26.10.19

स्वहित में बुरे विचारों से बचें...


              बाबु मोशाय... कभी-कभी ऐसा होता है कि किसी आदमी ने हमारा कोई भला नहीं किया लेकिन वो हमें अच्छा लगता है । हाँ...  और कभी-कभी ऐसा भी होता है कि किसी आदमी ने हमारा कोई बुरा नहीं किया, लेकिन वो हमें बिल्कुल अच्छा नहीं लगता । जी हाँ ! आप इस संवाद को अमिताभ बच्चन और राजेश खन्ना की अपने समय की सुपर हिट फिल्म "आनन्द"  में देख व सुन चुके होंगे ।
 
            लेकिन वास्तविक जीवन में इसके कई बार तत्काल सकारात्मक या नकारात्मक परिणाम सामने आ जाते हैे । पिछले दिनों मेरा एक मित्र स्कूटर पर अपनी किसी धुन में जा रहा था । सामने से आने वाले वाहन चालक के हाॅर्न बजाते हुए बचते-बचते भी हल्की टक्कर हो ही गई । यद्यपि सामने वाले वाहन चालक की कोई गल्ति नहीं थी, लेकिन उसके प्रति बेहद रोष दिमाग में भरकर मेरा मित्र वहाँ से निकला और उसी आक्रोशित अवस्था में और भी बडा एक्सीडेंट करवाकर अपने हाथ-पांव व वाहन को क्षतिग्रस्त स्थिति में लेकर ही घर पहुँच पाया ।

        यह विज्युलाईजेशन (टेलीपैथी) इतना सटीक काम करती है कि तत्काल वो ही नकारात्मकता सामने वाले के मन-मस्तिष्क तक पहुँच जाती है जो हमारे मन में उसके प्रति होती है ।

         एक चिर-परिचित कथा के मुताबिक जब एक वृद्धा सर पे पोटली रखें गांव से नजदीक के शहर आ रही थी तो उधर से गुजरने वाले घुडसवार से बोली- भैया, ये पोटली लेकर पास ही शहर के मुहाने पर उस गुमटी-ठेले तक छोड दो । सवार ने पहले उस गरीब सी लगने वाली वृद्धा को व फिर उसकी मैली सी पोटली को देखा और तिरस्कृत नजरों से उसे देखते हुए आगे निकल गया ।

         कुछ दूर जाकर उस घुडसवार ने सोचा कि न जाने उस पोटली में क्या कुछ कीमती सामान रहा होगा, यदि मैं उसकी पोटली लेकर भाग जाता तो कोई मेरा क्या कर लेता । यह सोचते हुए उसने तत्काल अपना घोडा मोडा और उस वृद्धा तक पहुँचकर उससे बोला- ला माई, तेरी पोटली पहुँचा दूँ । तब उस वृद्धा ने कहा-  भैया रहने दो, अपनी पोटली मैं खुद ही ले आऊंगी । क्यों माई ? अभी तो तुम कह रही थी कि मैं ये पोटली तुम्हारे ठिकाने तक पहुँचा दूँ, तब वृद्धा बोली हाँ भैया- लेकिन उसके बाद जिसने तुम्हें कुछ कहा, उसी ने मुझसे भी कुछ कह दिया । इसलिये मेरी पोटली तो मैं ही ले जाऊँगी । ऐसे काम करती है ये टेलीपैथी ।

       जब विचारों में किसी के प्रति भी व किसी भी कारण से यह नकारात्मकता आती है तो ये हमारा ऐसा मानसिक कर्म हो जाता है जिसके किये बगैर ही उसके दूरगामी दुष्परिणाम हम पर आ जाते हैं ।

      एक राजा ब्राह्मणों को महल के आँगन में लंगर में भोजन करा रहा था । रसोईया भी खुले आँगन में भोजन पका रहा था । उसी समय एक चील अपने पंजे में एक जिंदा साँप को लेकर महल के उपर से गुजरी । चील के पँजों में दबे साँप ने आत्म-रक्षा में अपने फन से ज़हर निकाला और नीचे ब्राह्मणों के लिए पक रहे लंगर के उस भोजन में साँप के मुख से निकली जहर की कुछ बूँदें गिर गई । किसी को कुछ पता नहीं चला, लेकिन वह ब्राह्मण जो भोजन करने आये थे उन सब की जहरीला खाना खाते ही मृत्यु हो गई । जब राजा को सारे ब्राह्मणों की मृत्यु का पता चला तो अनजाने ही ब्रह्म-हत्या का अपराध हो जाने से उसे बहुत दुःख हुआ ।
 
       इस स्थिति में यमराज के लिए भी यह फैसला लेना कठिन हो गया कि इस पाप-कर्म का फल किसके खाते में जायेगा ? राजा- जिसको पता ही नहीं था कि खाना जहरीला हो गया है, या रसोईया- जिसे भी ये मालूम ही नहीं पडा कि खाना बनाते समय ही जहरीला हो गया है या वह चील जो जहरीला साँप लिए राजा के महल से गुजरी या फिर वह साँप जिसने अपनी आत्म-रक्षा में ज़हर निकाला ।
  
         बहुत दिनों तक यह मामला यमराज की अदालत में पेंडिंग रहा ।. कुछ समय बाद कुछ अन्य ब्राह्मण राजा से मिलने उस राज्य मे आए और उन्होंने एक महिला से महल का रास्ता पूछा । उस महिला ने महल का रास्ता तो बता दिया पर उन ब्राह्मणों से ये भी कह दिया कि "देखो भाई.... जरा ध्यान रखना.... वह राजा आप जैसे ब्राह्मणों को खाने में जहर देकर मार देता है ।"
 
         जैसे ही उस महिला ने ये शब्द कहे,  उसी समय यमराज ने फैसला कर लिया कि उन मृत ब्राह्मणों की मृत्यु के पाप का फल उस महिला को ही भुगतना होगा ।

         यमराज के दूतों ने पूछा - प्रभु ऐसा क्यों ? जब कि उन मृत ब्राह्मणों की हत्या में उस महिला की कोई भूमिका ही नहीं है । तब यमराज ने कहा- जब कोई व्यक्ति पाप करता है तो उसे बड़ा आनन्द मिलता हैं । पर उन मृत ब्राह्मणों की हत्या से ना तो राजा को आनंद मिला, ना उस रसोइये को आनंद मिला, ना उस साँप को आनंद मिला, और ना ही उस चील को आनंद मिला । पर उस पाप-कर्म की घटना का बुराई करने के भाव से बखान कर उस महिला को जरूर आनन्द मिला । इसलिये राजा के उस अनजाने पाप-कर्म का फल अब इस महिला के खाते में ही जायेगा ।

          जीवन में कई बार ऐसे अवसर आते हैं जब हम सोचते हैं कि हमने तो ऐसा कोई पाप नहीं किया, फिर भी हमारे जीवन में इतना कष्ट क्यों आया ? क्या ये सम्भव नहीं कि ये फल जाने-अन्जाने दूसरों के प्रति बैर-भाव व संकटग्रस्त लोगों की बुराई करने के मनोभावों के कारण हुए उन पाप-कर्मो से आया होता है जो इस बुराई के होते ही हमारे खाते में ट्रांसफर हो जाता है ।

          इसलिये सावधान रहें... जिस प्रकार सडक पर चलते समय हम इस बात का ध्यान रखते हैं कि कोई हमसे ही नहीं हम भी किसी से टकरा न जाएँ, ऐसे ही किसी के भी प्रति ऐसे नकारात्मक भाव रुपी इस प्रज्ञापराध से हमें स्वयं को निरन्तर बचाने हुए ही अपना जीवन व्यतीत करने की आदत डाल लेना चाहिये । क्योंकि-

         हमारे शब्द, हमारे कार्य, हमारी भावनायें, हमारी गतिविधियाँ ये विचार ही हमारे कर्म हैं, इसलिये इन कर्मों से डरें, ईश्वर तो माफ कर सकते हैं पर कर्म नहीं, जैसे बछड़ा सौ गायों में भी अपनी मां को ढूंढ लेता है, वैसे ही कर्म भी अपने कर्ता को ढूंढ ही लेते हैं ।

       

1 टिप्पणी:

  1. बहुत अच्छी प्रस्तुति
    दीपोत्सव की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं!

    जवाब देंहटाएं

आपकी अमूल्य प्रतिक्रियाओं के लिये धन्यवाद...