पिछले सप्ताह निहायत सौम्य प्रवृत्ति के मेरे बडे पुत्र ने सुबह के भोजन के स्वाद व वेरायटी के मसले पर असंतोष जाहिर किया । भोजन मैं और मेरी पत्नी भी कर रहे थे और हमें उसमें ऐसी कोई कमी नजर नहीं आ रही थी । दूसरे दिन वही पुत्र सुबह लगभग 10-30 बजे के बाद तक सोकर उठा और जल्दी-जल्दी फ्रेश होकर काम पर जाने के लिये तैयार होकर निकलते दिखा । पत्नी व बहू ने खाना खाने को कहा तो पुत्र ने फिर उसी असंतुष्ट मुद्रा में रोष व्यक्त करते हुए खाना खाने से मना कर दिया । इतनी देर तक उसका बिस्तर छोडना मुझे अच्छा नहीं लगने के कारण मैंने बीच में बोल दिया कि नहीं खाना है तो मत खाने दो । न बाजार से सब्जी-भाजी समय पर सुबह लेने जाना और न ही अपनी रुचि खाना बनने के पहले बताना और बाद में मीनमेख निकालना । "नहीं खाना है तो मत खाने दो" मात्र मेरे कहने का परिणाम यह हुआ कि अगले तीन दिनों तक उसने घर में खाना नहीं खाया । जब भी घर आया घोर असंतुष्ट व नाराज ही दिखा, जबकि मैं पूर्व में ही बता रहा हूँ कि निहायत सौम्य प्रवृत्ति का पुत्र । यकीनन यह उसका स्वभाव कभी नहीं रहा । फिर ?
इसका जबाब मिला कल के समाचार पत्र
में । इसके मुताबिक कुछ आक्रामक घटनाओं की बानगी देखें-
1.
अंडे के ठेले पर आमलेट खाता एक
युवक अपने मोबाईल को फुल वाल्यूम पर रखकर गाने भी सुन रहा था । पास खडे दो-तीन
युवकों को बात करने में शायद असुविधा हो रही थी । उन्होंने उस युवक से मोबाईल का
वाल्यूम कम करने को कहा जिसे अपनी धुन में उस युवक ने अनसुना कर दिया । बस, उन युवकों को इतना गुस्सा आया कि
उन्होंने वहीं ठेले पर से डंडा उठाकर उस युवक के सिर पर इतनी जोर से मारा कि गाने
सुनते हुए आमलेट खा रहे उस युवक की इहलीला समाप्त हो गई ।
2. सब्जी की दुकान पर सब्जी खरीदने पहुँचा एक व्यक्ति
आदतन हर सब्जी उठा-उठाकर चखने की मुद्रा में खाता भी जा रहा था । दुकानदार ने जब
उसे इसके लिये मना किया तो वह दुकानदार से झगडा करने लगा । देखते ही देखते वह झगडा
इतना बढ गया कि सब्जी चखने वाले व्यक्ति ने दुकान से चाकू उठाकर दुकानदार के पेट
में भौंक दिया और सब्जी वाले का वहीं काम तमाम हो गया ।
3. ट्रेफिक पुलिस के
सिपाही ने एक रिक्शे के पहिये की इसलिये हवा निकाल दी कि वह मना करने के बावजूद
बार-बार वहीं लाकर रिक्शा खडा कर रहा था, बस
इतने पर उस रिक्शे वाले को इतना गुस्सा आया कि उसने उस सुए को जिससे सिपाही ने
उसके रिक्शे कि हवा निकाली थी उस सिपाही से छिनकर उसके पेट में घुसेड दिया और
अस्पताल ले जाने तक उस सिपाही की मृत्यु हो गई ।
इन सभी उदाहरणों में कहीं कोई दुश्मनी या बदला
लेने की कोई भावना नहीं,
यह सिर्फ उस तात्कालिक आक्रोश की अभिव्यक्ति
है जिसमें आज का व्यक्ति जी रहा है । निरन्तर बढती मंहगाई, सामान्य जरुरतों की पूर्ति के साथ ही अपने स्टेटस को
बनाये रखने हेतु अधिक से अधिक कमाने की बाध्यता, हर शहर में यत्र-तत्र ट्राफिक जाम की मजबूरी और अधिक
से अधिक घण्टे प्रयास करने के बावजूद भी आवश्यकताओं के पूरे न हो पाने से उपजा
तनाव, निराशा और उपर से मौसम के उग्र बदलाव के साथ ही कुछ
समय टीवी,
इंटरनेट जैसे माध्यमों पर गुजरने के कारण समय
पर सोना व नींद का पूरा न हो पाना । ये सब कारण मिलकर लोगों को उस जगह लाकर खडा कर
रहे हैं जहाँ आदमी न चाहते हुए भी इस प्रकार अपने आक्रोश को अचानक सामने वाले पर
उंडेलते दिख रहा है ।
चूंकि समस्या किसी व्यक्ति विशेष की न होकर जिस प्रकार बडे पैमाने पर सार्वजनिक रुप में दिख रही है क्या इसका कोई आसान उपचार संभव है ?
इस समय के परिवेश को देखते हुए सिर्फ दो तरह के व्यक्ति ही सामान्य रह सकते हैं,
जवाब देंहटाएं१. जो बहुत समझदार हों और समझते हों कि संतोषी सदा सुखी
२. जो बिल्कुल ही वेवकूफ हो, उसके लिए ये रु. पैसे कोई मायने ना रखते हों
मेरे ऊपर भी काफी प्रेशर रहता है, एक साथ ३-४ कार्य सँभालने होते हैं कभी कभी ना चाहते हुए भी झुन्झुलाहाट हो ही जाती है - कोई उपचार समझ में नहीं आता, यदि पता होता तो सबसे पहले अपना ही करता :)
जैसा अन-वैसा मन ! महंगाई और उस पर सब नकली,मिलावटी...?
जवाब देंहटाएंयही होगा ...???
तात्कालिक आवेश कुछ घंटों के बाद ही बचपना सा लगने लगता है।
जवाब देंहटाएंभौतिक चकाचौंध के इस युग में इंसान की भौतिक लालसाएं कम होने का नाम नही ले रही हैं . फलस्वरूप हर किसी के जीवन में तनाव बढ़ रहा है. समाधान भी सबको मिलकर सोचना होगा . आपने एक गंभीर समस्या की ओर सबका ध्यान खींचा है. आभार .
जवाब देंहटाएंतेते पांव पसारिये जेती लम्बी सॊर.... यह बाते बचपन मे इतनी बार सुनी की अब इस की आदत पड गई हे, मै यहां अकेला कमाता हुं, लेकिन भगवान की दया से बहुत सुखी हुं, जब कि मेरे अन्य मित्र ओर उन की बीबीयां सब कमाते हे, लेकिन सब दुखी... हमे अपनी जरुरतो को अपनी आमदनी के दायरे मे रखना चाहिये दुसरो को देखना हे तो अपने से छॊटो को देखॊ... वो केसे गुजारा करते हे, इच्छाओ पर हमे काबू रखना चाहिये, दुसरो को देख कर हम भी वोही नही करना चाहिये, मै अपने बच्चो को भी यही सीख दे रहा हुं, ताकि वो आगे जा कर तंग ना हो, ज्यादा कमा कर हम किस सुख को पाना चाहते हे? वो सुख तो आज भी हमारे पास हे, लेकिन हम उसे देख नही पाते, क्योकि हम हमेशा अपने से उच्चे को देखते हे... सब की जड हे नकल ओर हम भी दुसरो की नकल करते हे.....अगर हम सब्र करे तो सच मे सुखी रहे.
जवाब देंहटाएंयही हो चली है आज की दुनिया...जरा मेडिटेशन वगैरह करे, तो लाभ होगा.
जवाब देंहटाएंघर में छोटे बच्चों को व्यावहारिकता की शिक्षा देकर कुछ योगदान की शुरुआत कर सकते हैं ! शुभकामनायें भाई जी !
जवाब देंहटाएंसब्र करे .....
जवाब देंहटाएं@ RAJ BHATIA JI NE SAB KUCH KEH DIYA CHAND SHABDO ME
जवाब देंहटाएंतेते पांव पसारिये जेती लम्बी सॊर
आपने सही कहा... छोटी-छोटी नाकामयाबियाँ भी इस तरह की समस्या को बढ़ातीं हैं... आज के युग में हम चाहते हैं की हर काम हमारी मर्ज़ी से हो.... इसी से फ्रस्टेशन बढ़ जाती है.
जवाब देंहटाएंबेटे राजा के लिए घर में स्प्राइट मंगा कर रखिए...
जवाब देंहटाएंजय हिंद...
भाई खुशदीप जी,
जवाब देंहटाएंमैंने तो स्प्राईट मंगवाया था मगर वो बोला "आई वांट डू" (Due)
धर्म के चार स्तंभों में से एक सहनशीलता भी है, यह बात आज कल के व्यक्तियों के लिए कोई मायने नहीं रखती, परन्तु इसका भुगतान सम्पूर्ण समाज को करना पड़ता है| इसकी सबसे ज़यादा चोट परिवार को लगती है...
जवाब देंहटाएंबाकलीवाल जी,
जवाब देंहटाएंआपने जितने भी उदाहरण दिए हैं वो सब क्रोध के पहला प्रकार "अचानक क्रोध" में आता है ... इसके अलावा भी क्रोध के दो और प्रकार हैं जिसके बारे में आप मेरे पोस्ट पर पढ़ सकते हैं ...
धन्यवाद !
laat se bhoot bahgte hain...yahan sab dabang pravritti ke log hain so duare ke sentiments ka khyaal karna unhein achcha nahin lagata...har koi jaise guse mein ghoom raha hai aur sara sa khoncha laga to gubbara phata...
जवाब देंहटाएंजीवन में हर चीज़ बराबर अहमीयतत रखती है ... ये बार आज नही बहुत समय बाद समझती है युवा पीडी ... और तब तक देर हो जाती है ...
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