29.6.11

एक थे शंभू महादेव राव


          वर्षों पूर्व एक फिल्म आई थी नाम था आंसू बन गये फूल. फिल्म के कलाकारों में हीरो देव मुखर्जी थे जिनका रोल एक उद्दंड कालेज छात्र का था, हीरोईन संभवतः तनूजा थी और उसी कालेज के आदर्शवादी प्रिंसीपल की भूमिका निभा रहे थे दादामुनि अशोक कुमार । इसी फिल्म का एक विशेष किरदार अत्यंत खूंखार गुंडे की भूमिका में शंभू महादेवराव नामक पात्र का था जिसके लिये फिल्म के निर्माता निर्देशक ने हिंदी फिल्मों के मशहूर खलनायक प्राण का चुनाव किया था । पूरी फिल्म किसी सफल बंगाली फिल्म का रीमेक ही थी, हिन्दी संस्करण के लिये भी पूरी टीम करीब-करीब बंगाल से जुडे कलाकारों की ही थी जिसमें प्राण जैसे इक्के-दुक्के कलाकार ही ऐसे रहे होंगे जिनका शायद बंगाली पृष्ठभूमि से कोई जुडाव नहीं रहा हो ।

          पूर्व की सफल बंगाली फिल्म जिसके रीमेक में यह फिल्म हिन्दी में बन रही थी इसके बंगाली संस्करण में शंभू महादेवराव का किरदार जिस बंगाली अभिनेता ने निभाया था उसका अभिनय ही उस फिल्म का सबसे सशक्त पक्ष रहा था अतः निर्माता-निर्देशक चाह रहे थे कि प्राण कम से कम एक बार उस बंगाली फिल्म में उस कलाकार को शंभू महादेवराव के रोल में अभिनय करते देख लें जिससे कि हिन्दी संस्करण में इस पात्र की भूमिका के साथ अभिनेता प्राण पूरा न्याय कर सकें । उनके सामूहिक आग्रह पर प्राण ने बहुत ध्यान से सोचने के बाद भी विन्रमतापूर्वक हिन्दी फिल्म के बनने से पहले उस बंगाली संस्करण की फिल्म देखने का उनका अनुरोध यह कहते हुए अस्वीकार कर दिया कि जब आपने मुझे यह रोल दिया है तो मुझे मेरे तरीके से ही इसे करने दीजिये । निर्माता-निर्देशक ने अभिनेता प्राण के इस अनुरोध को स्वीकार कर लिया । हिन्दी फिल्म आंसू बन गये फूल बनी और उस फिल्म का जो सबसे सशक्त पक्ष सामने आया वह प्राण का यही शंभू महादेवराव वाला किरदार ही रहा जिसके लिये इस फिल्म की समूची टीम ने एकमत से यह स्वीकार किया कि प्राण ने जो भूमिका इस पात्र के रुप में इस फिल्म में अभिनीत की उसके समक्ष बंगाली फिल्म के उस कलाकार का अभिनय जो इसी किरदार का उस बंगाली कलाकार ने निभाया था वह प्राण के अभिनय की उत्कृष्टता से बहुत पीछे छूट गया था ।
 
          यहाँ इस घटना का उल्लेख क्यूँ ? दरअसल हम जीवन में जिस भी क्षेत्र में जाते हैं वहाँ उस क्षेत्र के कुछ सुस्थापित सफल नाम ऐसे भी हमारे सामने आते हैं जो हमारे लिये किसी न किसी रुप में प्रेरणास्तोत्र  बन जाते हैं । वहाँ कभी ऐसा भी लगता है कि यदि हम इनकी कार्यशैली का अनुसरण करें तो हमें अधिक तेजी से सफलता मिल सकती है जबकि उनका अनुसरण कर लेने के प्रयास में हम उन जैसे तो बन नहीं पाते बल्कि अपनी स्वयं की मौलिकता और गंवा बैठते हैं । अतः जिन्दगी में हमारा कार्यक्षेत्र चाहे जो रहे हम अपने उन प्रेरणास्तोत्रों से प्रेरणा भले ही लें किन्तु स्वयं की समझ-बूझ के साथ यदि अपनी मौलिक शैली को ही कायम रखते हुए अपनी ओर से श्रेष्ठतम परिणाम देने के प्रयास के साथ ही यदि हम अपना कार्य करते रहें तो निश्चय ही किसी की नकल के बगैर भी उस क्षेत्र में अपनी एक अलग पहचान अधिक आसानी से बनाई जा सकती है ।

          वास्तविक जीवन में कई बार ऐसे अनुभव स्वयं भी देखने में आते हैं और इस फिल्म की भूमिका के माध्यम से अभिनेता प्राण का ये उदाहरण भी इसी तरीके को अधिक अहमियत देता दिखता  है ।

20.6.11

कितनी सिक्योर्ड सिक्युरिटी ?

           तीन दिन पूर्व बेटी की ननंद की शादी जो इन्दौर में ही एक गार्डन में आयोजित थी उसमें मौजूदगी के दौरान पेश आया वाकया । विवाह पक्ष के लोगों ने सुरक्षा के नजरिये से गार्डन में प्रोफेशनल  सिक्युरिटी के द्वारा लगभग चार सुरक्षा गार्ड विभिन्न स्थानों पर तैनात करवा रखे थे और उसके बावजूद भी दूसरी मंजिल के जिस कमरे में दुल्हन व उसके परिवार की अन्य जोखम रखी थी वहाँ ताला लगाकर अपने घरेलू नौकर जो 13-14 वर्ष का लडका ही था उसे उस ताला लगे हुए कमरे के बाहर ताले की सुरक्षा के लिहाज से तैनात किया हुआ था । रिसेप्शन चल रहा था जिसमें सामान्य तौर पर मेचिंग वेशभूषा पहने रहने के कारण महिलाएँ स्वर्णाभूषणों की बनिस्बत आर्टिफिशल गहने पहनना अधिक पसन्द करती हैं और अधिकांश घरेलू मेहमानों के आभूषण प्रायः उनके लगेज मे ही रखे होते हैं, परिवार का प्रत्येक सदस्य पूरी तरह से व्यस्त होता है तब वहीं मौजूद उन चारों सुरक्षागार्ड का इन्चार्ज दूसरी मंजिल पर घूम-घूमकर हर बन्द दरवाजे को खटखटाकर पूछता घूम रहा था कमरे में कोई है क्या ? घूमते-घूमते वही गार्ड दुल्हन व उसके परिजन के ताला लगे कमरे के बाहर आकर उस घरेलू नौकर से बोला - इस कमरे का ताला खोलो, लडके ने जब कारण पूछा तो वह गार्ड बोला मुझे इसे चेक करना है । चाबी तो उस लडके के पास थी नहीं लिहाजा वह नीचे जाकर अपने मालिक से चाबी ले आया और कमरा खोल दिया ।

नीचे लिंक पर क्लिक कर ये उपयोगी जानकारी भी देखें... धन्यवाद.

           इधर गृहस्वामी ने यह सोचते कि नौकर उस कमरे की चाबी क्यों लेकर गया ? उन्होंने अपने एक साथी के साथ उपर जाकर देखा तो वही सिक्यूरिटी गार्ड उस कमरे में मौजूद प्रत्येक अटैची के ताले तौल रहा था । जब उन्होंने उससे वहाँ की मौजूदगी का कारण पूछा तो वह बगले झांकने लगा । घर के लोगों ने उनकी एजेन्सी को खबर देकर वहाँ से किसी की आने तक उस गार्ड की जितनी भी पिटाई-पूजा की वह मार भी बगेर प्रतिरोध के ही उसने खाई । उस माहौल में वहाँ मौजूद हर सदस्य बखूबी यह समझ रहा था कि उस समय यदि घर के सदस्य चौकन्ने न होते तो उस सुरक्षागार्ड की ही कारगुजारी से उस विवाह में ऐसी चोरी तो तय हो ही गई थी जिसमें दुल्हन के पास मौजूद दोनों पक्षों के आभूषणों के साथ ही वधू पक्ष के वैवाहिक परिवार की अधिकांश तैयारियों पर भी ये सुरक्षागार्ड ही पानी फेर जाते ।

       उस समय तो ये घटना एक सामान्य घटना के रुप में सामने से गुजर गई किन्तु आज टी- वी. पर एक विज्ञापन देखकर जिसमें बैंक में झोला लेकर आया एक नकाबपोश लूटेरा रिवाल्वर दिखाकर केशियर के पास मौजूद सारा केश झोले में भरवाकर रिवाल्वर दिखाते हुए भाग जाता है, उसके जाने के बाद जब अन्दर से बैंककर्मी सिक्यूरिटी के नाम से आवाज लगाते हैं तो उसी हुलिये में कंधे पर टंगे उसी झोले के साथ यस सर के रुप में सेल्यूट मारते हुए वहीं का सिक्यूरिटी गार्ड सामने आ खडा होता है । इस विज्ञापन के सामने आने पर न सिर्फ इस शादी की ये घटना फिर से जेहन में आ गई बल्कि इसके साथ ही कुछ समय पूर्व तक शहर की घनी आबादी से खासी दूर ए. बी. रोड पर मौजूद  ICICI बैंक की मुख्य शाखा से बडी रकम निकालकर अपने घर या दुकान-दफ्तर जाने वाले अधिकांश नागरिकों को रास्ते में लूट का शिकार होना पडा था जिसमें बडे नियोजित तरीके से सिर्फ उस व्यक्ति के पास मौजूद केश रकम पर धावा बोला जा रहा था ।
      
         बार-बार एक ही तरीके से बैंक से रकम लेकर निकलते ग्राहकों की रास्ते में रकम लूट लेने के मामले जो अब बहुत समय से बन्द हो गये हैं उनमें भी तब अन्तिम निष्कर्ष यही सामने आया था कि वहाँ मौजूद कोई सिक्यूरिटी गार्ड इस तरह बडी रकम लेकर निकलने वाले ग्राहकों के बारे में जानकारी मोबाईल के माध्यम से बाहर भेज रहा था और लोग योजनाबद्ध तरीके से इनके इस षडयंत्र का शिकार होकर अपनी मोटी रकम से हाथ धो रहे थे वह खबरें भी  क्रमानुसार दिमागी चलचित्र में बारी-बारी सामने आने लगी ।
  
          ऐसे में यह चिंतन तो बनता ही है कि शादी-विवाह व जीवन के अन्य अनेकों उल्लेखित अवसरों पर हममें से लगभग प्रत्येक व्यक्ति व परिवार इन्हीं एजेन्सियों से बुलवाये गये सुरक्षा गार्ड्स को अपनी सम्पत्ति की सुरक्षा में लगाकर स्वयं को निश्चिंत महसूस कर लेते हैं क्या इनकी सुरक्षा में लोगों की सम्पत्ति वास्तव में सुरक्षित मानना चाहिये

 
          
जबकि सोच का यही सिलसिला यदि और भी पीछे जावे तो भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी की वो हत्या भी सामने आ जाती है जो उनके उस सुरक्षाकर्मी ने ही की थी जिसके उपर उनके जीवन को बाहरी आक्रमणों से सुरक्षित रखने की सबसे अधिक जिम्मेदारी रही थी...!

15.6.11

बच्चों के सर्वांगीण विकास में माता-पिता की भूमिका...



          किसी भी दम्पत्ति के लिये उनके एक या अधिक बच्चे वैसे ही होते हैं जैसे दाम्पत्य के उपवन में उपजे सुन्दर व कोमल से फूल और आज के एक ओर कैरियर व दूसरी ओर मँहगाई की प्रधानता वाले युग में तो जहाँ माता-पिता प्रायः दूसरे बच्चे को जन्म देने के बारे में सोच भी नहीं पाते हों वहाँ बच्चे के लालन-पालन में प्यार, स्नेह व नरमदिली का प्रतिशत स्वमेव ही बढता चला जा रहा है, ऐसे में उनके प्रति मार-पिटाई की बात किसी भी आधुनिक सोच वाले पाठक के मन में सही लग ही नहीं सकती । मेरी पिछली पोस्ट "पिटाई से मुक्ति - वर्तमान पीढी का सुख" वास्तव में मैंने कुछ मनोरंजक शैली में लिखने की कोशिश की थी जिसका शायद अधिकांश पाठकों के अन्तर्मन में यह सन्देश गया कि मैं निर्ममता से बच्चों की मार-पिटाई के पक्ष में हूँ जबकि वास्तव में ऐसा बिल्कुल नहीं था शायद इसीलिये ये दूसरी पोस्ट करीब-करीब इसी विषय पर जन्म ले रही है ।

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          पीटने का अभिप्राय किसी सीमा तक हल्की-फुल्की या दिखावटी सजा से होता है, अब वे सभी लोग जो यह सोचते हैं कि हम बच्चों से संवाद बनाये रखकर व उन्हें सही-गलत का अन्तर बताते हुए उनका सर्वांगीण विकास कर सकते हैं, यह धारणा आधी या पौनी सच तो हो सकती है किन्तु पूरी सच कभी नहीं हो सकती क्योंकि यदि ये पूरी सच होती तो शायद पूर्व काल से यह कहावत जन्म ही नहीं ले पाती कि लातों के भूत बातों से नहीं मानते । 
  
          संभवतः बच्चों की तीसरे-चौथे वर्ष की नासमझ उम्र ऐसी होती है जहाँ बच्चा जिद्दी करके अपनी बात माता-पिता से मनवा लेना सीखना प्रारम्भ कर लेता है और जितनी छोटी उम्र उतनी ही छोटी उसकी जिद भरी फरमाईशें होती हैं जिनके लिये माता-पिता ही नहीं दादा-दादी व नाना-नानी जैसे निकटतम रिश्तेदार भी ये मानकर ही चलते हैं कि अभी तो नासमझ है धीरे-धीरे सब समझने लगेगा फिलहाल तो इसकी ये जरासी फरमाईश पूरी कर ही दो । जबकि बढती उम्र के साथ बच्चे को भी ये समझ में आता चलता है कि अब मुझे कौनसे तरीके से अपनी बात (जिसे हम जिद कह सकते हैं) मनवानी है । इधर माता-पिता की व्यस्तता व आमदनी भी बढ रही होती है नतीजा 99% अवसरों पर बच्चा इस जद्दोजहद में मानसिक रुप से अपने अभिभावकों से जीतता ही चला जाता है और जब यही आदत उम्र के मुताबिक बढती चलती है तो
  
          मैं ऐसे तीन लोगों को तो व्यक्तिगत रुप से जानता हूँ जिन्हें बच्चों के बचपन में इस नरमदिली से परिपूर्ण पालन-पोषण के कारण उनके युवावय में आने पर एक को पुत्र के दोस्तों के साथ संगीन अपराध कर फरार हो जाने के कारण लगभग 6 दिन पुलिस कस्टडी में रहना पडा, दूसरे को व्यापार में अपनी वह साख जिसे बनाने में उनकी जिन्दगी खप गई थी पुत्र के युवावय में आकर पिता के समानान्तर कुर्सी पर बैठने के बाद उनकी गैर मौजूदगी में ये सोचकर उटपटांग सौदे कर लेने के कारण कि हमारा तो अपना व्यवसाय है और हमें वे खर्च तो लग ही नहीं रहे हैं जो हमारे ग्राहकों को लग रहे हैं और मेरे द्वारा किये जाने वाले इस सौदे में मोटी आमदनी तो तय है जो अपने पिता से मांगे बगैर मेरे व्यक्तिगत उपयोग में आ सकेगी ऐसे सौदों में जो मोटे नुकसान उनके व्यापार पर आ गये उसकी भरपाई में पिता को मुंह-मांगे ब्याज पर बाजार से पैसे ले-लेकर लम्बे समय की जद्दोजहद के बाद अपनी साख बचानी पडी जिससे कुछ समय बाद अन्ततः उनका शीघ्र प्राणान्त भी हो गया । 

      तीसरे एक सज्जन जिन्होंने अपने पिता के जमाने में राजकुमारों जैसा पालन-पोषण पाया । पिता के मरणोपरान्त उनका व्यवसाय भी कुशलतापूर्वक संचालित कर अपनी पिता के जमाने की हैसियत को आगे भी बढाया किन्तु  स्वयं के पुत्र की दखलन्दाजी के बाद हुए करोडों के नुकसान ने न सिर्फ उनके पूरे परिवार को सडक पर ला दिया बल्कि पचास पार की उम्र में आने के बाद एक निर्जन से क्षेत्र में 8x10 की किराने की निहायत ही मामूली सी दुकान में बैठकर अपना आगे का जीवन व्यतीत करना पडा ।
  
          जैसा कि अभी हम अपने इर्द-गिर्द देख रहे हैं ये परिवारों में एक बच्चे का युग ही चल रहा है, और लगभग 20 वर्ष पूर्व जब बढती आबादी के विस्फोट को रोकने के लिये चीन ने एक बच्चे की नीति राष्ट्रीय स्तर पर घोषित की थी तब सरिता पत्रिका में मैंने एक बच्चे के दुष्परिणाम से सम्बन्धित एक लेख पढा था उसके मुताबिक जब परिवार में एक बच्चा होता है तो उसे सम्हालने वाले छः लोग हमेशा उसके इर्द-गिर्द रहते हैं दो माता-पिता, दो दादा-दादी और दो नाना-नानी । नतीजा बच्चे के मुँह खोलने के पहिले ही उसकी फरमाईश पूरी हो जाती है, अपने खिलौने व अन्य कोई वस्तु उसे किसी भाई-बहिन से शेअर नहीं करनी पडती, ये सभी पैरेन्ट्स मिलकर उसके प्रति अपने लाड-प्यार के चलते उसे स्वयं कोई निर्णय नहीं लेने देते और होश सम्हालने से लगाकर बडे हो जाने तक बगैर प्रयासों के सब-कुछ पाते चले जाने वाला वह बच्चा निर्णय लेने में अपरिपक्व और मेरा है कि भावना के साथ सामाजिक, पारिवारिक रुप से करीब-करीब स्वार्थी होता चला जाता है । अब ऐसे बच्चे उम्र के स्वनिर्णय लेने के दौर में आकर कितने परिपक्व निर्णय ले पाएंगे यह बात सहज ही समझी जा सकती है ।
  
          इसलिये प्रेम-प्यार, लाड-दुलार व बच्चों के प्रति स्नेह की भावनाओं की तमाम प्रबलता के बावजूद मेरी समझ में ये ध्यान रखना सदैव बच्चे के हित में ही साबित होता है कि हम उसमें जिद करने की भावना को बने जहाँ तक न पनपने दें । जिसके लिये हमें उसकी नासमझ उम्र से ही प्रयासरत होना पडेगा क्योंकि 20-22 वर्ष का हो चुकने पर तो उसका जैसा भी विकास  तब तक हो चुका होगा, उसमें किसी भी प्रकार के बदलाव की कल्पना भी बेमानी ही साबित होगी । इस सन्दर्भ में मुझे ड्रीम गर्ल, स्वप्नसुंदरी के रुप में देश-दुनिया में विख्यात सुप्रसिद्ध हीरोईन हेमा मालिनी का संस्मरण अनुकरणीय लगता है कि घूमने-फिरने के दौरान उनके बच्चों ने जब भी जिस चीज के लिये भी जिद की हेमा मालिनी ने संसाधनों की प्रचुरता के बावजूद भी कभी उनकी जिद पूरी करने के लिये अपनी दोनों बच्चियों को वह वस्तु नहीं दिलवाई । अलबत्ता दो दिन बाद स्वयं जाकर वह उसी वस्तु को अपनी बच्चियों को खरीदकर लाकर दे देती किन्तु फरमाईश के वक्त या जिद के बाल हथियार के वक्त तो उन्होंने वह वस्तु कभी भी खरीदकर बच्चियों को नहीं दी । निःसंदेह इससे जहाँ उनकी बच्चियों को उस वस्तु के लिये तरसना नहीं पडा वहीं उनमें जिद करके अपनी बात मनवा लेने की भावना भी कभी आगे नहीं बढ पाई ।
  
          एक डाकू के द्वारा डाकेजनी के दौरान स्वयं को पकड में आने से बचाव के प्रयास में एक व्यक्ति की हत्या हो गई । वह पकड में भी आ गया और अपराध सिद्ध हो जाने की स्थिति में उसे मृत्यु-दंड की सजा मिली । जज के यह पूछने पर कि क्या तुम्हें अपने बचाव में कुछ कहना है उस डाकू ने कहा कि मैं अपनी माँ से कान में कुछ कहना चाहता हूँ । कोर्ट की इजाजत मिलने पर माँ उसके पास गई और अपना कान उस डाकू पुत्र के मुँह के पास ले जाकर उसकी बात सुनने के लिये उसके मुँह के नजदीक माँ ने सटाया और देखते ही देखते उस डाकू पुत्र ने अपनी माँ के उस कान को दांतों से चबाकर लहूलुहान कर दिया । जज ने जब उससे पूछा कि तुमने ऐसा क्यों किया तो उस डाकू ने जवाब दिया कि मैं जब पहली बार स्कूल के अपने सहपाठी की पेन्सिल चुराकर घर लाया था तब इसने मुझे रोकने या सजा देने के बजाय उस पेन्सिल को घर में रख लेने दिया था । यदि ये उसी दिन मुझे उस पेन्सिल को चुराकर लाने के लिये दण्डित कर देती तो आज मुझे यह दिन नहीं देखना पडता । 
  
          तो बच्चों के किसी गलत आचरण को हम समय रहते सख्त व्यवहार के द्वारा यदि नहीं रोक पावें तो समय आने पर दुनिया तो दूर खुद बच्चे भी हमारी उस कमजोरी के लिये हमें ही जिम्मेदार ठहराएंगे । अतः मारना-पीटना भले ही हम आवश्यक न समझें किन्तु आवश्यकता के समय यदि हम उनके किसी अनुचित व्यवहार के प्रति उन्हें सख्ती से न रोक पावें और यह समझते रहें कि मैंने उसे समझा दिया है और आगे से सब ठीक हो जावेगा तब क्या आप जानते हैं कि उसे समझाने वाले उसके मित्र वर्ग में ऐसे लोग भी हैं जिनकी स्वार्थपरक समझाईश आपकी समझाईश से बच्चे के मन में उपर ही चलेगी । 
  
          इसलिये मारना भले ही गलत हो किन्तु बच्चे के समग्र विकास के लिये उसके प्रति कभी-कभी सख्ती का प्रदर्शन भी न कर पाना तो मेरी समझ में ऐसा ही है जैसे हम बगैर ब्रेक की कार में यात्रा कर रहे हों । बच्चा जैसे-जैसे बडा होता जावेगा बगैर ब्रेक के आपकी उस कार की गति उतनी ही बढती जावेगी और फिर वो हमें कहाँ ले जाकर भिडवा देगी और उसका फिर क्या परिणाम होगा इसकी सहज ही कल्पना भी की जा सकती है । निःसंदेह बच्चों को मारना गलत है किन्तु कभी अवसर आने पर पूरी सख्ती से उसे उसके किसी क्रिया-कलाप के लिये रोकना तो न सिर्फ उसके, स्वयं के और परिवार के बल्कि समाज के हित में भी आवश्यक हो ही जाता है । 
      
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      यहाँ बच्चे को सिर्फ ये समझ में आते रहना आवश्यक है कि मुझसे यदि दूसरी-तीसरी बार कुछ गलती हुई तो उसके लिये मुझे अपने माँ-पिता अथवा प्रशिक्षक के क्रोध का सामना करते हुए सजा भी भुगतना पड सकती है । यही एक भावना हमारे बच्चे के मन में उम्र के अनुसार विकसित होती रहे उसके व्यवस्थित विकास के लिये इतना तो मैं व्यक्तिगत रुप से आवश्यक मानता हूँ । बेशक मारना वो अंतिम ब्रह्मास्त्र हो सकता है जिसका प्रयोग बहुत-बहुत ही आवश्यक होने पर एकाध बार कभी किया जा सके क्योंकि बार-बार ब्रह्मास्त्र यदि चलाने की सोची भी जावे तो न सिर्फ वो ब्रह्मास्त्र भी बोथरा या बेअसर हो जावेगा बल्कि बच्चा भी ये सोचकर ढीठ होता चला जावेगा कि आप मार ही तो सकते होलो और मार लो । 

          अब यदि अपने बच्चे के दुनियावी विकास के प्रति मेरा ये नजरिया अब भी आपको गलत लगता हो तो फिर मैं यही कहूँगा कि समझ अपनी-अपनी । 
      

13.6.11

पिटाई से मुक्ति : वर्तमान बच्चों का सुख.

       एक पुरानी कहावत - पिता से पिटने के बाद पिता को सामान्य मूड में देखकर पुत्र ने हिम्मत जुटाकर पूछा - पापा, क्या आपके पापा भी आपको ऐसे ही पीटते थे ? हाँ बिल्कुल, पिता ने जवाब दिया । और उनके पापा पुत्र ने फिर पूछा ? वे तो मेरे पिताजी को मारते हुए बाथरुम में बन्द कर देते थे, पिता ने जवाब दिया । लेकिन तुम ये सब क्यों पूछ रहे हो इस बार पिता ने पुत्र से पूछा ? कुछ नहीं मैं तो यह जानना चाह रहा था कि ये खानदानी गुंडागर्दी आखिर कब तक चलेगी ? पुत्र ने कुछ मासूमियत से अपने पिता के प्रतिप्रश्न के उत्तर में जवाब दिया ।


          अब तो नई पीढी को अपने अभिभावकों की इस मार-पिटाई से मुक्ति मिल गई प्रतीत होती है । क्योंकि एक या दो बच्चों के इस युग में उनकी किसी भी गल्ति पर पिता उन्हें पीटने की सोच भी नहीं पाते और कभी भूल से भी उन्हें ये मालूम पड जावे कि उनके बच्चे को स्कूल में किसी शिक्षक ने हाथ भी लगाया तो समझो उस शिक्षक की शामत आना तय हो जाती है । वे दिन गये जब स्कूल में बच्चे को भर्ती करवाते समय पालक स्कूल के शिक्षक से बोलकर आते थे, माटसाब बच्चे को अच्छे से पढाना, सख्ती भी करना पडे तो चिंता मत करना, समझलो कि आज से इसकी हड्डी-हड्डी मेरी और चमडी-चमडी आपकी, और विद्यार्थी व शिक्षार्थी सभी एक ही सिद्धांत पर चला करते थे "छडी पडे छम्-छम, विद्या आवे धम्-धम", और विद्यार्थी को शिक्षा प्राप्ति के दौरान प्राइमरी से लगाकर सेकन्ड्री तक मुर्गा बनते, कान पकडकर उठक-बैठक लगाते, हथेली पर स्केल या रुल की मार खाते, बैंच पर खडे होते या फिर क्लास से निकाल दिये जाने की सजा झेलते-झेलते ही अपनी शिक्षा का ये दौर पूरा करना पडता था ।


           निःसंदेह पिताओं के द्वारा अपने पुत्रों को उस समय दी जाने वाली ये सजा प्रशंसनीय तो कतई नहीं हो सकती थी । लेकिन अप्रत्यक्ष तौर पर इसके काफी कुछ सकारात्मक परिणाम भी सामने आते थे-  
  
       विश्वप्रसिद्ध शख्सियत अल्फ्रेड हिचकाक को उनके पिता ने मारने-पीटने के बाद रात भर के लिये तहखाने के कबाड के बीच बन्द कर दिया । रात भर घिग्गी सी बंधी हुई स्थिति में डर के जिस माहौल में बालक अल्फ्रेड ने वह डरावनी रात व्यतीत की उसी डर को बडे होकर फिल्म निर्माता बनने के बाद उसने एक से बढकर एक डरावनी फिल्मों के रुप में सारी दुनिया के सामने लगातार प्रस्तुत किया और हाॅरर (डरावनी) फिल्मों के निर्माण के क्षेत्र में बेताज बादशाह बनकर सारी दुनिया के समक्ष अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया ।
       उल्लेखनीय हस्तियों के पिटाई संस्मरण में विख्यात अभिनेता, निर्माता, निर्देशक- राजकपूर की पिटाई भी इसी श्रेणी में आती है । पापा पृथ्वीराज कपूर का फिल्म इंडस्ट्री में पर्याप्त दबदबा होने के बावजूद गुरुकुल प्रथा का अनुसरण करते हुए उन्होंने राजकपूर को फिल्मकार केदार शर्मा का सहायक बनवाया, जहाँ राजकपूर को फिल्म के प्रत्येक शाट के पूर्व सिर्फ क्लीपिंग देने का काम सौंपा गया था । तरुण राजकपूर कुछ अपनी उम्र व कुछ इण्डस्ट्री के आकर्षण के वशीभूत हर शाट के बाद शीशे में अपना चेहरा देखने खडा हो जाता था जिससे कई बार अगला शाट फिल्माने की प्रक्रिया बाधित होती थी । निर्माता केदार शर्मा ने दो-एक बार राजकपूर को इसके लिये मना भी किया किन्तु आदत से मजबूर राजकपूर पर उनकी समझाईश का कोई असर नहीं हुआ । अंततः अगली बार इसी क्रम में जब शाट फिल्माने की प्रक्रिया बाधित हुई तो केदार शर्मा ने जो झन्नाटेदार थप्पड राजकपूर को रसीद किया तो  राजकपूर न जाने कितनी दूर जाकर गिरे । 

      इस घटना के परिणामस्वरुप जहाँ एक ओर केदार शर्मा को राजकपूर की इस बेजा आदत से आगे के लिये निजात मिल गई वहीं राजकपूर ने भी अनुशासन का जो सबक इससे हासिल किया उसी अनुशासन ने उस राजकपूर को सर्वोच्च श्रेणी का फिल्म निर्माता बनवाकर न सिर्फ देश भर में बल्कि दुनिया के अनेक देशों में समान रुप से लोकप्रिय बनवाया । अपने आगे के अनेकों साक्षात्कारों में राजकपूर ने इस घटना का सगर्व उल्लेख भी किया । इसी संदर्भ में यह भी देखें- बच्चों के सर्वांगीण विकास में माता-पिता की भूमिका

         पुत्र को आत्मनिर्भर बनाने की सोच के साथ एक समय एक पिता ने अपने पुत्र को सख्त निर्देश दिया- कल से तुम जब तक एक रुपया कमाकर नहीं लाओगे तुम्हें खाना नहीं मिलेगा । कल से दिन के समय तुम मुझे घर में मत दिखना । पुत्र ने माँ को बताया कि पिताजी ने मुझे ऐसा निर्देश दिया है । माँ ने अपनी ममता के वशीभूत हो उसे अपने पास से एक रुपया दे दिया और कहा दिन में घूम फिरकर आ जाना और कल तो ये रुपया अपने पिता को दे देना, पुत्र ने भी वैसा ही किया, दिन भर इधर-उधर दोस्तों के साथ घूमकर आने के बाद पिता के हाथ में वो रुपया रख दिया । पिता ने उसके सामने उस रुपये को जलते चूल्हे में फेंकते हुए कहा - मुझे बेवकूफ समझ रखा है क्या ये रुपया तू कमाकर लाया है ? कल से कमाकर लाना । पुत्र ने चिंतित अवस्था में उसी शहर में रह रही अपनी विवाहित बहन को अपनी समस्या बताई । इस बार बहन ने उसे अपने पास से रुपया देकर कहा - ठीक है कल ये रुपया देकर देख लो । दूसरे दिन शाम को पिता के हाथ में बहन से लिया हुआ रुपया पुत्र ने ऐसे रख दिया जैसे मैं इसे कमाकर लाया हूँ । पिता ने फिर उस रुपये को चलते चूल्हे में फेंकते हुए कहा । फिर वही बात क्या तू मुझे मूर्ख समझ रहा है ।

             अब तो पुत्र की हालत खराब हो गई । माँ व बहिन से लिये हुए रुपये पिता ने न जाने कैसे भांप लिये थे । तीसरे दिन पुत्र अपने दोस्त से उधार रुपया लेकर आया और शाम को पिता के हाथ में अपनी उस दिन की कमाई के रुप में रख दिया । पिता ने पल-दो पल उस रुपये को हाथ में रखा व पुत्र को गौर से देखते हुए फिर उस रुपये को जलते चूल्हे में वही कहते हुए फेंक दिया । साथ ही यह निर्देश फिर दे दिया कि कल से गल्ति मत करना और कमाकर ही लाना । अब पुत्र ने सोचा कि ऐसे तो काम नहीं चलेगा, न जाने कैसे पिताजी भांप ही लेते हैं । दूसरे दिन कुछ सोचकर पुत्र वास्तव में रुपया कमाकर लाने के लिये निकल पडा । 

       दिन भर पुत्र ने कडी मेहनत की और शाम को अपने पिता के हाथ में दिन भर की मेहनत के एवज में पाया हुआ रुपया रख दिया । पिता ने पुत्र की ओर देखते हुए उस रुपये को भी तू तो मुझे बेवकूफ ही समझ रहा है कहते हुए जलते चूल्हे में फेंक दिया । पिताजी ये आप क्या कर रहे हैं ? दिन भर मैंने तपती धूप में कडी मेहनत से यह रुपया कमाया है, कहते हुए पुत्र ने दौडकर जलते चूल्हे में से उस रुपये को बाहर निकाल लिया । तो इस पिटाई या सख्ति का जो सुपरिणाम उस पीढी को मिलता था उसके कारण पिता से पिटने वाला बालक दुनिया में कहीं भी किसी से भी फिर नहीं पिट पाता था लेकिन अब

        श्रीमतीजी की हमउम्र महिलाओं की गोष्ठी में एक परिचिता का दुःख कुछ यूं व्यक्त हो रहा था- अरे सुनीता अपनी तो किस्मत ही खराब है जब बहू बनकर आए तो सास के सामने कुछ बोल नहीं सकते थे, और अब जब सास बने तो बहू के सामने कुछ नहीं बोल सकते ।

        यही दुःख अभी एक पार्टी में एक मित्र जिनका अच्छा खासा अनाज मण्डी में गेहूँ का कारोबार है, मकान, दुकान, वाहन व इकलौते विवाहित पुत्र जैसे सभी भौतिक सुखों के बावजूद 55 वर्ष के आसपास की उम्र में ही शरीर रोगों का घर बन चुका है, उनसे कुशल-क्षेम जानने के दौरान सामने आया - मैंने पूछा - और अशोकजी कैसा क्या चल रहा है ? वे बडी मायूसी से फीकी सी मुस्कराहट के साथ बोले - बस सुशीलजी, जो और जैसी कट जावे । मैंने कहा - क्यों भाई ऐसा क्यों ? तो वे बोले - सुशीलजी बडे बदकिस्मत हैं अपन लोग । बात तब भी पूरी तरह पल्ले नहीं पडने पर कुछ और कुरेदा तो वे मुझसे सहमति भरवाते हुए बोले - अपन तो अपने पिताजी के हाथों जब तब पिटते हुए ही बडे हुए और अब अपन अपने बच्चों को तू भी बोलदो तो घर भर में तूफान सा झेलना पड जाता है । दुःख उनका जायज लग रहा था । आजकल सीमित सन्तानों के दौर में यही स्थिति हर दूसरे घर में दिखाई दे रहा है ।

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       इस स्थिति के समर्थन में आधुनिक विचारधारा के पोषक चाहे जितने तर्क दे लें किन्तु इसके दुष्परिणामों में इसी ब्लाग की मेरी पूर्व पोस्ट तरुणाई की ये राह  में घर पर पेरेण्ट्स के समक्ष शेर बने रहने वाले ऐसे बच्चों में कोई अपने दोस्तों से ही पिट व मर रहा है तो कुछ  बालक या तो अपने से शारीरिक या मानसिक रुप से तगडे लोगों से पिट रहे हैं या फिर कई बार तो वे पुलिस से भी जूते खा रहे होते हैं । अतः नई पीढी के पालक व बालक भले ही इस स्थिति को एक राहत के रुप में देखें किन्तु कहीं न कहीं पालकों की इस नरमदिली के चलते बालकों का दुनियावी प्रशिक्षण कुछ अधूरा तो छूट ही रहा है ।

        क्या आपको नहीं लगता कि अपने बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिये इस प्रकार कभी-कभी हो जाने वाली उनकी पिटाई जिसे हम लोग तो अपने जमाने में कुटावडे ही कहते थे, या अभिभावकों के उनके प्रति सख्त तेवर,  भलें ही वे पूर्ण सख्ती के नकली किन्तु जीवन्त अभिनय के रुप में ही अपने बच्चे के सामने आते क्यों न दिख रहे हों अंततः बच्चे के हित में ही साबित होते हैं