एक पुरानी कहावत - पिता से पिटने के बाद
पिता को सामान्य मूड में देखकर पुत्र ने हिम्मत जुटाकर पूछा - पापा,
क्या
आपके पापा भी आपको ऐसे ही पीटते थे ? हाँ बिल्कुल, पिता ने जवाब दिया ।
और उनके पापा पुत्र ने फिर
पूछा ?
वे तो मेरे पिताजी को
मारते हुए बाथरुम में बन्द कर देते थे, पिता ने जवाब दिया । लेकिन तुम ये सब क्यों पूछ रहे हो इस बार पिता ने पुत्र से पूछा ? कुछ नहीं मैं तो यह
जानना चाह रहा था कि ये खानदानी गुंडागर्दी आखिर कब
तक चलेगी ?
पुत्र
ने कुछ मासूमियत से अपने पिता के प्रतिप्रश्न के उत्तर
में जवाब दिया ।
अब तो नई पीढी को अपने अभिभावकों
की इस मार-पिटाई से मुक्ति मिल गई प्रतीत होती है । क्योंकि एक या दो बच्चों के इस युग में उनकी किसी भी गल्ति पर
पिता उन्हें पीटने की सोच भी नहीं पाते और कभी
भूल से भी उन्हें ये मालूम पड जावे कि उनके बच्चे को स्कूल में किसी
शिक्षक ने हाथ भी लगाया तो समझो उस शिक्षक की शामत आना तय हो जाती है
। वे दिन गये जब स्कूल में बच्चे को भर्ती करवाते समय पालक स्कूल के
शिक्षक से बोलकर आते थे,
माटसाब
बच्चे को अच्छे से पढाना, सख्ती भी करना पडे तो
चिंता मत करना,
समझलो कि आज से इसकी हड्डी-हड्डी
मेरी और चमडी-चमडी आपकी,
और
विद्यार्थी व शिक्षार्थी सभी एक ही सिद्धांत पर
चला करते थे "छडी पडे छम्-छम, विद्या आवे धम्-धम", और विद्यार्थी को शिक्षा
प्राप्ति के दौरान प्राइमरी से लगाकर सेकन्ड्री तक मुर्गा बनते, कान पकडकर उठक-बैठक लगाते, हथेली पर स्केल या रुल की मार खाते, बैंच पर खडे होते या फिर क्लास से निकाल
दिये जाने की सजा
झेलते-झेलते
ही अपनी शिक्षा का ये दौर पूरा करना पडता था ।
विश्वप्रसिद्ध शख्सियत
अल्फ्रेड
हिचकाक को उनके पिता ने मारने-पीटने के बाद रात भर के लिये तहखाने के कबाड के
बीच बन्द कर दिया । रात भर घिग्गी सी बंधी हुई स्थिति में डर के जिस माहौल
में बालक अल्फ्रेड ने वह डरावनी रात व्यतीत की उसी डर को बडे होकर फिल्म
निर्माता बनने के बाद उसने एक से बढकर एक डरावनी फिल्मों के रुप में
सारी दुनिया के सामने लगातार प्रस्तुत किया और हाॅरर (डरावनी) फिल्मों के
निर्माण के क्षेत्र में बेताज बादशाह बनकर सारी दुनिया के समक्ष अपनी
प्रतिभा का लोहा मनवाया ।
इस स्थिति के समर्थन में आधुनिक विचारधारा के पोषक चाहे जितने तर्क दे लें किन्तु इसके दुष्परिणामों में इसी ब्लाग की मेरी पूर्व पोस्ट तरुणाई की ये राह में घर पर पेरेण्ट्स के समक्ष शेर बने रहने वाले ऐसे बच्चों में कोई अपने दोस्तों से ही पिट व मर रहा है तो कुछ बालक या तो अपने से शारीरिक या मानसिक रुप से तगडे लोगों से पिट रहे हैं या फिर कई बार तो वे पुलिस से भी जूते खा रहे होते हैं । अतः नई पीढी के पालक व बालक भले ही इस स्थिति को एक राहत के रुप में देखें किन्तु कहीं न कहीं पालकों की इस नरमदिली के चलते बालकों का दुनियावी प्रशिक्षण कुछ अधूरा तो छूट ही रहा है ।
उल्लेखनीय हस्तियों के पिटाई संस्मरण में विख्यात
अभिनेता, निर्माता, निर्देशक- राजकपूर
की पिटाई भी इसी श्रेणी में आती है । पापा पृथ्वीराज कपूर का फिल्म
इंडस्ट्री में पर्याप्त दबदबा होने के बावजूद गुरुकुल प्रथा का अनुसरण
करते हुए उन्होंने राजकपूर को फिल्मकार केदार शर्मा का सहायक बनवाया, जहाँ
राजकपूर को फिल्म के प्रत्येक शाट के पूर्व सिर्फ क्लीपिंग देने का काम
सौंपा गया था । तरुण राजकपूर कुछ अपनी उम्र व कुछ इण्डस्ट्री के
आकर्षण के वशीभूत हर शाट के बाद शीशे में अपना चेहरा देखने खडा हो जाता था जिससे
कई बार अगला शाट फिल्माने की प्रक्रिया बाधित होती थी । निर्माता केदार
शर्मा ने दो-एक बार राजकपूर को इसके लिये मना भी किया किन्तु आदत से मजबूर
राजकपूर पर उनकी समझाईश का कोई असर नहीं हुआ । अंततः अगली बार इसी
क्रम में जब शाट फिल्माने की प्रक्रिया बाधित हुई तो केदार शर्मा ने जो झन्नाटेदार
थप्पड राजकपूर को रसीद किया तो राजकपूर न
जाने कितनी दूर जाकर गिरे ।
इस घटना के परिणामस्वरुप जहाँ एक ओर केदार शर्मा को राजकपूर की इस बेजा आदत से आगे के लिये निजात मिल गई वहीं राजकपूर ने भी अनुशासन का जो सबक इससे हासिल किया उसी अनुशासन ने उस राजकपूर को सर्वोच्च श्रेणी का फिल्म निर्माता बनवाकर न सिर्फ देश भर में बल्कि दुनिया के अनेक देशों में समान रुप से लोकप्रिय बनवाया । अपने आगे के अनेकों साक्षात्कारों में राजकपूर ने इस घटना का सगर्व उल्लेख भी किया । इसी संदर्भ में यह भी देखें- बच्चों के सर्वांगीण विकास में माता-पिता की भूमिका
इस घटना के परिणामस्वरुप जहाँ एक ओर केदार शर्मा को राजकपूर की इस बेजा आदत से आगे के लिये निजात मिल गई वहीं राजकपूर ने भी अनुशासन का जो सबक इससे हासिल किया उसी अनुशासन ने उस राजकपूर को सर्वोच्च श्रेणी का फिल्म निर्माता बनवाकर न सिर्फ देश भर में बल्कि दुनिया के अनेक देशों में समान रुप से लोकप्रिय बनवाया । अपने आगे के अनेकों साक्षात्कारों में राजकपूर ने इस घटना का सगर्व उल्लेख भी किया । इसी संदर्भ में यह भी देखें- बच्चों के सर्वांगीण विकास में माता-पिता की भूमिका
पुत्र
को आत्मनिर्भर बनाने की सोच के साथ एक समय एक पिता ने अपने पुत्र को
सख्त निर्देश दिया- कल से तुम जब तक एक रुपया कमाकर नहीं
लाओगे तुम्हें खाना नहीं
मिलेगा । कल से दिन के समय तुम मुझे घर में मत दिखना । पुत्र ने माँ
को बताया कि पिताजी ने मुझे ऐसा निर्देश दिया है । माँ ने अपनी ममता के
वशीभूत हो उसे अपने पास से एक रुपया दे दिया और कहा दिन में घूम फिरकर
आ जाना और कल तो ये रुपया अपने पिता को दे देना,
पुत्र ने भी वैसा ही किया,
दिन भर इधर-उधर दोस्तों के साथ घूमकर आने के बाद पिता के हाथ में वो
रुपया रख दिया । पिता ने उसके सामने उस रुपये को जलते
चूल्हे में फेंकते हुए कहा - मुझे
बेवकूफ समझ रखा है क्या ये रुपया तू कमाकर लाया है ?
कल से कमाकर लाना ।
पुत्र ने चिंतित अवस्था में उसी शहर में रह रही अपनी विवाहित बहन को
अपनी समस्या बताई । इस बार बहन ने उसे अपने पास से रुपया देकर कहा -
ठीक है कल ये रुपया देकर देख लो । दूसरे दिन शाम को
पिता के हाथ में बहन से लिया हुआ
रुपया पुत्र ने ऐसे रख दिया जैसे मैं इसे कमाकर लाया हूँ । पिता
ने फिर उस रुपये को चलते चूल्हे में फेंकते हुए कहा । फिर वही बात
क्या तू मुझे मूर्ख समझ रहा है ।
अब तो पुत्र की हालत खराब हो गई । माँ व बहिन से लिये हुए रुपये पिता ने न जाने कैसे भांप लिये थे । तीसरे दिन पुत्र अपने दोस्त से उधार रुपया लेकर आया और शाम को पिता के हाथ में अपनी उस दिन की कमाई के रुप में रख दिया । पिता ने पल-दो पल उस रुपये को हाथ में रखा व पुत्र को गौर से देखते हुए फिर उस रुपये को जलते चूल्हे में वही कहते हुए फेंक दिया । साथ ही यह निर्देश फिर दे दिया कि कल से गल्ति मत करना और कमाकर ही लाना । अब पुत्र ने सोचा कि ऐसे तो काम नहीं चलेगा, न जाने कैसे पिताजी भांप ही लेते हैं । दूसरे दिन कुछ सोचकर पुत्र वास्तव में रुपया कमाकर लाने के लिये निकल पडा ।
दिन भर पुत्र ने कडी मेहनत की और शाम को अपने पिता के हाथ में दिन भर की मेहनत के एवज में पाया हुआ रुपया रख दिया । पिता ने पुत्र की ओर देखते हुए उस रुपये को भी तू तो मुझे बेवकूफ ही समझ रहा है कहते हुए जलते चूल्हे में फेंक दिया । पिताजी ये आप क्या कर रहे हैं ? दिन भर मैंने तपती धूप में कडी मेहनत से यह रुपया कमाया है, कहते हुए पुत्र ने दौडकर जलते चूल्हे में से उस रुपये को बाहर निकाल लिया । तो इस पिटाई या सख्ति का जो सुपरिणाम उस पीढी को मिलता था उसके कारण पिता से पिटने वाला बालक दुनिया में कहीं भी किसी से भी फिर नहीं पिट पाता था लेकिन अब ?
अब तो पुत्र की हालत खराब हो गई । माँ व बहिन से लिये हुए रुपये पिता ने न जाने कैसे भांप लिये थे । तीसरे दिन पुत्र अपने दोस्त से उधार रुपया लेकर आया और शाम को पिता के हाथ में अपनी उस दिन की कमाई के रुप में रख दिया । पिता ने पल-दो पल उस रुपये को हाथ में रखा व पुत्र को गौर से देखते हुए फिर उस रुपये को जलते चूल्हे में वही कहते हुए फेंक दिया । साथ ही यह निर्देश फिर दे दिया कि कल से गल्ति मत करना और कमाकर ही लाना । अब पुत्र ने सोचा कि ऐसे तो काम नहीं चलेगा, न जाने कैसे पिताजी भांप ही लेते हैं । दूसरे दिन कुछ सोचकर पुत्र वास्तव में रुपया कमाकर लाने के लिये निकल पडा ।
दिन भर पुत्र ने कडी मेहनत की और शाम को अपने पिता के हाथ में दिन भर की मेहनत के एवज में पाया हुआ रुपया रख दिया । पिता ने पुत्र की ओर देखते हुए उस रुपये को भी तू तो मुझे बेवकूफ ही समझ रहा है कहते हुए जलते चूल्हे में फेंक दिया । पिताजी ये आप क्या कर रहे हैं ? दिन भर मैंने तपती धूप में कडी मेहनत से यह रुपया कमाया है, कहते हुए पुत्र ने दौडकर जलते चूल्हे में से उस रुपये को बाहर निकाल लिया । तो इस पिटाई या सख्ति का जो सुपरिणाम उस पीढी को मिलता था उसके कारण पिता से पिटने वाला बालक दुनिया में कहीं भी किसी से भी फिर नहीं पिट पाता था लेकिन अब ?
श्रीमतीजी
की हमउम्र महिलाओं की गोष्ठी में एक परिचिता का दुःख कुछ यूं व्यक्त हो रहा था-
अरे सुनीता अपनी तो किस्मत ही खराब है जब बहू बनकर आए तो सास के सामने कुछ बोल
नहीं सकते थे, और अब जब सास बने तो बहू के सामने कुछ नहीं बोल
सकते ।
यही दुःख अभी एक पार्टी में एक मित्र जिनका अच्छा खासा अनाज मण्डी में गेहूँ का कारोबार है, मकान, दुकान, वाहन व इकलौते विवाहित पुत्र जैसे सभी भौतिक सुखों के बावजूद 55 वर्ष के आसपास की उम्र में ही शरीर रोगों का घर बन चुका है, उनसे कुशल-क्षेम जानने के दौरान सामने आया - मैंने पूछा - और अशोकजी कैसा क्या चल रहा है ? वे बडी मायूसी से फीकी सी मुस्कराहट के साथ बोले - बस सुशीलजी, जो और जैसी कट जावे । मैंने कहा - क्यों भाई ऐसा क्यों ? तो वे बोले - सुशीलजी बडे बदकिस्मत हैं अपन लोग । बात तब भी पूरी तरह पल्ले नहीं पडने पर कुछ और कुरेदा तो वे मुझसे सहमति भरवाते हुए बोले - अपन तो अपने पिताजी के हाथों जब तब पिटते हुए ही बडे हुए और अब अपन अपने बच्चों को तू भी बोलदो तो घर भर में तूफान सा झेलना पड जाता है । दुःख उनका जायज लग रहा था । आजकल सीमित सन्तानों के दौर में यही स्थिति हर दूसरे घर में दिखाई दे रहा है ।
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अच्छी आदत कैसे...?
आदत सुधारें – जीवन सुधरेगा...
यही दुःख अभी एक पार्टी में एक मित्र जिनका अच्छा खासा अनाज मण्डी में गेहूँ का कारोबार है, मकान, दुकान, वाहन व इकलौते विवाहित पुत्र जैसे सभी भौतिक सुखों के बावजूद 55 वर्ष के आसपास की उम्र में ही शरीर रोगों का घर बन चुका है, उनसे कुशल-क्षेम जानने के दौरान सामने आया - मैंने पूछा - और अशोकजी कैसा क्या चल रहा है ? वे बडी मायूसी से फीकी सी मुस्कराहट के साथ बोले - बस सुशीलजी, जो और जैसी कट जावे । मैंने कहा - क्यों भाई ऐसा क्यों ? तो वे बोले - सुशीलजी बडे बदकिस्मत हैं अपन लोग । बात तब भी पूरी तरह पल्ले नहीं पडने पर कुछ और कुरेदा तो वे मुझसे सहमति भरवाते हुए बोले - अपन तो अपने पिताजी के हाथों जब तब पिटते हुए ही बडे हुए और अब अपन अपने बच्चों को तू भी बोलदो तो घर भर में तूफान सा झेलना पड जाता है । दुःख उनका जायज लग रहा था । आजकल सीमित सन्तानों के दौर में यही स्थिति हर दूसरे घर में दिखाई दे रहा है ।
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क्या आपको नहीं लगता कि अपने बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिये इस
प्रकार कभी-कभी हो जाने वाली उनकी पिटाई जिसे हम लोग तो
अपने जमाने में कुटावडे ही कहते थे, या
अभिभावकों के उनके प्रति सख्त तेवर, भलें ही
वे पूर्ण सख्ती के नकली
किन्तु जीवन्त अभिनय के रुप में ही अपने
बच्चे के सामने आते क्यों न
दिख रहे हों अंततः बच्चे के हित में ही साबित होते हैं ?
बहुत बढिया पोस्ट,
जवाब देंहटाएंविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
नालायक मास्टर लोग पिटाई में ही विश्वास रखते थे...क्योंकि समझा कर पढ़ाना कोई खेल नहीं है. यही हाल कमोवेश हर दूसरी जगह भी देखा जा सकता है
जवाब देंहटाएंअच्छी पोस्ट के लिए बधाई |पर मेरे ख्याल से टिप्पणीव्यर्थ नहीं की जाती |इसके कई लाभ भी हैं |खैर नजरिया अपना अपना
जवाब देंहटाएंआशा
सुशील जी आपको कैसे मालूम हुआ की हम बाथरूम में बंद करके पिटे है| पहले लोग गुरु के पास जाकर कहते थे" हड्डी हमारी और खाल तुम्हारी" और अब पुलिस में रिपोर्ट करते है अच्छी पोस्ट, आभार...
जवाब देंहटाएंमास्टर की पिटाई से अगर कुछ नुकसान भी होता था तो आगे चल कर उसके परिणाम भी शुभ निकलते थे|
जवाब देंहटाएंपिटाई का मैं सख्त विरोध करता हूँ। पीटना, अधिकतर पीटने वाले के दुःख व क्रोध का ही सूचक है। शांत व समझदार शिक्षक या माता-पिता को चाहिए कि पोस्ट में उद्धरित सिक्के कमाने जैसा कोई आइडिया लगा कर बच्चों को शिक्षित करें।
जवाब देंहटाएंसबसे अच्छा है बच्चों से लगातार संवाद बनाये रखना। उनकी आधुनिक हो रही मानसिकता के अनुरूप तारतम्य बिठाते हुए, समझदारी से कमियाँ बताते रहना।
पीटने के साइड इफेक्ट होते हैं। मानसिक विकास अवरूद्ध हो सकता है। बच्चा दब्बू या निरंकुश हो सकता है। आधुनिक समाज में बढ़ रही बच्चों के द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं की घटना, संवाद हीनता के परिणाम भी हैं।
कभी कभी झापड़ या झन्नाट वाक्य जीवन की दिशा बदल देते हैं।
जवाब देंहटाएंभाई सुशील जी बहुत ही शिक्षाप्रद आलेख बधाई |
जवाब देंहटाएंइस आलेख पर टिप्पणियों में विरोधी विचारधारा अधिक सामने आने के कारण मैं किसी भी टिप्पणीकर्ता को अलग से सम्बोधित किये बगैर ये बताना चाहता हूँ कि 30-40 वर्ष पूर्व से लगाकर पौराणिक काल तक स्कूल व परिवार में पिटाई या सजा को उतना बुरा नहीं समझा जाता था जितना कि आज । पहला उदाहरण (पढे गये आधार पर) पौराणिक काल से-
जवाब देंहटाएंकौरवों-पांडवों के बालपन में शिक्षा के दरम्यान गुरु द्रोण ने सभी को पढाया - क्रोध करना बुरी बात है, हमें क्रोध से बचना चाहिये । दूसरे दिन गुरु ने सभी बच्चों से पूछा कल का सबक सबने समझ लिया ? सभीने हाँ भरी किन्तु युधिष्ठिर बोला नहीं गुरुजी मुझे अभी कल का सबक याद नहीं हुआ है । गुरु ने फिर बताया और पूछा अब याद हुआ युधुष्ठिर ने फिर मना कर दिया । दो-तीन बार इसी क्रम की पुनरावृत्ति होने पर गुरु द्रोण ने अपने हाथ की छडी से युधिष्ठिर को मारते हुए पूछा - अब याद हुआ, नहीं युधिष्ठिर का जवाब था । अब तो गुरु मारते जाते और पूछते जाते अब याद हुआ और हर बार शांत भाव से खडे युधिष्ठिर का वही उत्तर होता नहीं गुरुजी । अंततः गुरु की युधिष्ठिर को मारते-मारते छडी टूट गई । गुरु ने आश्चर्यमिश्रीत दुःख से पूछा - इतनी सी बात तुम्हें याद क्यों नहीं हो पा रही है ? तब युधिष्ठिर ने जवाब दिया - सबक था क्रोध करना बुरी बात है हमें इससे बचना चाहिये और आपके इतना मारने पर भी मुझे क्रोध नहीं आया इसलिये मैं ये कह सकता हूँ कि अब मुझे यह सबक याद हो गया और गुरु द्रोण जो खुद क्रोध कर रहे थे ने युधुष्ठिर को गले से लगा लिया ।
दूसरी घटना जो मैंने शशिकपूर के सन्दर्भ में पढी थी - जब अपने पुत्र को उसके बचपन में बार-बार समझाने के बाद भी पुत्र का भोजन जूठा छोड देने की आदत समाप्त नहीं हुई तो पुत्र को कपडे उतारकर मारते हुए बाथरुम में बन्द करने की सजा देकर ही उसे उनके द्वारा ये बात समझाई गई ।
चूंकि विषय गंभीर हो चला है इसलिये मैं इसके शीर्षक में से 'कुटावडे' शब्द को संशोधित कर 'पिटाई' कर रहा हूँ ।
पिटाई तो नहीं लेकिन कभी-कभी पिटाई अथवा घर वालों की नाराज़गी का डर ज़रूर बच्चों को गलत कार्यों से रोक देता है...
जवाब देंहटाएंAapki bimar parichita ke liye kuchh shabd :
जवाब देंहटाएंNice post.
भारतीय आयुर्वेदाचार्यों ने इस संबंध में बेहतरीन उसूल दिए हैं:
मिसाल के तौर पर उन्होंने कहा है कि
1. हितभुक 2. मितभुक 3. ऋतभुक
अर्थात हितकारी खाओ, कम खाओ और ऋतु के अनुकूल खाओ।
हमें अपने महान पूर्वजों की ज्ञान संपदा से लाभ उठाना चाहिए।
आज आदमी बीमार नहीं है र्बिल्क ‘फ़ूड प्रूविंग‘ का शिकार है-Dr. Anwer Jamal
जब पिटते थे तब बहुत बुरा लगता था और इस परम्परा पर गुस्सा भी बहुत आता था। लेकिन अब जब पीटने का मौका नहीं मिलता तो लगता है कि कुछ छूट गया। हाय हमारी रेगिंग हो गयी और हम किसी की ले नहीं पाए? इस पीढी के बच्चे ढीट जरूर हो गए है लेकिन पीटना कतई विकल्प नहीं है। असल में हमने पीटने को त्यागकर डांटना भी बन्द कर दिया, यहाँ तक की उसे टोकना भी बन्द कर दिया और ऊपर से इतना लाड़-दुलार की बच्चा तो बिगडेगा ही ना।
जवाब देंहटाएंआपसे पूरी तरह से सहमत हूँ, समय समय पर पिटाई (डर) जरूरी है
जवाब देंहटाएंबिलकुल आपसे सहमत हूँ। बच्चों को पिता या माँ का डर होना जरूरी है। शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंWell written... I agree with your points.
जवाब देंहटाएंNice read !!
Pitne ka dar bachpan me tha aur na pitne ka jawani mein...jab yah pata chala ki ma baap ki patayee pyar ki barish hai to man tarasne laga...spare the ros spoil the child suna hai...par get the rod and get drenched in love shayad mahsoos kiya hai...
जवाब देंहटाएंVicharotezzak lekh suresh ji...dhanyavaad.
मुझे भी ऐसा लगता है की बड़ों की दाँत या पिटाई अगर किसी अकचे बात को समझाने के लिए है तो वो ज़रूर काम आती है ... मुझे इसमें कोई बुराई नज़र नही आती ...
जवाब देंहटाएंये खानदानी गुंडागर्दी आखिर कब तक चले गी...?
जवाब देंहटाएंआज की पीढ़ी ...से तो यही सुनने की उम्मीद रखो !
बाकि आप और हम जैसे तो ऐसे लेख ही लिख कर समझा सकते हैं .आप की भी अच्छी कोशिश !
शुभकामनाएँ !
मेरे माता-पिता का सूत्र वाक्य था कि डर या लिहाज़ आँख का होना चाहिये न कि भय अथवा मार का ..... इसलिये हम भाई -बहन में से किसी की भी कभी पिटाई नहीं हुई और इसी वंश-परम्परा का निर्वहन हम सबने भी किया .... अपने बच्चों को सिर्फ़ समझाया और - नज़र न लगे - कोई दुष्परिणाम भी सामने नहीं आया ....सादर !
जवाब देंहटाएंइस महत्वपूर्ण सामयिक चिंतन के लिए बधाई।
जवाब देंहटाएं---------
हॉट मॉडल केली ब्रुक...
नदी : एक चिंतन यात्रा।
आपका विचार सही है.
जवाब देंहटाएंबच्चों के सही बहुमुखी विकास के लिए प्यार और डांट-डपट दोनों जरूरी है.
यदि गलत करें तो टोकना चाहिए साथ ही गलत सही क्या है , ये अवश्य बताना चाहिए। बच्चों को मारना थोडा अनुचित लगता है।
जवाब देंहटाएंbhut sunder prstuti
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