23.5.16

औचित्य ! धार्मिक स्नान का...



         शाही  स्नान का पर्व था । घाट पर भारी भीड़ लग रही थी ।

           शिव पार्वती आकाश से गुजरे । पार्वती ने इतनी भीड़ का कारण पूछा - आशुतोष ने कहा - सिंहस्थ कुम्भ पर्व पर शाही स्नान करने वाले स्वर्ग जाते है । उसी लाभ के लिए यह स्नानार्थियों की भीड़ जमा है ।

           पार्वती का कौतूहल तो शान्त हो गया पर नया संदेह उपज पड़ा, इतनी भीड़ के लायक स्वर्ग में स्थान कहाँ है ? फिर लाखों वर्षों से लाखों लाख लोग इस आधार पर स्वर्ग पहुँचते तो उनके लिए स्थान भी तो कहीं रहता ?

           छोटे से स्वर्ग में यह कैसे बनेगा भगवती ने अपना नया सन्देह प्रकट किया और समाधान चाहा । भगवान शिव बोले - शरीर को गीला करना अलग बात है, जबकि यहाँ मन की मलीनता धोने वाला स्नान जरूरी है । स्वर्ग तो मन को धोने वाले ही जाएगा ।

          
सन्देह घटा नहीं, बढ़ गया । पार्वती बोलीं - इतने विशाल जनसमूह में यह कैसे पता चलेगा कि किसने शरीर धोया किसने मन संजोया ।

          
यह कार्य से जाना जाता है । शिवजी ने इस उत्तर से भी समाधान न होते देखकर प्रत्यक्ष उदाहरण से लक्ष्य समझाने का प्रयत्न किया ।

          मार्ग में शिव कुरूप कोढ़ी बनकर पढ़ रहे ।  पार्वती को और भी सुन्दर सजा दियादोनों बैठे थे । स्नानार्थियों की भीड़ उन्हें देखने के लिए रुकती ।  अनमेल स्थिति के बारे में पूछताछ करती ।

          
पार्वतीजी रटाया हुआ विवरण सुनाती रही । ये मेरे पति हैं, गंगा स्नान की कामना से आए हैं । गरीबी के कारण इन्हें कंधे पर रखकर लाई हूँ । बहुत थक जाने के कारण थोड़े विराम के लिए हम लोग यहाँ बैठे हैं ।

          
अधिकाँश दर्शकों की नीयत डिगती दिखती । वे सुन्दरी को प्रलोभन देते और पति को छोड़कर अपने साथ चलने की बात कहते । पार्वती लज्जा से गढ़ गई । भला ऐसे भी लोग  स्नान को आते हैं क्या ?  निराशा देखते ही बनती थी ।

          
संध्या हो चली । एक उदारचेता आए, विवरण सुना तो आँखों में आँसू भर गए । सहायता का प्रस्ताव किया और कोढ़ी को कंधे पर लादकर  तट तक पहुँचाया । जो सत्तू साथ में था उसमें से उन दोनों को भी खिलाया । साथ ही सुन्दरी को बार-बार नमन करते हुए कहा - आप जैसी देवियां ही इस धरती की स्तम्भ हैं । धन्य हैं आप जो इस प्रकार अपना धर्म निभा रही हैं ।  प्रयोजन पूरा हुआ - शिव पार्वती उठे और कैलाश की ओर चले गए । रास्ते में कहा - पार्वती इतनों में एक ही व्यक्ति ऐसा था, जिसने मन धोया और स्वर्ग का रास्ता बनाया ।  स्नान का महात्म्य तो सही है पर उसके साथ मन भी धोने की शर्त लगी है ।

           पार्वती समझ गई कि स्नान महात्म्य सही होते हुए भी... क्यों लोग उसके पुण्य फल से वंचित रहते हैं ?


21.5.16

कुछ रह तो नहीं गया ?

 
          
           जिंदगी के सफ़र में चलते चलते हर मुकाम पर यही सवाल परेशान करता रहता है.... कुछ रह तो नहीं गया  ?

          शादी में दुल्हन को बिदा करते ही शादी का हॉल खाली करते हुए दुल्हन की बुआ ने पूछा- "भैया, कुछ रह तो नहीं गया ना ? चेक करो ठीक से । बाप चेक करने गया तो दुल्हन के रूम में कुछ फूल सूखे पड़े थे ।  सब कुछ तो पीछे रह गया, 25 साल जो नाम लेकर जिसको आवाज देता था लाड से, वो नाम पीछे रह गया और उस नाम के आगे गर्व से जो नाम लगाता था वो नाम भी पीछे रह गया अब ? "भैया, देखा ? कुछ पीछे तो नहीं रह गया ?" बुआ के इस सवाल पर आँखों में आये आंसू छुपाते बाप जुबाँ से तो नहीं बोला, पर दिल में एक ही आवाज थी,  सब कुछ तो यही  रह गया ।

          3 महीने के बच्चे को दाई के पास रखकर जॉब पर जानेवाली माँ से दाई ने पूछा... कुछ रह तो नहीं  गया ? पर्स, चाबी सब ले लिया ना  ? अब वो कैसे हाँ कहे ? पैसे की अनिवार्यता के पीछे भागते भागते... सब कुछ पाने की ख्वाईश में वो जिसके लिये सब कुछ कर रही है,  वह  तो यहीं रह गया है ।

          बडी तमन्नाओ के साथ बेटे को पढ़ाई के लिए विदेश भेजा था और वह पढ़कर वही सैटल हो गया, पौत्र जन्म पर मुश्किल से 3 माह का वीजा मिला था, और चलते वक्त बेटे ने पूछ लिया, सब कुछ चैक कर लिया पापा कुछ रह तो नही गया ?  क्या जबाब देते कि अब छूटने को बचा ही क्या है  ?

          60 वर्ष पूर्ण कर सेवानिवृत्ति की शाम पी. ए. ने याद दिलाया- चेक करलें सर, कहीं कुछ रह तो नही गया,  थोडा रूका और सोचा पूरी जिन्दगी तो यही आने-जाने मे बीता दी,  अब और क्या रह गया होगा ।

         "कुछ रह तो नहीं गया ?" श्मशान से लौटते वक्त किसी ने पूछा । नहीं कहते हुए वो आगे बढ़ा... पर नजर फेर ली, एक बार पीछे देखने के लिए.... पिता  की चिता की सुलगती आग देखकर मन भर आया ।  भागते हुए गया, पिता के चेहरे की झलक तलाशने की असफल कोशिश की और वापिस लौट आया । दोस्त ने पूछा... कुछ रह गया था क्या ?  भरी आँखों से फिर देखा बोला-  नहीं कुछ भी नहीं रहा अब... और जो कुछ  रह भी गया है  वह तो सदा मेरे साथ ही रहेगा ।

          एक बार फिर समय निकालकर सोचें कि कहाँ-कहाँ क्या-क्या पीछे रह गया ।  शायद पुराना समय याद आ जाए,  आंखें भर आएं और आज को फिर से जी भरकर जी लेने का मकसद मिल जाए...!

20.5.16

ईच्छा भगवान की...


          एक बार भगवान से उनका सेवक कहता है, भगवान- आप एक जगह खड़े-खड़े थक गये होंगे, एक दिन के लिए मैं आपकी जगह मूर्ति बन कर खड़ा हो जाता हूं, आप मेरा रूप धारण कर घूम आएँ l

          भगवान मान जाते हैं, लेकिन शर्त रखते हैं कि जो भी लोग प्रार्थना करने आयें, तुम बस उनकी प्रार्थना सुन लेना कुछ बोलना नहीं । मैंने उन सभी के लिए प्लानिंग कर रखी है ।  सेवक मान जाता है और परिवर्तनस्वरुप भगवान के स्थान पर खडा हो जाता है ।

          सबसे पहले मंदिर में बिजनेस मैन आता है और कहता है, भगवान मैंने एक नयी फैक्ट्री डाली है, उसे खूब सफल करना l वह माथा टेकता है, तो उसका पर्स नीचे गिर जाता है l वह बिना पर्स लिये ही चला जाता है ।

          सेवक बेचैन हो जाता है. वह सोचता है कि रोक कर उसे बताये कि पर्स गिर गया, लेकिन शर्त की वजह से वह नहीं कह पाता ।

          इसके बाद एक गरीब आदमी आता है और भगवान को कहता है कि घर में खाने को कुछ नहीं. भगवान मदद करो । तभी उसकी नजर पर्स पर पड़ती है. वह भगवान का शुक्रिया अदा करता है और पर्स लेकर चला जाता है ।

           अब तीसरा व्यक्ति आता है, वह नाविक होता है  । वह भगवान से कहता है कि मैं 15 दिनों के लिए जहाज लेकर समुद्र की यात्रा पर जा रहा हूं, यात्रा में कोई अड़चन न आये भगवान !

      तभी पीछे से बिजनेसमैन पुलिस के साथ आता है और कहता है कि मेरे बाद ये नाविक आया है इसी ने मेरा पर्स चुरा लिया हैपुलिस नाविक को ले जा रही होती है तभी सेवक बोल पड़ता है । अब पुलिस सेवक के कहने पर उस गरीब आदमी को पकड़ कर जेल में बंद कर देती है । रात को भगवान आते हैं,  तो सेवक खुशी-खुशी पूरा किस्सा बताता है ।
           

          भगवान कहते हैं, तुमने किसी का काम बनाया नहीं, बल्कि बिगाड़ा है । वह व्यापारी गलत धंधे करता है,  अगर उसका पर्स गिर भी गया, तो उसे फर्क नहीं पड़ने वाला था बल्कि इससे उसके पाप ही कम होते, क्योंकि वह पर्स गरीब इंसान को मिला था. पर्स मिलने पर उसके बच्चे भूखों नहीं मरते ।

          रही बात नाविक की, तो वह जिस यात्रा पर जा रहा था, वहां तूफान आनेवाला था, अगर वह जेल में रहता, तो जान बच जाती. उसकी पत्नी विधवा होने से बच जाती. तुमने सब गड़बड़ कर दी ।

          कई बार हमारी लाइफ में भी ऐसी प्रॉब्लम आती है, जब हमें लगता है कि ये मेरे साथ ही क्यों हुआ ।  लेकिन इसके पीछे उपर वाले की प्लानिंग होती है । जब भी कोई समस्या हो आये. उदास मत होना  और सोचना कि जो भी होता हैअच्छे के लिए ही होता है ।

मैंने प्रभु से मांगी शक्ति 
उन्होंने मुझे दी कठिनाईयांहिम्मत बढाने के लिये.


मैंने प्रभु से मांगी बुद्धि
उन्होंने मुझे दी उलझनेंसुलझाने के लिये.


मैंने प्रभु से मांगी समृद्धि
उन्होंने मुझे दी समझकाम करने के लिये.


मैंने प्रभु से मांगा प्यार
उन्होंने मुझे दिए दुःखी लोगमदद करने के लिये.


मैंने प्रभु से मांगी हिम्मत
उन्होंने मुझे दी परेशानियांउबर पाने के लिये.

मैंने प्रभु से मांगा वरदान
उन्होंने मुझे दिये अवसर उन्हें पाने के लिये.


वो मुझे नहीं मिला जो मैंने मांगा था. किन्तु
मुझे वो मिल गया जो मेरे लिये ठीक था ।

19.5.16

फलसफा जिंदगी का...


          एक उद्योगपति आवश्यक मीटिंग के लिये कहीं जा रहा था । अचानक रास्ते में उसकी कार बंद हो गई । रुकने का समय नहीं था अतः उसने कार की रिपेरिंग व घर पहुंचाने की जिम्मेदारी ड्रायवर पर छोडते हुए कुछ दूर खडे एक ऑटो-रिक्शा को आगे चलने के लिये प्लान किया । जब वह उस ऑटो तक पहुँचा तो उसने देखा कि उसका चालक पूरी रिलेक्स मुद्रा में अपना कोट उतारकर पैसेन्जर सीट पर पसरी हुई अवस्था में आराम करते हुए कोई फिल्मी गीत गुनगुना रहा था । उद्योगपति ने जब उसे चलने के लिये कहा तो वह 20/- रु. किराया बताते हुए उनके बैठने की जगह साफ करते हुए उठ खडा हुआ । उद्योगपति यह सोचते हुए उसकी रिक्शा में सवार हो गया कि सिर्फ 20/- रु. किराया लेकर भी उसी रिलेक्स मुद्रा में वैसे ही गीत गुनगुनाते हुए वह इतना निश्चिंत जीवन कैसे जी पा रहा है ठिकाने पर पहुँचकर उन्होंने उसे पैसे देते हुए फिर पूछा कि 15-20 मिनीट इन्तजार करके मुझे मेरे इस ठिकाने तक छोड सकोगे । चालक ने फिर 30/- रु. किराया बताया और व्यवसायी का ईशारा पाकर वहीं रुक गया । 

           वापसी में भी उस व्यवसायी ने उसे उसी निश्चिंत मुद्रा में चलते देखा । कुछ सोचकर उसने उस चालक को अपने घर भोजन करने के लिये निमंत्रित किया जिसे उस चालक ने सहर्ष स्वीकार कर लिया । घर पहुँचने पर अपने प्रमुख सेवक को उसने अपने साथ उस ऑटो चालक के लिये शाही डिनर का इंतजाम करने का ईशारे में निर्देश दिया । भोजन का समय चल ही रहा था - कुछ ही देर में डाईनिंग टेबल पर सूप, डेजर्ट, स्वीट्स व हर तरह के लजीज भोजन से डाईनिंग टेबल सज गया ।

          व्यवसायी ने उसे डाईनिंग टेबल पर निमंत्रित कर भोजन शुरु किया तो वह ये देखकर फिर हैरान हो गया कि वह ऑटो चालक बगैर किसी विशेष भाव अथवा प्रतिक्रिया के ऐसे खाना खाते दिख रहा था जैसे अपना सामान्य भोजन कर रहा हो । तब एक कदम आगे बढते हुए व्यवसायी ने उसे अपने यहाँ ही भोजन पश्चात् आराम करने का निमंत्रण दिया और उस ऑटो चालक ने वह भी मान लिया ।

         
उद्योगपति के इशारे पर उस ऑटो चालक को भोजन के बाद फाईव स्टार होटल के समकक्ष रुम में विश्राम के लिये ठहरा दिया और वहाँ भी वह व्यवसायी कुछ छुपकर उसकी प्रतिक्रिया को नोट करने लगा । घोर आश्चर्य के साथ वहाँ भी उसने देखा कि उसके चेहरे पर कहीं कोई विशेष प्रसन्नता अथवा विस्मय के भाव नहीं आये और वो वैसे ही निश्चिंत मुद्रा में आराम करते दिखा ।

          तब उस उद्योगपति ने सोचा कि अब यदि इसे अचानक इसके ऑटो पर छोड दिया जावे तो निश्चय ही इसे यहाँ के चकाचौंध भरे ये सुख-सुविधा पूर्ण साधनों की कमी महसूस होते दिखेगी । उस मुताबिक उसने अपने प्रमुख सेवक को इशारा किया और उस सेवक ने उस चालक के पास जाकर पूछा कि आप यहाँ आराम व मजे में हैं हाँ बिल्कुल, उस ऑटो चालक ने जवाब दिया, तब वह सेवक बोला कि नहीं हमारे साहब को लग रहा है कि आप यहाँ अपनी निजी जिंदगी को मिस कर रहे हैं - इसलिये आपको आपके ठिकाने पर छोड दिया जावे । कोई बात नहीं ! कहते हुए तत्काल वह ऑटो चालक उठकर चल पडने की मुद्रा में तैयार हो गया ।  

          उस ऑटो चालक को तत्काल गाडी में बैठाकर वहाँ ले जाया गया जहाँ उसका ऑटो खडा हुआ था । वह उद्योगपति भी उसकी बदली हुई प्रतिक्रिया देखने दूसरी गाडी में स्वयं को छुपाते हुए वहाँ तक पहुँचा और फिर यह देखकर चमत्कृत रह गया कि बिल्कुल सामान्य भाव से उस चालक ने अपनी सीट झटकारी और फिर से अधलेटी मुद्रा में अपना वही गीत गुनगुनाने लगा । अब तो उस उद्योगपति से रहा नहीं गया और वह उसके पास जाकर बोला - यार तुम गजब आदमी हो, मैंने तुम्हें इतने उंचे-नीचे परिवर्तन पिछले कुछ घंटों में महसूस करवाये किंतु कहीं भी तुम्हारी विस्मयकारी अथवा दुःखी प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिली । ऐसा कैसे ?

          तब उस ऑटो चालक का जवाब स्मरण रखने योग्य था - साहब, जिंदगी तो हर किसी की हर समय परिवर्तनों से भरी ही रहती है यदि मैं सुख में पगलाने लगूँ और फिर दुःख में विचलित रहने लगूँ तो मेरे लिये तो अनावश्यक रुप से मेरी उर्जा के अपव्यय का रोज कोई ना कोई कारण तो बना ही रहेगा और मैं कभी खुशी व कभी दुःखों के अतिरेक में अपनी स्वाभाविक जिंदगी कभी जी ही नहीं पाऊंगा ।

         
जबकि हममें से अधिकांश लोग खुशी में बौराये हुए और दुःखों में घबराये हुए ही अपनी जिंदगी गुजार रहे होते हैं और अपनी सामान्य शारीरिक उर्जा को अनावश्यक रुप से खर्चते हुए कभी भी वास्तविक रुप से सुखी नहीं रह पाते ।

         
इसलिये हमें भी जीवन का मुख्य सिद्धांत यही रखना चाहिये कि-

कर्णण्येवादिकारस्ते माफलेषु कदाचन...

व्यस्त रहो,  मस्त रहो और बदले में स्वस्थ रहो.

जियो तो ऐसे जियो जैसे सब तुम्हारा है,
मरो तो ऐसे कि जैसे तुम्हारा कुछ भी नहीं ।

15.5.16

प्रसार सद्भावना का...

          एक समय एक महात्मा अपने शिष्यों के साथ विहार करते हुए किसी गांव में रात्रि-विश्राम हेतु रुके । इसके पूर्व की उनका काफिला वहाँ से  आगे बढता उन्होंने देखा कि गांव के लोगों में एक दूसरे को नुकसान पहुँचाकर, आपस में झगडे करवाकर आनंद लेने और अपना मंतव्य साधने की प्रवृति बहुतायद से थी । किंतु फिर भी महात्मा तो महात्मा - बहते पानी सी प्रवृति के साथ अपने काफिले सहित रात्रि-विश्राम से दूसरे दिन की उर्जा संरक्षण के समयानुसार जितने भी आवश्यक समय वे वहाँ रुके लोग उन्हें देखने, सुनने व उनकी सेवा-सुश्रुषा के निमित्त उनके नजदीक तो आये । उन सभी लोगों को महात्मा ने वहाँ से विहार करते हुए आशीर्वाद दिया - बने रहो, आनंद करो ।

          फिर आगे की रात्रि में दूसरे किसी गांव में स्थिति इससे बिल्कुल उलट देखने को मिली- वहाँ साधुओं ने देखा कि वहाँ के निवासियों में त्याग, सेवा भावना और परमार्थ जैसे गुणों से ओत-प्रोत लोगों की संख्या बहुतायद में थी । वहाँ से विहार करते वक्त महात्मा ने उन्हें सामूहिक रुप से आशीर्वाद दिया कि उजड जाओ ! बिखर जाओ !

          उनके कुछ शिष्यों को उनका दोनों ही विपरीत गांवों के लोगों को दिये जाने वाले आशीर्वाद का कारण जब समझ में नहीं आया तो आगे चलते हुए एकांत में उन शिष्य साधुओं ने महात्मा से पूछा । गुरुदेव जिस गांव में दुष्ट प्रवृति के लोगों की भरमार थी, जहाँ आपस में एक-दूसरे को नुकसान पहुँचाकर अपना स्वार्थ साधने व आनंद लेने वाले व्यक्तियों के हुजूम के हुजूम निवास करते थे वहाँ तो आपने आशीर्वाद दिया कि - बने रहो आनंद करो, और जिस गांव में त्यागी, सेवाभावी व स्वयं भूखे रहकर भी मेहमानों को भूखे न जाने देने जैसी भावना वाले लोग मौजूद थे वहाँ आप आशीर्वाद दे आये कि उजड जाओ, बिखर जाओ । ऐसा क्यों गुरुदेव ?

         
महात्मा ने तब उन्हें उसका कारण समझाते हुए बताया कि जहाँ दुष्टता बहुतायद में भरी हो वे लोग यदि वहीं रहेंगे तो उनकी दुष्टता का दायरा भी सीमित क्षेत्र में ही सिमटकर रह जावेगा और समाज के बहुसंख्यक लोग उनकी दुष्टता के कपटजाल से बचे रह सकेंगे । इसके विपरीत जब त्यागी, सेवाभावी और परमार्थ में सुख ढूंढने वाले लोग यदि यहाँ से उजड और बिखर जावेंगे तो वे जहाँ-जहाँ भी जावेंगे अपने इन गुणों के कारण न सिर्फ बहुसंख्यक लोगों के लिये मददगार साबित होंगे बल्कि इनकी सोहबत में आने वाले भी इन्हीं गुणों को अपनाते हुए सम्पूर्ण मानव-जाति के उच्चस्तरीय विकास में सहायक बनते चले जाएँगे ।

          बात तो छोटी सी है - निःसंदेह पहले सभी की कहीं न कहीं देखी-सुनी हुई भी रही हो किंतु है तो अपने अंदर गूढ अर्थों को छिपाये रखने वाली । इसीलिये हम देखते हैं कि वैवाहिक आयोजनों में दुष्ट प्रवृत्ति के पति अथवा पत्नी का संबध अपने से विपरीत स्वभाव वाले सीधे-साधे व्यक्ति के साथ हो जाता है तो अधिकांशतः आगे के जीवन में उस सीधे-साधे व्यक्ति की जिंदगी नर्क बन जाती है जबकि यही मिलाप पति-पत्नी के रुप में एक समान दुष्ट प्रवृत्ति के स्त्री-पुरुषों में हो जाता है तो आगे चलकर उनके परिवार में दुष्टों व अपराधियों की फौज जमा हो जाती है और जहाँ पति-पत्नी एक समान त्यागी व सेवाभावी प्रवृत्ति के मिल जाते हैं तो...

         
राम - कृष्ण, गौतम जैसे अनेकानेक वे सभी देवी-देवता जिनका उदय माता के गर्भ से हुआ और जिन्हें आज तक अलग-अलग समुदायों में हजारों लाखों लोगों के द्वारा भगवान के रुप में पूजा जाता रहा है ऐसी दिव्य संतानें समाज के सामने बारम्बार आई और आती रही हैं । निःसंदेह आज हम कालखंड की भाषा में कलियुग में जी रहे हैं और परमार्थ से परिपूर्ण त्यागी वृत्ति के लोग आज उंगलियों पर गिने जाने जैसे रह गये हैं, किंतु फिर भी हैं तो ।

      वर्तमान समय में यदि ऐसे किसी दम्पत्ति अथवा उनकी संतानों के बारे में उदाहरण सहित बात करने की आवश्यकता हम देखें तो जैन समाज में सर्वोपरी आचार्य मुनि श्री विद्यासागरजी महाराज का नाम निःसंकोच  लिया जा सकता है जिनके गुणों का विस्तार एक लम्बे-चौडे  साधु संघ के रुप में देखे जाने के साथ ही न सिर्फ उनके चारों-पांचों भाई  भी उनके निर्देशन में मुनि - जीवन गुजार रहे हैंबल्कि उनके जन्मदाता माता-पिता भी उन्हीं के निर्देशन में इसी त्यागी व मुनि जीवन की निर्वाहना करते चल रहे हैं ।

           

14.5.16

नेटवर्क मार्केटिंग - तथ्यात्मक रिपोर्ट...

          एक ओर जहाँ कुछ लोग 5 साल मैं अपना दिमाग ना चलाकर भी करोडपती बन जाते हैं,  वहीं कुछ समझदार लोग निरन्तर अपना दिमाग चलाकर पूरी जिंदगी एक सामान्य सी नौकरी में बिता देने के बाद भी अपनी समझदारी नहीं छोडते ।  इसलिये आपसे निवेदन है कि अपनी समझदारी को एक ओर रखकर जरा Govt. की और World के बडे बडे BUSINESS MANS की बातों को सुनें कि वो क्या कह रहे है NETWORK MARKETING  के संदर्भ में-
 
 DR A.P.J.ABDUL KALAM -
          NETWORK MARKETING is the Fast Growing BUSINESS of 21st Century  whitch must be joined by Every Young Man And Women Globally. Otherwise you can Never get the Best of your Youth Age.

RAM VILAS PASWAN -
       NETWORK MARKETING is the future BUSINESS in India. This is the 21st Century BUSINESS and this Business will Give the Revenue of 9000 Crore to Indian Govt Till 2025.

FICCI & KPMG -
          The NETWORK MARKETING industry in India Estimated to be INR Billion (2012-13), and forms only around 0.4% of total Retail sales. This industry Has the Potential to Reach size of INR 645 Billion by 2025.

BILL GATES ( MICROSOFT CEO)-
          If I Would Be a chance to Start All over again. I would choose NETWORK MARKETING .

DONALD TRUMP-
          NETWORK MARKETING has proven itself to be a viable. There have been some Remarkable Examples of SUCCESS .

LES BROWN-
          NETWORK MARKETING has Produced More Millionaires than any other Industry In the HISTORY OF WORLD.

BILL CLINTON (AMERICAN PRESIDENT)-
          You Strengthen our Country and Our Economy not just by striving for your own SUCCESS but by Offering the Opportunity (NETWORK MARKETING ) to Others .

ROBERT KIYOSAKI-
          NETWORK MARKETING Gives people the Opportunity with very Low Risk and very Low Finantional Commitment to Build their Own Income Generating ASSET and Acquire GREAT WEALTH.

          बडे बडे बिजनेसमैन और Govt. के इतने बडे स्टेटमेंट देने के बाद भी कुछ पुरातनपंथी सोच वाले हद से ज्यादा समझदार और ज्ञानी लोग NETWORK MARKETING को चेन सिस्टम,  मेम्बर बनाने वाला काम,  और कोई स्कीम समझ लेते है ।  उनसे यही प्रार्थना है कि पुरातनपंथी सोच को बदलकर 21st Century में आएँ,  वरना वही हाल होगा जो HMT Watch  और NOKIA Mobile का हुआ । Nokia ने ANDROID Technology को Accept नहीं किया और मार्केट से खत्म हो गया, और  फिर जब तक सोचा तब तक बहुत देर हो चुकी थी ।

          दोस्तो NETWORKING  दुबई,  अमेरिका, चीन,  मलेशिया, आस्ट्रेलिया, जापान, कोरिया, थाईलैंड, सिंगापुर, वियतनाम और पूरी दुनिया में कई जगह इसकी DEGREE पिछले 40-50 सालों से पढाई जा रही है, हमारे भारत के  SOUTH INDIA
कर्नाटक में पिछले 4 साल से NETWORK MARKETING की DIGREE कराई  जा रही है,  पिछले एक साल से हमारी दिल्ली मे DELHI UNIVERSITY मे BUSINESS MBA मे  NETWORK MARKETING  का पूरा  SEMESTER आ  गया है ।

          जबकि अभी भी कुछ नादान, नासमझ और इन सबसे अनजान लोग जो खुद को बहुत ज्यादा समझदार समझते हैं, जबकि ये सिर्फ ऐसे लोगों का वहम मात्र ही है, वे लोग इस बिजनेस को Chain System, Member,  Scheme  और बेकार का काम, बेवकूफ बनाने वाला काम व  ऐसा ही कुछ समझते हैं,  कारण सिर्फ एक ही है कि वे लोग अभी तक
अपनी पुरातनपंथी सोच में ही जी रहे है । उनकी आँखें तब खुलेंगी जब उनके खुद के बच्चे 2018 के बाद Collage से NETWORKING की Digree लेकर निकलेंगे ।  जैसे-
          B. NET - BACHLOR OF NETWORKING
          M. NET- MASTER OF NETWORKING
          MBA. NET- MBA IN NETWORKING

          हमारा भारत अमेरिका से 50 साल पीछे है, अमेरिका मे 40% से 50% लोग NETWORK MARKETING बिजनेस में है  और हमारे भारत मे सिर्फ 0.4%  लोग ही इस बिजनेस मे हैं, कारण सिर्फ एक ही है । पुरातनपंथी सोच,  जो वक्त के साथ खुद मे बदलाव करना नही जानते, और ना बदलाव करना चाहते हैं । वास्तव में लोगों को इस बदलाव को समझकर व Open Minded होकर Free of Cost NETWORKING सीखना और अपनी जिंदगी में उम्मीद से भी कहीं ज्यादा पैसा कमाना है या कमाना चाहते है तो उनके साथ हाथों से हाथ और कंधे से कंधा मिलाकर साथ चलने के लिये बहुत से लोग खडे  है ।  बस निर्णय आपको ये करना है कि आपको  कितना
पैसा चाहिये और क्यों चाहिये ?  बाकि सब टीम वर्क पर छोड दें ।
          वस्तुतः  नेटवर्क मार्केटिंग सबका साथ - सबका विकास वाला एक साफ-सुथरा क्षेत्र है । बदलते वक्त के साथ जो खुद को बदल लेता है,  सफलता भी उसके ही कदमों में  होती  है ।

          Change your Thoughts because "Thoughts are the cause & Condition is the Effect".

13.5.16

ऐसा भी धन किस काम का...?

          अपने रोजमर्रा के जीवन में हम ऐसे कई दिग्गजों से मिलते हैं जो कार्यकारी घंटों में लाखों रु. के लेन-देन में व्यापार करते हैं, चुटकियों में करोड, दो करोड रु. इन्वेस्ट कर सकने की बात करते हैं और निश्चित रुप से वो ये बातें कोई गपबाजी के रुप में नहीं बल्कि पूरी गंभीरता से करते दिखाई देते हैं । उनकी हैसियत का प्रमाण उनके घरों में मौजूद लाखों रु. मूल्य की गाडियां, अपने वयस्क बच्चों के मनोविनोद हेतु लाख दो लाख रु. के मोबाईल व लेपटॉप जैसे आधुनिक उपकरण उन्हें हँसते-हँसते दिलवा देने के साथ ही उनके घूमने-फिरने के लिये वर्ष में तीन-चार बार हजारों-हजार रुपये राजी से या ना राजी से खर्च कर देने में भी दिखाई देता है ।

     यदि कभी उनके घरों में वैवाहिक आयोजन हो तो चाहे पूरी चतुराई से ही सही किंतु लाखों रुपये भोज व विवाह व्यवस्था में व यदि कभी मकान बन रहा हो तो उतनी ही चतुराई से लाखों रुपये फर्श, इलेक्ट्रिसिटी, फर्नीचर व इनॉगरेशन जैसी व्यवस्थाओं में भी खर्च करते ये दिख जाते हैं । निःसंदेह इन जगहों पर की जाने वाली उनकी चतुराई की हम आलोचना नहीं कर सकते क्योंकि हममें से जो भी उस स्थान पर होगा वह अपने खर्च हो रहे पैसे का सवाया नहीं तो पूरा-पूरा मूल्य अवश्य हासिल करना चाहेगा ।

          किंतु आश्चर्य तब होता है जब वे ही श्रीमंत अपने उच्च स्तरीय आराम-तलब जीवनशैलीगलत खान-पान या अपनी लाईफ-स्टाईल में ऐसी ही कमियों या गल्तियों के कारण स्वयं, पत्नी, भाई, पिता जैसे संबंधों के मध्य जब पथरी, घुटने या जोडों की स्थाई समस्या, खूनी पॉईल्स (मस्से) या इन जैसी चिपकू बीमारियों की गिरफ्त में आते हैं तो समस्या के स्थायी समाधान के नाम पर कुछ सौ या हजार रुपये जैसे जरुरी खर्च करने से भी न सिर्फ निरन्तर बचने की कोशिश करते दिखते हैं बल्कि मुफ्त उपचार का कोई जादुई फार्मूला ढूंढने में निरन्तर लगे रहते हैं और न सिर्फ दुःख पाते रहते हैं बल्कि समस्या को अन्दर ही अन्दर बढवाते चले जाते हैं । उस पर तुर्रा यह कि मुफ्त उपचार के तरीके यदि मिल भी जावें तो वहाँ भी पूरी निष्ठा से उस पर अडिग रहकर उपचार की निरंतरता बनाये रखें बगैर तुरत-फुरत उस विधा को नकारते हुए दूसरे किसी मुफ्त के चमत्कारिक फार्मूले ढूँढने में लग जाते हैं । ऐसा ही व्यवहार ये अपने यहाँ कार्यरत सेवकों (नौकरों) के मसले पर भी दिखाते हैं जहाँ कम-से-कम वेतन देकर ज्यादा से ज्यादा समय उन्हें काम में जोते रखना और हमेशा इस बात का ध्यान रखना कि उस अवधि में गल्ति से  भी वो फ्री बैठा न दिख जाए, नतीजतन वर्ष में तीन-चार बार नये-नये नौकरों को उनके कार्यालय  में आते और असंतुष्टावस्था में जल्दी से जल्दी वहाँ से विदा हो जाते देखने में दिखाई देता है । आधी बार उन नौकरों के बगैर दुःख तो ये पा लेंगे किंतु आवश्यक रुप से पर्याप्त वेतन व फुरसत के थोडे भी कुछ पल उन्हें लेते देख पाना इन्हें गवारा नहीं दिखता ।

           हर समय अपने मिलने-जुलने वालों से एक जैसी बीमारी की निरंतर चर्चा करते रहना इस बात को भी प्रमाणित करता है कि समस्या तो न सिर्फ है, बल्कि निरन्तर बैचेन व दुःखी भी इन्हें बनाये हुए है किंतु यहाँ आकर उपचार के नाम पर आवश्यक पैसे  चमडी जाये पर दमडी न जाये वाली शैली में खर्च ये नहीं कर सकते फिर तकलीफ चाहे जैसी व जितनी भी क्यों न हो व्यवस्थित उपचार हेतु आवश्यक पैसा तो इनके पास से छूटते नहीं दिखता ।

          इस जैसी हैसियत के लोग कभी भी और कहीं भी 50-55 वर्ष से कम उम्र के तो हो नहीं सकते । मनुष्य का सामान्य जीवन यदि 70-75 या 80 वर्ष भी आंक लिया जावे तो जहाँ सामान्य हैसियत के लोग कर्ज लेकर भी उपचार करवा लेने को तैयार दिखाई देते हैं वहीं इनके जैसे श्रीसम्पन्न लोग  ऐसी आवश्यक मद पर जरुरी रकम कभी भी और कितनी भी बार खर्च कर सकने जैसी बेहतर आर्थिक स्थिति में होने के बावजूद भी उस पैसे को बचाते चले जाने और परिवार सहित दुःख पाते हुए जीते चले जाने के क्रम को इस शैली में निभाते दिखते हैं जैसे आगे के जीवन में इन्होंने पैसा तो अब कमा पाना नहीं है और जिंदगी इसी पैसे में 150-200 साल से भी ज्यादा जीना है ।

            जीवन को तो उसके सामान्य समय पर खत्म हो ही जाना है और ये सारा सब-कुछ तब यहीं अगली पीढी के पास उनके कमाए बगैर ही जाना है । इधर उपर जाने पर यमराज भी इनसे कह सकते हैं कि भैया जब तुम्हें पृथ्वी पर स्वर्ग जैसी जिंदगी जीने का मौका हमने दिया था और तुम वहाँ नर्क जैसा जीवन जीते हुए ही यहाँ आए हो तो बेहतर है कि अब तुम नर्क में ही रहो क्योंकि यहाँ भी यदि मैंने तुम्हें स्वर्ग में भेज दिया तो रहोगे तो तुम अपनी आदत के मुताबिक नर्क जैसी शैली में ही और वहाँ का माहौल भी खराब ही करोगे तो बेहतर है तुम वहीं जाकर रहो जहाँ रहने की तुम्हारी आदत व फितरत है ।

          दूसरी ओर अगली पीढी को जितनी ज्यादा मात्रा में बगैर कमाया धन मिल जावेगा तो वह उन्हें पारिवारिक संस्कार के चलते व्यसनी भले ही न बनावे किंतु लम्बे समय तक अकर्मण्य व निखट्टू तो निश्चित रुप से बना ही देगा । फिर यदि अधेडावस्था में किस्मत अथवा परिस्थिति की मार के चलते कभी ये आर्थिक संकट में आये तो आदत व अनुभव की सीमितता में तब इन्हें भी समाधान कम व परेशानी ज्यादा ही उठानी पडेगी । तो इस लोक और परलोक दोनों ही स्थानों पर हम साधन संम्पन्न होने के बावजूद भी दुःख पाते हुए ही यदि जिएँ तो फिर यह सोचने में क्यों नहीं आना चाहिये कि आखिर किस काम का ऐसा धन ? हमारे पुरखों की मान्यता थी - 
पूत सपूत तो क्यों धन संचय,
और    पूत कपूत तो क्यों धन संचय । 


             
और यही सिद्धांत अगली पीढियों के लिये उपयुक्त अवस्था में  सदियों से चलन में देखने में आता रहा है ।  तो क्यों न हमें  यह  सोचना चाहिये कि यदि हमारे पास पर्याप्त सम्पन्नता है और हम उसे अपने ही शरीर के पोषणसंरक्षण पर भी खर्च नहीं कर पा रहे हैं तो आखिर उस सम्पन्नता का औचित्य क्या है  ? 

4.5.16

बुलेट ट्रेन V/s बहुसंख्यक सुविधा ट्रेन

               
         जैसे ही ट्रेन रवाना होने को हुई, एक औरत और उसका पति एक ट्रंक लिए डिब्बे में घुस पडे़ । दरवाजे के पास ही औरत तो बैठ गई पर आदमी चिंतातुर खड़ा था । जानता था कि उसके पास जनरल टिकट है और ये रिज़र्वेशन डिब्बा है ।
 
         टीसी को टिकट दिखाते उसने हाथ जोड़ दिए । "ये जनरल टिकिट है, अगले स्टेशन पर जनरल डिब्बे में चले जाना । वरना आठ सौ की रसीद बनेगी ।" कहते हुए टीसी आगे चला गया।
 
         पति-पत्नी दोनों बेटी को पहला बेटा होने पर उसे देखने जा रहे थे । सेठ ने बड़ी मुश्किल से दो दिन की छुट्टी और सात सौ रुपये एडवांस दिए थे । बीबी और लोहे की पेटी के साथ जनरल बोगी में बहुत कोशिश की पर घुस नहीं पाए थे । लाचार हो स्लिपर क्लास में आ गए थे।
 
          "साब, बीबी और सामान के साथ जनरल डिब्बे में चढ़ नहीं सकते । हम यहीं कोने में खड़े रहेंगे । बड़ी मेहरबानी होगी ।" टीसी की ओर सौ का नोट बढ़ाते हुए कहा।
 
          "सौ में कुछ नहीं होता । आठ सौ निकालो वरना उतर जाओ।"
 
         "आठ सौ तो गुड्डो की डिलिवरी में भी नहीं लगे थे साब । नाती को देखने जा रहे हैं । गरीब लोग हैं, जाने दो न साब ।" अबकि बार पत्नी ने कहा- "तो फिर ऐसा करो, चार सौ निकालो । एक की रसीद बना देता हूँ,  दोनों बैठे रहो ।"
 
          "ये लो साब,  रसीद रहने दो । दो सौ रुपये बढ़ाते हुए आदमी बोला ।

         "नहीं-नहीं रसीद तो बनानी ही पड़ेगी । देश में बुलेट ट्रेन जो आ रही है । एक लाख करोड़ का खर्च है । कहाँ से आयेगा इतना पैसा ?  रसीद बना-बनाकर ही तो जमा करना है ।  ऊपर से आर्डर है, रसीद तो बनेगी ही  ।

          चलो, जल्दी चार सौ निकालो । वरना स्टेशन आ रहा है, उतरकर जनरल बोगी में चले जाओ ।" इस बार कुछ कठोर लहजे में डांटते हुए टीसी बोला ।

          आदमी ने चार सौ रुपए ऐसे दिए मानो अपना कलेजा निकालकर दे रहा हो । पास ही खड़े दो यात्री बतिया रहे थे।"  ये बुलेट ट्रेन क्या बला है  ?

          "बला नहीं जादू है जादू ।  बिना पासपोर्ट के जापान की सैर । जमीन पर चलने वाला हवाई जहाज है, और इसका किराया भी हवाई सफ़र के बराबर होगा, "बिना रिजर्वेशन उसे देख भी लो तो चालान हो जाएगा । एक लाख करोड़ का प्रोजेक्ट है । राजा हरिश्चंद्र को भी ठेका मिले तो बिना एक पैसा खाये खाते में करोड़ों जमा हो जाए ।"

          सुना है, "अच्छे दिन"  इसी ट्रेन में बैठकर आनेवाले हैं ।"

          उनकी इन बातों पर आसपास के लोग मजा ले रहे थे । मगर वे दोनों पति-पत्नी उदास रुआंसे ऐसे बैठे थे मानो नाती के पैदा होने पर नहीं उसके शोक में जा रहे हो । कैसे एडजस्ट करेंगे ये चार सौ रुपए ? क्या वापसी की टिकट के लिए समधी से पैसे मांगना होगा ? नहीं-नहीं, आखिर में पति बोला- "सौ-डेढ़ सौ तो मैं ज्यादा लाया ही था । गुड्डो के घर पैदल ही चलेंगे । शाम को खाना नहीं खायेंगे । दो सौ तो एडजस्ट हो जाएंगे और आते वक्त पैसिंजर से आ जायेंगे । सौ रूपए बचेंगे । एक दिन जरूर ज्यादा लगेगा । सेठ भी चिल्लायेगा, मुन्ने के लिए सब सह लूंगा । मगर फिर भी ये तो तीन सौ ही हुए ।"

          "ऐसा करते हैं, नाना-नानी की तरफ से जो हम सौ-सौ देनेवाले थे न, अब दोनों मिलकर सौ देंगे । हम अलग थोड़े ही हैं । हो गए न चार सौ एडजस्ट ।" पत्नी के कहा "मगर मुन्ने के कम करना...."

         और पति की आँख छलक पड़ी ।

        "मन क्यूँ भारी करते हो जी । गुड्डो जब मुन्ना को लेकर घर आयेंगी; तब दो सौ ज्यादा दे देंगे ।" कहते हुए उसकी आँख भी छलक उठी ।

       फिर आँख पोंछते हुए बोली- "अगर मुझे कहीं मोदीजी मिले तो कहूंगी- "इतने पैसों की बुलेट ट्रेन चलाने के बजाय, तो हर ट्रेन में चार-चार जनरल बोगी लगा दो, जिससे न तो हम जैसों को टिकट होते हुए भी जलील होना पड़े और ना ही हमारे मुन्ने के सौ रुपये कम हो ।" उसकी आँख फिर छलके पड़ी ।

          "अरे पगली, हम गरीब लोग हैं,  हमें मोदीजी को वोट देने का तो अधिकार है, पर सलाह देने का नहीं ।  रो मत.

          क्या हमें ये उम्मीद करनी चाहिये कि रेल मंत्रालय देश में जनरल बोगियों की परिस्थितियों को भी समझ सके । जिसमे सफर करने वाला एक गरीब तबका भी इसी देश का निवासी है जिसका शोषण चिरकाल से होता आया है, और आगे भी होता ही रहेगा ।

          प्रश्न निरुत्तर रह ही जाता है कि देश के लिये ज्यादा जरूरी क्या है । अल्पसंख्यकों की सुविधा के लिये बुलेट ट्रेन जो  फिलहाल तो मध्यम वर्ग की क्रयशक्ति के दायरे में भी नहीं दिखती या फिर बहुसंख्यक निम्न व मध्यमवर्ग तबके की क्रयशक्ति के अनुपात में  वर्तमान ट्रेनों में आवश्यक बोगियों की संख्या  ?

          निःसंदेह राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर देश के विकास हेतु बुलेट ट्रेन जैसी सुविधा हमारे देश में भी दिखे ये अच्छी बात है किंतु वर्तमान सुविधाओं की सामान्य मतदाता की क्रयशक्ति के दायरे में होने वाली वृद्धि भी क्या उतनी ही या उससे भी अधिक आवश्यक नहीं  है  ?