11.1.20

अनमोल रिश्ता...


            सुश्री वसुंधरा दीदी एक छोटे से शहर के  प्राथमिक स्कूल में  कक्षा 5 की शिक्षिका थीं । उनकी एक आदत थी कि वह कक्षा शुरू करने से पहले हमेशा "आई लव यू ऑल" बोला करतीं । मगर वह जानती थीं कि वह सच नहीं कहती । वह कक्षा के सभी बच्चों से उतना प्यार नहीं करती थीं । कक्षा में एक ऐसा बच्चा था जो वसुंधरा को एक आंख नहीं भाता । उसका नाम आशीष था । आशीष मैली कुचैली स्थिति में  स्कूल आ जाया करता । उसके बाल खराब होते, जूतों के बन्ध खुले, शर्ट के कॉलर पर मेल के निशान । व्याख्यान के दौरान भी उसका ध्यान कहीं और होता । वसुंधरा के डाँटने पर वह चौंक कर उन्हें देखने तो लग जाता.. मगर उसकी खाली-खाली नज़रों से उन्हें साफ पता लगता रहता कि आशीष शारीरिक रूप से कक्षा में उपस्थित होने के बावजूद भी मानसिक रूप से गायब है ।

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            धीरे  धीरे वसुंधरा को आशीष से नफरत सी होने लगी । क्लास में घुसते ही आशीष.. वसुंधरा की आलोचना का निशाना बनने लगा । सब बुराई के उदाहरण आशीष के नाम पर किये जाते । बच्चे उस पर खिलखिला कर हंसते और वसुंधरा उसको अपमानित करके संतोष प्राप्त करतीं । आशीष ने हालांकि किसी बात का कभी कोई जवाब नहीं दिया । किन्तु वसुंधरा को वह एक बेजान पत्थर की तरह लगता जिसके अंदर अहसास जैसी कोई चीज नहीं थी । प्रत्येक डांट, व्यंग्य और सजा के जवाब में वह बस अपनी भावनाओं से खाली नज़रों से उन्हें देखता और सिर झुका लेता ।

           
वसुंधरा को अब इससे गंभीर चिढ़ हो चुकी थी । पहला सेमेस्टर समाप्त हो गया और रिपोर्ट बनाने का चरण आया तो वसुंधरा ने आशीष की प्रगति रिपोर्ट में यह सब बुरी बातें लिख मारी । प्रगति रिपोर्ट कार्ड माता-पिता को दिखाने से पहले प्रधानाध्यापिका के पास जाया करता था । उन्होंने जब आशीष की रिपोर्ट देखी तो वसुंधरा को बुला लिया । 

            "
वसुंधरा... प्रगति रिपोर्ट में कुछ तो प्रगति भी लिखनी चाहिए। आपने तो जो कुछ लिखा है इससे आशीष के पिता बिल्कुल निराश ही हो जाएंगे।"        मैं माफी चाहती हूँ, लेकिन आशीष एक बिल्कुल ही अशिष्ट और निकम्मा बच्चा है । मुझे नहीं लगता कि मैं उसकी प्रगति के बारे में कुछ भी अच्छा लिख सकती हूँ । वसुंधरा बेहद घृणित लहजे में बोलकर वहां से उठ आईं ।

           
प्रधानाध्यापिका ने एक अजीब हरकत की । उन्होंने चपरासी के  हाथ वसुंधरा की डेस्क पर आशीष की पिछले वर्षों की प्रगति रिपोर्ट रखवा दी । अगले दिन वसुंधरा ने कक्षा में प्रवेश किया तो रिपोर्ट पर नजर पड़ी । पलट कर देखा तो पता लगा कि यह आशीष की रिपोर्ट हैं । "पिछली कक्षाओं में भी उसने निश्चय ही यही गुल खिलाए होंगे ।"  उन्होंने सोचा और कक्षा 3 की रिपोर्ट खोली । रिपोर्ट में टिप्पणी पढ़कर उनकी आश्चर्य की कोई सीमा न रही जब उन्होंने देखा कि रिपोर्ट उसकी तारीफों से भरी पड़ी है । "आशीष जैसा बुद्धिमान बच्चा मैंने आज तक नहीं देखा ।" "बेहद संवेदनशील बच्चा है और अपने मित्रों और शिक्षकों से बेहद लगाव रखता है ।" अंतिम सेमेस्टर में भी आशीष ने प्रथम स्थान प्राप्त कर लिया है ।

            "
वसुंधरा दीदी ने अनिश्चित स्थिति में कक्षा 4 की रिपोर्ट खोली । "आशीष पर अपनी मां की बीमारी का बेहद प्रभाव पड रहा है ।  उसका  ध्यान पढ़ाई से हट रहा है ।"  "आशीष की माँ को अंतिम चरण का  कैंसर हुआ है । घर पर उसका और कोई ध्यान रखनेवाला नहीं है, जिसका गहरा प्रभाव उसकी पढ़ाई पर पड़ा है ।"  आशीष की  माँ मर चुकी है और इसके साथ ही आशीष के जीवन की रमक और रौनक  भी । उसे बचाना होगा...इससे पहले कि  बहुत देर हो जाए । 

            "
वसुंधरा के दिमाग पर भयानक बोझ तारी हो गया । कांपते हाथों से उन्होंने प्रगति रिपोर्ट बंद की । आंसू उनकी आँखों से एक के बाद एक गिरने लगे । अगले दिन जब वसुंधरा कक्षा में दाख़िल हुईं तो उन्होंने अपनी आदत के अनुसार अपना पारंपरिक वाक्यांश "आई लव यू ऑल" दोहराया । मगर वह जानती थीं कि वह आज भी झूठ बोल रही हैं । क्योंकि इसी क्लास में बैठे एक उलझे बालों वाले बच्चे आशीष के लिए जो प्यार वह आज अपने दिल में महसूस कर रही थीं..वह कक्षा में बैठे और किसी भी बच्चे से हो ही नहीं सकता था । 

           
व्याख्यान के दौरान उन्होंने रोजाना दिनचर्या की तरह एक सवाल आशीष पर दागा और हमेशा की तरह आशीष ने सिर झुका लिया । जब कुछ देर तक वसुंधरा से कोई डांट फटकार और सहपाठी सहयोगियों से हंसी की आवाज उसके कानों में न पड़ी तो उसने गहन आश्चर्य से सिर उठाकर उनकी ओर देखा । अप्रत्याशित रुप से आज उनके माथे पर बल न थे बल्कि वह मुस्कुरा रही थीं । 

           
उन्होंने आशीष को अपने पास बुलाया और उसे सवाल का जवाब बताकर दोहराने के लिए कहा । आशीष तीन चार बार के आग्रह के बाद अंतत: बोल ही पड़ा । इसके जवाब देते ही वसुंधरा ने न सिर्फ खुद खुशान्दाज़ होकर तालियाँ बजाईं बल्कि सभी से भी बजवायी.. फिर तो यह दिनचर्या बन गयी । वसुंधरा अब हर सवाल का जवाब अपने आप बताती और फिर उसके पिछले वर्षों के रेकार्ड के साथ उसकी खूब सराहना व तारीफ करतीं ।  क्लास में अब प्रत्येक अच्छा उदाहरण आशीष के कारण दिया जाने लगा ।  धीरे-धीरे पुराना आशीष सन्नाटे की कब्र फाड़ कर बाहर आने लगा । 

           
अब वसुंधरा को सवाल के साथ जवाब बताने की जरूरत नहीं पड़ती। वह रोज बिना किसी त्रुटि के उत्तर देकर सभी को प्रभावित करता और नये-नए सवाल पूछ कर सबको हैरान भी करता । उसके बाल अब कुछ हद तक सुधरे हुए होते, कपड़े भी काफी हद तक साफ होते जिन्हें शायद वह खुद धोने लगा था । देखते ही देखते साल समाप्त हो गया और आशीष ने दूसरा स्थान हासिल कर लिया यानी दूसरी क्लास । विदाई समारोह में सभी बच्चे वसुंधरा दीदी के लिये सुंदर उपहार लेकर आए और वसुंधरा की  टेबल पर ढेर लग गया । 

            इन खूबसूरती से पैक हुए उपहारों में  पुराने अखबार में बंद सलीके से पैक हुआ एक उपहार भी पड़ा था । बच्चे उसे देखकर हंस पड़े । किसी को जानने में देर न लगी कि उपहार के नाम पर ये आशीष लाया होगा । वसुंधरा दीदी ने उपहार के इस छोटे से पहाड़ में से लपक कर उसे निकाला । खोलकर देखा तो उसके अंदर एक महिलाओं की इत्र की आधी इस्तेमाल की हुई शीशी और एक हाथ में पहनने वाला एक कड़ा था जिसके ज्यादातर मोती झड़ चुके थे । वसुंधरा ने चुपचाप उस इत्र को खुद पर छिड़का और वह कंगन अपने हाथ में पहन लिया । सभी बच्चे यह दृश्य देखकर हैरान रह गए, खुद आशीष भी । आखिर आशीष से रहा न गया और वो वसुंधरा दीदी के पास आकर खड़ा हो गया । कुछ देर बाद उसने अटक-अटक कर वसुंधरा को बताया कि "आज आप में से मेरी माँ जैसी खुशबू आ रही है ।"

           
समय पर लगाकर उड़ने लगा। दिन सप्ताह, सप्ताह महीने और महीने साल में बदलते भला कहां देर लगती है ? मगर हर साल के अंत में वसुंधरा को आशीष से एक पत्र नियमित रूप से प्राप्त होता जिसमें लिखा होता कि "इस साल कई नए टीचर्स से मिला । मगर आप जैसा कोई नहीं था ।"  फिर आशीष का स्कूल समाप्त हो गया और पत्रों  का सिलसिला भी । कई साल आगे और गुज़रे और अध्यापिका वसुंधरा अब रिटायर हो गईं । 

           
एक दिन उन्हें अपनी मेल में आशीष का पत्र मिला जिसमें लिखा था-  "इस महीने के अंत में मेरी शादी है और आपके बगैर शादी की बात मैं नहीं सोच सकता । एक और बात .. मैं जीवन में बहुत से लोगों से मिल चुका हूँ किंतु आप जैसा कोई नहीं है....डॉक्टर आशीष  । इसके साथ ही विमान का आने जाने का टिकट भी लिफाफे में मौजूद था । वसुंधरा खुद को रोक सकने की स्थिति में नहीं रह गई थी ।

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           उन्होंने अपने पति से अनुमति ली और वह दूसरे शहर के लिए रवाना हो गईं । ऐन शादी के दिन जब वह शादी की जगह पहुंची तो थोड़ी लेट हो चुकी थीं । उन्हें लगा अब तक तो समारोह समाप्त हो चुका  होगा..  मगर यह देखकर उनके आश्चर्य की सीमा  न रही कि शहर के बड़े-बडे डॉ, बिजनेसमैन और यहां तक कि वहां मौजूद फेरे कराने वाले पंडित भी इन्तजार करते करते थक गये थे. कि आखिर कौन आना बाकी है...  मगर आशीष समारोह में फेरों और विवाह के  बजाय गेट की तरफ टकटकी लगाए उनके आने का इंतजार कर रहा था । फिर सबने देखा कि जैसे ही यह पुरानी अध्यापिका वसुंधरा ने गेट से प्रवेश किया आशीष उनकी ओर तेजी से लपका और उनका वह हाथ पकड़ा जिसमें उन्होंने अब तक वह सड़ा हुआ सा कंगन पहना हुआ था और उन्हें सीधा वेदी पर ले गया ।

           
वसुंधरा का हाथ में पकड़ कर वह सभी मेहमानों से बोला "दोस्तो आप सभी हमेशा मुझसे मेरी माँ के बारे में पूछा करते थे और मैं आप सबसे वादा किया करता था कि जल्द ही आप सबको अपनी माँ से मिलाऊँगा...! यही मेरी माँ  हैं !"

       मित्रों...
           
इस सुंदर कहानी को सिर्फ शिक्षक और शिष्य के रिश्ते के कारण ही मत सोचिएगाअपने आसपास देखें, आशीष जैसे कई फूल मुरझा रहे हैं जिन्हें आपका जरा सा ध्यान,  प्यार और स्नेह बिल्कुल नया जीवन भी दे सकता  है...!

3 टिप्‍पणियां:

  1. Bahut sunder aur shikshaprad kahani. Hum me se harek ko kisi jeewan ko sanwarne ki koshish karani chahiye

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  2. सुशील जी! बहुत ही सुन्दर कहानी है... बल्कि मनोविज्ञान का एक शिक्षण सत्र कहूँ तो अतिशयोक्ति न होगी! बाल मनोविज्ञान के साथ साथ यह भी सन्देश कि अध्यापन जैसा पुनीत कार्य पूरी निष्ठा और ईमानदारी से किया जाना चाहिए और "लव यू ऑल" सिर्फ एक मुहावरा नहीं, दिल से निकला सन्देश होना चाहिए!
    कहानी ने दिल को छुआ और अपनी छाप छोड़ी है!! आभार है आपका, इतनी सुन्दर रचना के लिये!

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आपकी अमूल्य प्रतिक्रियाओं के लिये धन्यवाद...