मेरी सास अस्पताल में भर्ती थीं । उपचार के उन सभी चरण को पार कर चुकने के बाद जो डाक्टर ने उन्हें भर्ती करते समय आवश्यक बताये थे, अब आगे क्या करना है डाक्टर से ये समझने की जिम्मेदारी परिवार ने मुझे सौंपी । डाक्टर कहाँ से आते हैं और अस्पताल में उनके बैठने का ठिकाना कौनसा है ये कोई नहीं जानता था, लिहाजा सम्पर्क का एकमात्र माध्यम जब वो राउन्ड पर आवें तभी उनसे बात कर सकने का था । नियत समय पर मैं अस्पताल के वार्ड में जाकर बैठ गया और कोई काम नहीं होने के कारण पास के पलंग पर बैठे लडके के दो पन्ने के अखबार में से फाल्तू पडा एक पन्ना उठाकर मैं भी पढने लगा । तभी कनखियों से जो बात मेरे देखने में आई वो क्या थी ? वो पेशेन्ट महोदय जो उस अटेन्डर लडके के साथ थे और जिनके पास शेष सारा अखबार पडा हुआ था, उन्होंने उसे उठाया और अपने तकिये के नीचे रखकर वापस लेट गये, क्यों ? मेरा अखबार दूसरा कोई कैसे पढले, उसके अक्षर घिस जाएँगे तो ?
बसों में यात्रा के दौरान जब भी कोई स्टेशन आता है और किसी यात्री
के पास बैठा यात्री अपनी यात्रा समाप्त कर सामान के साथ उतरता है तो पास बैठा
यात्री तत्काल अपना बेग उसकी सीट पर रखकर उस सीट के प्रति अनजानापन दिखाते बैठ
जाता है । अब वहाँ से चढने वाला यात्री जब उससे उस सीट के बारे में पूछता है तो
उसका उत्तर यही रहता है कि यहाँ कोई बैठा है और वो अभी आने वाला है । वो यात्री उस
सीट परसे तब तक अपना कब्जा नहीं छोडता जब तक कि बस पूरी पेक न हो जावे और बचे यात्री
खडे-खडे यात्रा की स्थिति में न आ जावें । अलबत्ता इस दरम्यान यदि कोई अकेली
सुन्दर सी दिखाई देने वाली महिला यात्री उससे उस सीट के बारे में पूछे तो फौरन वो
अपना बेग हटाकर उस महिला को बैठा लेगा, या कभी बिल्ली के भाग्य से
छिंका टूटने जैसी स्थिति में संयोगवश उसका कोई परिचित वहाँ आ जावे तो बात अलग है ।
इन दोनों उदाहरणों में जब हम विपरित स्थिति में होते हैं तो अलग
होते हैं और अधिकार वाली स्थिति में होते हैं तो अलग होते हैं । प्रसिद्ध फिल्म
अभिनेता धर्मेंन्द्र जब अपने संघर्षकाल में किसी प्रारम्भिक फिल्म की शूटिंग कर
रहे थे तो फिल्म का डायरेक्टर बात-बेबात अपनी हर बात धर्मेन्द्र को डांटते हुए ही
बता और समझा रहा था । शोले की सुप्रसिद्ध मौसी लीला मिश्रा भी उस फिल्म की किसी
भूमिका में वहीं मौजूद थी । जब उसने बार-बार डायरेक्टर के धर्मेन्द्र के प्रति
बदमिजाजी के तेवर देखे तो यह कहते हुए उस डायरेक्टर की वहीं लू उतार दी कि क्यों
रे भैया अभी तेरे सामने दिलीप कुमार काम कर रहा होता तो तू खडे-खडे दुम हिलाता
दिखता और ये लडका नया है तो तू बार-बार इसपे हावी होकर अपनी डायरेक्टरी झाड रहा है
। लीला मिश्रा तब भी सीनियर थी लिहाजा उस डायरेक्टर की उनपे हावी होने की हिम्मत
नहीं थी । उनकी डांट खाने के बाद वो धर्मेंन्द्र से भी सलीके से ही पेश आया ।
अभी समाचार पत्रों में एक खबर चल रही है- एक मजिस्ट्रेट महोदय अपनी
स्वयं की शादी में लडकी वालों से सगाई से लगाकर बरात आने तक के रस्मो-रिवाज की
पूर्ति में दो-चार लाख का माल ले चुकने व वधू पक्ष के शादी की समस्त तैयारियों के
चार-पांच लाख रुपये खर्च करवा चुकने के बाद फेरे के पूर्व इस बात पर अड गये कि एक
लाख रुपये नगद और एक मारुति कार पहले मुझे और दो उसके बाद ही ये शादी हो पावेगी ।
शादी के प्रारम्भिक चरण में वे महाशय कंकू-कन्या वाली आदर्शवादिता की बात कर रहे
थे । अचानक सामने आई इस मांग से हतप्रभ लडकी वाले इस स्थिति में नहीं थे कि ये
मांग भी पूरी कर पाते लिहाजा उनकी इस मांग का विरोध होना था, हुआ. और मजिस्ट्रेट महोदय
वहाँ अच्छी-खासी तोडफोड करके गायब हो गये जो अभी फरार हैं । यदि उनकी कोर्ट में
इसमें का कोई प्रकरण आता तो वे मजिस्ट्रेट महोदय वहाँ तब क्या होते ?
उदाहरण एक नहीं अनेक हैं जहाँ हम सार्वजनिक तौर पर अलग
दिखते हैं लेकिन निजी जीवन में बिल्कुल अलग । वो नेतागण जो सामूहिक विवाह समारोहों में इस प्रथा को मितव्ययता के
पक्ष में और दिखावे के विरोध में वर्तमान समय की अनिवार्य आवश्यकता बताते हुए मंच
पर जोर-शोर से भाषण देते दिखते हैं, अपने पुत्र या पुत्री की शादी
में उनका आचरण तत्काल बदल जाता है और वे अच्छे से अच्छे रईस से भी बढकर अनाप-शनाप खर्चों का अनावश्यक दिखावा खुद के घर की शादियों
में करते नजर आते हैं ।
आखिर क्यों हम सभी के
सार्वजनिक जीवन की सामान्य शैली वैसी नहीं हो पाती जैसी हम अपने समाज या
समूह के बीच निरन्तर दिखाते रहने की कोशिश में लगे
रहते हैं ? क्या कथनी और करनी के लगातार बढते दिख रहे जीवनचर्या
के इन सामान्य तौर-तरीकों में समानता लाकर
हम अपनी जिन्दगी सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय के अधिक सहज तरीके से नहीं जी
सकते ?
"यदि आप इस ब्लाग जगत में सीनियर हैं और हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिये सार्वजनिक तौर पर अपने वक्तव्यों के द्वारा अधिक से अधिक नये लेखकों को आमन्त्रित करने के लेखों में दिखाई देते हैं व इस आधार पर जो समर्थन अनुसरणकर्ता के रुप में औऱ अपने उन लेखों पर टिप्पणियों के रुप में आप पाते हैं क्या व्यक्तिगत तौर पर भी किसी नये लेखाकार की उसके किसी प्रयास पर टिप्पणी के रुप में या अनुसरणकर्ता के रुप में वैसी ही हौसला आफजाई आप कर पाते हैं ?"
जवाब देंहटाएंसर जी, मैं हाजिर हूँ और निष्कर्ष वाली बात कहूंगा कि आंशिक तौर पर हम हिन्दुस्तानियों को सुधरने में अभी १०० साल और लगेंगे ( पूर्णतया तो शायद ही कभी सुधरें )
सर जी, ये ब्लागजगत तो अन्त में अतिरिक्त उदाहरण के रुप में ही है । अलबत्ता आपकी ये बात सही है कि हम हिन्दुस्तानियों को सुधरने में अभी १०० साल और लगेंगे (वैसे तो शायद हम नहीं सुधरेंगे)
जवाब देंहटाएंहमको सुधरने में वर्षों कि गिनतियाँ समाप्त हो जाएँगी
जवाब देंहटाएंनिर्लिप्त निस्वार्थ बनना अति कठिन कार्य है, पर हमें कोशीशें अवश्य करनी चाहिए।
जवाब देंहटाएंकोशिशे जारी रखें ... शुभकामना ...
जवाब देंहटाएंजी हां, हम ऐसे ही हैं, हमारी कथनी और करनी में हमेशा फ़र्क़ होता ही है।
जवाब देंहटाएंआचरण सबका अलग अलग होता है ....और यह भी सही है की घर में कुछ और बाहर कुछ होता है ...लेकिन यह कह कर की हम सुधरने वाले नहीं ...अपनी ज़िम्मेदारी से भागना जैसा है ....विचारणीय पोस्ट
जवाब देंहटाएंसंगीता जी से पूर्णत्: सहमति तथा सुशील जी ने जो कहा वह भी कि हम प्राय: दो तरह से जीवन जिया करते हैं, पर यह किसी देश या देश वासी का स्वभाव नही वरन् सामाजिक मनुष्य की साधारण व्यवस्था है, जो वह अपने समाजिक हित के लिये करता है,समाज में जो चल रहा है, उसे बद्लने का पहला प्रयास स्व्यं को बदलना है, सुशील जी का धन्यवाद जो हमारे ब्लाग पर भी उन्होंने अपनी राय दी और उत्साहवर्धन किया। हम 100 वर्ष में शत प्रतिशत ना बद्लें पर 10वर्षों में 100अच्छे लोगों से मिलकर 10प्रतिशत तो बदलेंगे।
जवाब देंहटाएंdprabhakarsblog.blogspot.com
अंतिम पैरा इस पोस्ट के साथ न लिखते तो अधिक अच्छा होता।
जवाब देंहटाएं....हम ऐसे ही हैं जैसा आपने लिखा...हमारे में सुधार की भी पूरी संभावना है क्योंकि आपकी पोस्ट अच्छी लगती है।
जी, अब मेरे विचार से पोस्ट अधिक वजनी हो गया है।..आभार।
जवाब देंहटाएंशायद हम ऐसे नहीं थे...
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार
आपके अपने ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है
http://arvindjangid.blogspot.com/
जी हाँ इसीलिए कहा गया है हाथी के दाँत खाने के और होते हैं और दिखाने के और्………………सब दोगला चरित्र जीते हैं जब अपने पर आती है तो कुछ और ही ख्याल होते हैं और जब दूसरे के साथ हो तो कुछ और ………।यही दुनिया की रीत है और ये आसानी से बदलने वाली नही है……………कलयुग इसीलिये तो है वरना सतयुग ना कहलाता।
जवाब देंहटाएंकथनी और करनी के बीच की खाई को पाटने की आवश्यकता है !
जवाब देंहटाएंविचारपूर्ण आलेख!
आपके संस्मरण बहुत ही प्रेरक हैं!
जवाब देंहटाएंआप की रचना तो प्रेरक है, परन्तु लोग दूसरों को सुधरने के लिए ही बोलतें हैं, खुद को नहीं |
जवाब देंहटाएंये संसार हमीं से बना है दूसरों को छोंड कर अगर हम अपने आप को सुधारें तो देश क्या, पूरा संसार सुधर जायेगा |
बहुत सुन्दर रचना, बहुत - बहुत शुभकामना
"जागरूक और आज के समाज के लिए एक प्रश्न भी"
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें !!!
कथनी और करनी का अंतर ना जाने क्यों हमेशा से बना रहा है.....
जवाब देंहटाएंसार्थक सन्देश .....
... saarthak abhivyakti !!!
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग "एक्टिवे लाइफ" पर आने के लिए दिल से धन्यवाद ...
जवाब देंहटाएंआपका विशेष रूप धन्यवाद
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