ओर बढता आया है,
नदियों की धारा को संकुचित कर इसने शहर बसाया है,
ध्यान से देखें तो आप समझ जाएंगे,
कि नदी शहर में घुसी है या शहर ही नदी में घुस आया है,
जिसे बाढ का नाम देकर मनुष्य हैरान-परेशान है,
ये तो दरअसल गंगा का नेचुरल सफाई अभियान है,
यही तो नदियों का नेचुरल सफाई अभियान है.