21.4.13

यौन अपराध – गंभीर समस्या...!


       
           हमारे देश में इस समय सेक्स व बलात्कार के घटनाक्रम चरम सुर्खियों में चल रहे हैं । पूर्व इसके कि इस बारे में मैं अपने मन की कुछ कहूँ, पहले प्रस्तुत है सिर्फ एक दिन के ताजे अखबार की कुछ सुर्खियां-

          1. सर्वाधिक चर्चित 5 वर्षीय बालिका के ताजा बलात्कार प्रकरण में पुलिस ने बच्ची के पिता से कहा- 2000/- रु. लो और चुप रहो । 

          2.
झूंझनू (राजस्थान) दुकान पर कंचे लेने गई 5 वर्षीय बच्ची से दुकानदार गिरधारीलाल के द्वारा दुष्कर्म ।

          3.
फतेहाबाद (हरियाणा) में टाफी का लालच देकर 4 साल की मासूम से 14 वर्षीय किशोर के द्वारा दुष्कर्म ।

          4.
घंसौर (जबलपुर म.प्र.) में दुष्कर्म की शिकार हुई 4 साल की मासूम बच्ची को उपचार के लिये एयर एम्बुलेंस से नागपुर भेजा गया । बच्ची  की हालत नाजुक बनी हुई है ।

         5.
नई दिल्ली के शाहदरा इलाके में 8 लडकों के द्वारा करीब 9 दिनों तक सामूहिक बलात्कार का शिकार बनी 13 वर्षीय पीडिता ने उन लडकों की पहचान बताने के बाद भी पुलिस के निष्क्रिय रवैये से परेशान होकर आत्महत्या का प्रयास किया । बेसुध लडकी को कडकडडूमा के हेडगेवार अस्पताल में भर्ती किया गया है जहाँ उसकी हालत स्थिर है ।

           ये तो मात्र कुछ वे उदाहरण हैं जो किसी भी कारण से चर्चाओं के दायरे में आ गये, किन्तु जहाँ भय अथवा लालच के कारण पीडित पक्ष द्वारा चुप्पी साध ली जाती हो ऐसे प्रकरण भी इस मुद्दे पर कम तो नहीं हो सकते । ऐसा लगता है जैसे कि सेक्स के लिये साला कुछ भी करेगा.

         
विरोधस्वरुप चारों ओर से ऐसे जघन्य आरोपियों को नपुंसक बना देने से लगाकर सार्वजनिक तौर पर फाँसी की सजा देने की मांग चाहे जिस पैमाने पर भी उठ रही हों किन्तु सभी जानते हैं कि न तो इस देश में ऐसे कठोर कानून बन सकते हैं और न ही आधी-अधूरी व्यवस्थाओं में इस प्रकार के अपराध रुक सकते हैं फिर इस प्रकार की जघन्य समस्याओं का समाधान कैसे हो ?

           इन्टरनेट के चलन में आने से पहले रेल्वे स्टेशन जैसे इक्के-दुक्के क्षेत्रों में ही  सामान्य से अत्यन्त मंहगे मूल्य पर मस्तराम जैसे नामों की कामुक पुस्तकें चोरी-छुपे बिकती देखने में आती थी जिन्हें उनके पाठक दुकानदार से जान-पहचान के आधार पर ही खरीदकर पढ पाते थे । किन्तु अब ये जहर इन्टनेट के माध्यम से घर-घर में अपनी आसान पैठ बिल्कुल मुफ्त में बना चुका है और वे सभी जरुरतमंद लोग जो अपनी सामाजिक बाध्यताओं जैसे- आर्थिक आधार अथवा लिंगानुपात के अंतर के चलते समय पर विवाह न हो पाना, शरीरिक रुप से अपंगता की स्थिति होना, पत्नी का समय के पूर्व गुजर जाना या किसी और पुरुष के साथ अन्यत्र चले जाना, या फिर अश्लील चित्र, साहित्य व पोर्न वीडीओ  के निरन्तर बढते चलन के कारण समय पूर्व यौनेच्छा जाग्रत होना, जैसे अनेक कारणों के चलते इच्छाएँ पाल तो सकते हैं किन्तु उन्हें पूरा नहीं कर सकते वे आखिर और क्या करेंगे ?

           अपनी किशोरावस्था का एक बडा समय मुम्बई में गुजारने के दौरान मेरे देखने में आया था कि वहाँ हर कदम पर 'बाई व बाटली' आसानी से उपलब्ध हो जाती थी ।  तब पीला हाऊस जैसे क्षेत्रों में वहाँ खुलेआम देह व्यापार चलता दिखता  था और इस सुविधा के कारण वहाँ आधी रात को भी अकेली जा रही किसी युवती के उपर यौनाक्रमण जैसे समाचार ना के बराबर ही सुनने-देखने में आते थे ।

      यद्यपि अब मैं उस महानगर के संपर्क में नहीं हूँ किन्तु यह बात अब भी दिखाई देती है कि दिल्ली जैसे देश की राजधानी वाले महानगर की तुलना में आज भी वहाँ से इस प्रकार की खबरें आनुपातिक रुप से ना के बराबर ही सुनने को मिलती हैं और उसका कारण मुझे तो यही लगता है कि बरसों पूर्व आसान सेक्सपूर्ति की जो सुविधाएँ वहाँ मौजूद थी वो किसी भी बदले हुए रुप में आज भी अनिवार्य रुप से मौजूद होंगी । फिर जब आसानी से कुछ रुपये देकर इन्सान अपनी यौनउत्तेजना को संतुष्ट कर लेता हो तो फिर उसे किसी युवा किशोरी को घेरकर सामूहिक बलात्कार करना या वैसी सुविधा न दिखने पर किसी भी 4-5 वर्ष के आसपास की किसी दुधमुंही बच्ची जो आसानी से शिकायत भी न कर सके को उठाकर, बहलाकर अपनी यौनपिपासा शांत करने का स्वयं के लिये भी खतरनाक प्रयास करना, ऐसी कुत्सित स्थितियों तक पहुँचने की शायद कोई जरुरत ही नहीं रहेगी ।
 
           किन्तु एक तरफ नारी मुक्ति आंदोलन के समर्थक सेक्स-व्यवसाय के विरोध में अपनी आवाज निरन्तर बुलन्द करते दिखाई देते हैं दूसरी ओर सरकारें भी जनता के बीच लोकप्रिय दिखने के प्रयास में ऐसे धंधों को बलात् कुचलने व रोकने में लगी रहती हैं जबकि सेक्स-व्यवसाय और कुछ नहीं तो ऐसे जरुरतमंद लोगों के लिये कचरे की उस टोकरी जितना उपयोगी तो है ही जिसकी मौजूदगी में जरुरतमंद लोग अपने शरीर के इस अनिवार्य कचरे को समाज में इधर-उधर फैलाने की बजाय रात के अंधेरे में इस कचरा पेटी में सुरक्षित रुप से छोड आते हैं और गरीब घरों की वे जरुरतमंद लडकियां जिन्हें किसी भी कारण से इस माध्यम की कमाई की उपयोगिता लगती है वे यहाँ इन जैसे जरुरतमंद लोगों की इस हवसपूर्ति को आसानी से शांत कर अपने व अपने परिवार के भरण-पोषण योग्य आमदनी भी आसानी से जुटा लेती हों, तो क्या समाज व सरकार को कुछ आवश्यक सुरक्षा उपायों के द्वारा इस व्यवसाय को घनी आबादी वाले क्षेत्रों में किसी सुनिश्चित इलाके में सीमित पैमाने पर पनपने की अनुमति नहीं देनी चाहिये

           यहाँ यह सोचना भी गलत नहीं होगा कि रोकथाम के तमाम सरकारी व सामाजिक प्रतिबन्धों के बावजूद भी ये व्यवसाय चोरी-छुपे चल तो रहा ही है, किन्तु वर्तमान स्वरुप में हर जरुरतमंद की इन तक पहुँच नहीं है और इस व्यवसाय से होने वाली आमदनी का बडा हिस्सा मात्र बिचौलियों व भ्रष्ट अधिकारियों की जेबों में पहुंचकर रह जाता है, जबकि शासकीय स्तर पर सुरक्षा मिलने से न सिर्फ उपरोक्त दर्शित जरुरतमंद तबके की इस प्रकार की आवश्यकता पूर्ण होती रह सकती है, बल्कि व्यवसायिक स्तर पर इसके चलते रहने से किसी भी अन्य व्यवसाय के समान इससे देश के राजस्व में बढौतरी भी होती रह  सकेगी ।  आज भी विश्व के कई बडे व नामी शहर इस व्यवसाय को शासकीय सुरक्षा मुहैया करवाकर अन्य शहरों व देशों से कहीं अधिक तेजी से उन्नति करते देखे जा सकते हैं और वहाँ के समाज में पुरुषों की परदे के पीछे की इस आवश्यकता के कारण युवतियों व बच्चियों पर इस प्रकार के यौनआक्रमण भी प्रायः देखने-सुनने या पढने में नहीं आ पाते हैं ।

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि क़ी चर्चा सोमवार [22.4.2013]के एक गुज़ारिश चर्चामंच1222 पर
    लिंक क़ी गई है,अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए पधारे आपका स्वागत है |
    सूचनार्थ..

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  2. बहुत सही कहा सुशील जी आपने ! मुंबई के अपने कार्यकाल के दौरान
    मुझे ऐसे कुछ इलाकों में जाने का अवसर प्राप्त हुआ था और सच में वहां किशोरवय
    एवं नाबालिग अथवा बच्चियों के साथ इस प्रकार का हवसी प्रकार नहीं होता है ।

    अभी के मेरे दिल्ली से जुड़े कार्यस्थल होने के कारण यहाँ के वातावरण से भी मैं वाकिफ
    हूँ। मुंबई ज्यादा सेंसिटिव और सेंसिबल है।

    अर्थात शहरों के अंतर का मुद्दा नहीं है परन्तु शहरों की मानसिकता का अंतर है।

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