28.2.11

सठियाने का दौर या.....

       समय के पैर नहीं होते बल्कि समय के पंख होते हैं और इसीलिये समय चलता नहीं है बल्कि उडता है । बेशक संकटकाल में एक-एक पल गुजरना भी भारी लगता हो किन्तु गुजर जाने के बाद तो कब दिन सप्ताह में बदलते हुए कैसे महिनों व वर्षों को पार कर जाते हैं यह हम सभी अपने जीवन के विगत में झांक कर देख सकते हैं ।

            59 वर्ष पूर्व आज ही के दिन एक निम्न-मध्यमवर्गीय परिवार की 8 सन्तानों में 4 पुत्र और 2 पुत्रियों के बाद 7वें क्रम पर जन्म लेने वाले इस बाबू की संघर्षशील जीवनयात्रा जीवन के विभिन्न पडावों से गुजरते हुए आज उम्र के 60वें वर्ष में प्रवेश कर रही है । मानव जीवन की उम्र से जुडा यह ऐसा अंक भी है जिसके लिये एक तरफ लोग कहते हैं कि अब यह सठियाने की उम्र है, तो दूसरे वर्ग का कहना होता है कि  'साठा सो पाठा' । एक ओर जहाँ अच्छी-खासी उम्र के स्त्री-पुरुष इस बाबू को अंकल ही नहीं बल्कि परिस्थिति विशेष में पापाजी के संबोधन से भी नवाज जाते हैं वहीं परिवार में सबसे छोटा रहने के कारण और एक भाई को छोडकर शेष सभी  बडे भाई-बहनों के स्वस्थ व सक्रिय जीवन में अपने सरपरस्त के रुप में  समक्ष मौजूद रहने के कारण इसका बालपन अपने समस्त खिलंदडे स्वभाव के साथ इसमें मौजूद रहा है और ईश्वर से यही प्रार्थना भी है कि ये बालपन इस काया के रहने तक तो इसमें ऐसे ही कायम भी रहे ।

            पिताजी की सीमित आमदनी और बडे परिवार में सबकी अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाओं के चलते अपने से बडे भाई के साथ प्रिन्टिंग-प्रेस में कम उम्र से जुड जाने का जो सिलसिला एक समय महज जेबखर्च के सामान्य माध्यम के रुप में शुरु हुआ था उसने जीवन में अपनी ऐसी पेठ भी बनाली कि बाद के समय में इससे बेहतर की चाह में अन्य व्यवसाय आजमाने के बाद भी "जैसे जहाज का कोई पंछी, उड-उड जहाज पर आवे" की तर्ज पर हर बार अन्तिम शरणगाह यही व्यवसाय बना रहा और इसने भी जीवन में आर्थिक उन्नति के सामान्य क्रम को बनाये रखने की आवश्यकता से मुझे कभी मायूस भी नहीं होने दिया ।

            अब जब इस यात्रा में पीछे मुडकर देखने की सोच बनती है तो  लगता है कि चाहे पूर्व में दूसरों के लिखे को प्रकाशित करने का या बताने-समझाने का लक्ष्य रहा हो या अब ब्लागर के रुप में स्वयं अपने लिखे को पाठकों के समक्ष लाने का, किन्तु तब से अब तक शब्दों का ये सफर तो निरन्तर जारी ही रहा है । अपने इस शब्द-सफर के सहभागी रहे श्वेत-श्याम युग के ये चित्र अब कैसे दिखते हैं-
शब्दों के इस सफर के हमराही...

तब 1969.


चले कहाँ से,

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राहें... 1973


कहाँ पे आए.

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राहें... 1983


बहार बनके यूं मुस्कुराए

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और अब 2011.


 न कैसे आसान होती मंजिल, खुदा भी खुद हमपे मेहरबां था.

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       सामान्य रुप से सभी इन्सान अपना जन्मदिन अपने परिजनों के बीच मनाते हुए अपना जीवन गुजारते चलते है किन्तु ब्लाग्स माध्यम से जुडे सभी व्यक्तियों को ये अतिरिक्त सुख भी हासिल हो जाता है कि वे इस विशेष दिन अपने जीवन के गुजरे पलों को लिखित रुप में संस्मरणात्मक रुप में सहेजते हुए इस वैचारिक माध्यम से न सिर्फ विगत में झांक लेने की दस्तावेजी कोशिश भी कर लेते हैं बल्कि उस समय विशेष में इस स्थिति में किसी न किसी रुप में अपने विचारों को इस माध्यम से ऐसे रुप में दर्ज भी कर लेते हैं जहाँ किसी डायरी के रुप में ही सही आगे भी उस पर अपनी नजर डाल सकें ।

           वैसे तो हम सभी ब्लागर्स पूरी तरह से अनार्थिक उद्देश्य से ही यहाँ ब्लागिंग कर रहे हैं याने सिर्फ स्वान्त-सुखाय के लिये ही इस माध्यम से जुडे हुए हैं लेकिन फिर भी सभीने अपनी-अपनी सुविधानुसार इसे कहीं जन-जागृति फैलाने के नाम पर, तो कहीं समाज सेवा के लिये, कहीं ज्ञान के आदान-प्रदान के लिये और कहीं लोकप्रियता की दौड में आगे बने रहने के लिये जैसे उद्देश्यों को भी कहीं न कहीं दिमाग में बैठा भी रखा है, किन्तु आज की मेरी ये पोस्ट तो स्वान्त सुखाय ही है ।
  
    

24.2.11

ब्लॉगर V/s साहित्यकार...

           
           इस समय सब तरफ एक अंतहीन बहस 'साहित्य बनाम ब्लाग्स' पर लगातार चलते हुए दिख रही है । कहीं आमने-सामने की कुश्ति की लंगोटें कसी जा रही हैं तो कहीं ब्लाग्स के अस्तित्व को समाप्त करवा देने जैसी चेतावनीयुक्त  गीदडभभकी के दर्शन हो रहे हैं और कहीं तो ब्लागर्स V/s साहित्यकारों के बीच प्रथम विश्वयुद्ध छिडने जैसा रोमांचकारी माहौल भी बनते दिख रहा है । संभवतः ब्लाग माध्यम की चौतरफा बढ रही दिन दूनी-रात चौगुनी लोकप्रियता से कुढकर कुछ तथाकथित साहित्यकारों का एक वर्ग इस ब्लाग-विधा को निकृष्टतम श्रेणी में आंकने की कोशिशों में ही लगा दिख रहा है और लगभग सभी उल्लेखनीय ब्लाग्स व टिप्पणियों को पढते हुए जो कुछ मेरी समझ में आ रहा है मैं उसे यहाँ कलमबद्ध करने की कोशिश कर रहा हूँ-
  
          'साहित्यनिश्चित रुप से बडा ही व्यापक अर्थों वाला शब्द रहा है जिसके दायरे में मैंने अपने प्राथमिक शिक्षण काल से ही हिन्दी भाषा के उन सभी ऐतिहासिक कवियों व लेखकों को उनकी रचनाओं के साथ बार-बार सुना व पढा है जिन्हें साहित्य के सन्दर्भ में हम कालजयी नामों के रुप में (जिन सभी का उल्लेख करना इस लेख को अनावश्यक लम्बाई में फैलाना ही होगा) आज तक देखते, सुनते व पढते आ रहे हैं । उनमें से बहुत कुछ तो अब इस इन्टरनेट (अन्तर्जाल) पर भी आसानी से उपलब्ध मिल रहा है, और अपने प्राथमिक शिक्षण काल के जिस दौर की मैं बात कर रहा हूँ वह युग तरक्की व यातायात के साधनों के रुप में बैलगाडी से चलते हुए तांगों तक के प्रचलन का ही युग रहा था ।
  
          कुछ और आगे बढने पर जब हम आटोरिक्शा, व टेम्पों जैसे यातायात के विकसित साधनों के दौर में आये तब तक साहित्य के क्षेत्र में भी साप्ताहिक हिन्दुस्तान, धर्मयुग जैसी पत्रिकाओं का चलन प्रारम्भ हो चुका था जिनमें साहित्य के पूर्व रुप को कायम रखते रहने के बावजूद विभिन्न विषयों पर छोटे-छोटे लेख, कथा, कहानियां, राजनैतिक समाचार, सुप्रसिद्ध व्यक्तियों के साक्षात्कार आदि भी स्थान पाने लगे थे ।
  
          विकास के इसी दौर में कुछ और आगे आने पर जब हम तेज गति की बसों व रेलगाडियों के साथ ही कम क्षमता वाले हवाई-जहाजों के युग तक आए तब तक प्रिन्टिंग विधा में भी समानान्तर विकास के चलते गुलशन नंदा, ओमप्रकाश शर्मा, वेदप्रकाश काम्बोज और इसी श्रेणी के अगनित उपन्यासकार अपनी-अपनी रचनाएं जनसाधारण के समक्ष लेकर उपस्थित होने लगे और तब का पाठकवर्ग उन्हें भी बडे चाव से अपने पढने के दायरे में समेटता दिखता रहा । तब भी स्वयं को प्रथम श्रेणी के साहित्यकार समझने वाले तबके मे ऐसे सामाजिक व जासूसी उपन्यासकारों की स्वयं के बीच मौजूदगी और अपने से अधिक लोकप्रियता हासिल करने की स्थिति इनमें एक विशेष किस्म की बैचेनी का भाव पैदा करते दिखाई देती थी जिसकी चिन्ता गाहे-बगाहे उन स्वनामधन्य साहित्यकारों द्वारा यदा-कदा स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में देखने व पढने को मिल जाती थी । 
 
          और अब... अब तो हद ही हो गई है जैसे-जैसे हम जेट-युग में पहुँचते जा रहे हैं वैसे-वैसे कम्प्यूटर व इन्टरनेट के बढते चले जा रहे प्रचार-प्रसार ने इन ब्लाग्स के रुप में एक ऐसा माध्यम जनसाधारण में उपलब्ध करवा दिया है जहाँ हर व्यक्ति इस विधा से जुडकर इन साहित्यकारों को अपने अस्तित्व को चुनौति देते दिख रहा है । आपको सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार करना हो तो ये ब्लाग हाजिर, सरकार की कार्य-प्रणाली की आलोचना करना हो तो ये ब्लाग हाजिर, स्वयं को लेखक या कवि के रुप में प्रचारित करना हो तो भी ये ब्लाग हाजिर, और तो और अपने नाकाम प्रेम-प्रसंगों में लडकी व उसके परिवार वालों पर दबाव बनाने जैसी आवश्यकता की पूर्ति हेतु भी यही ब्लाग माध्यम सामने आ रहा है, कहीं फोटोग्राफी या वीडियोग्राफी के शौकीन लोग अपने खींचे हुए फोटो या क्लिपिंग्स इन ब्लागस पर लगाकर व दुनिया को दिखाकर आनन्दित हो रहे हैं तो जिनकी रुचि गायन विधा में है वे अपने गीतों को स्वयं की गाई आवाज में रेकार्ड कर ब्लाग्स पर प्रसारित कर अपने चाहने वालों तक पहुँचाकर इस ब्लाग विधा का लाभ लेने में लगे हैं ।
 
          अब ऐसे सर्वव्यापी ब्लाग्स से इन आधुनिक साहित्यकारों के चिढने का इसके सिवाय भला और क्या कारण हो सकता है की अब इनका लिखा वो साहित्य जो न जाने कितने प्रकाशकों की मान-मनौव्वल के बाद कभी छप पाया होगा उसे बाजार से खरीदकर पढने वाले पाठक कम होते-होते गायब होते जा रहे हैं और तो और साहित्यकार का जो उपनाम इन्होंने न जाने कितनी जद्दोजहद के बाद अपने साथ जुडवा पाया होगा आज इस ब्लाग माध्यम से अनगिनत छोटे-छोटे साहित्यकार न जाने कहाँ-कहाँ से अवतरित होकर इनके उस अस्तित्व को चुनौति देते (इनकी नजरों में) भी दिख रहे हैं । जबकि ब्लागर्स नाम की इस प्रजाति को तो मालूम भी नहीं रहा होगा कि उनकी इस विधा से वर्तमान साहित्यकार रुपी ये प्राणी अन्दर ही अन्दर किस बौखलाहट के शिकार हो रहे हैं ।
  
         ज्यादा समय नहीं हुआ है जब फिल्में देखने के शौकीन लोग घन्टों पहले से टिकिट खिडकी पर लाईन में लगकर टिकिट पाने की हसरत पूरी कर पाते थे, उंची हैसियत वाले लोग अपने पदों के हवाले से टेलीफोन करके पिक्चरों की टिकिट की जुगाड करके अपना रौब गांठते दिखते थे और टाकीज मालिक... वे तो ऐसी स्थिति में दिखते थे कि उनकी अगली पीढियों को भी अब कोई नया काम कभी तलाशना ही नहीं पडेगा । किन्तु अब... विज्ञान के प्रसार ने वीडियो क्रांति के द्वारा घर-घर में नाम मात्र के पैसों में नई से नई फिल्मों की डीवीडी उपलब्ध करवा दी और वे ही टाकीज मालिक जो कभी सिर्फ उन टाकीजों के बल पर ऐश किया करते थे उन्हे अपने टाकीजों पर ताले डाल-डालकर नये काम-धंधों की तलाश में लगना पडा ।
 
          अब ऐसे में वैज्ञानिक रुप से पूर्ण सुसज्जित आज के इन ब्लाग्स माध्यम की सार्वभौमिकता की यदि उदाहरण सहित बात की जावे तो चंद महिनों पहले तक मेरा इस माध्यम से कोई सरोकार नहीं होने के बावजूद एक बार यहाँ आने के बाद व अपने लिखे को तत्काल पाठक मिलने के साथ ही टिप्पणियों के रुप में तात्कालिक प्रतिक्रिया मिलते दिखने की इस यथार्थवादी स्थिति ने मुझे भी अलग-अलग विषयों पर लिखते रहने के लिये लगातार ही प्रेरित किया । पारदर्शिता इतनी अधिक की पूरी दुनिया में जो पाठक मेरे लेखन को मिल रहे हैं उनमें प्रथम दस देशों की यदि बात की जावे तो भारत के बाद सबसे अधिक पाठक संयुक्त राज्य अमेरिका फिर कनाडा, आस्ट्रेलिया, थाईलेंड, जर्मनी, फ्रांस, मलेशिया, संयुक्त अरब अमीरात और स्पेन से मिले । अब इसकी तुलना में वर्षों पूर्व से अपने नाम के साथ साहित्यकारों का लेबल लगाकर घूमते इन साहित्यिक प्रतिभाओं की कितनी रचनाएँ इन सुदूर देशों तक पहुँची व पढी गई होंगी ? पारदर्शिता के इसी क्रम को और भी आगे बढकर यदि सोचा जावे तो अभी 18-2-2011 को इसी ब्लाग पर प्रकाशित मेरे लेख "नये ब्लाग लेखकों के लिये उपयोगी सुझाव" को अभी तक 225 वास्तविक पाठक मिले और इनमें से 48 पाठकों की प्रतिक्रिया टिप्पणियों के रुप में मेरे सामने भी आ गई ऐसी तीव्र तात्कालिकता क्या पूर्व माध्यमों से जुडे इन साहित्यकारों को कभी उपलब्ध रही थी ?
  
          अतः बजाय इसके की इस ब्लाग माध्यम पर ये पूर्व साहित्यकार किसी भी रुप में अपनी भडास निकालें, आवश्यक यह है कि अब इसी माध्यम से जुडकर ये वर्ग भी अपनी साहित्यिक गतिविधियां आगे चलाते रहने के नये मार्ग तलाशने का प्रयास करें क्योंकि कहीं न कहीं ये दोनों माध्यम एक दूसरे के पूरक ही हैं । लेकिन यदि ये इस ब्लाग माध्यम को अपना प्रतिद्वंदी या दुश्मन मानकर इस पर दांत ही पिसते रहें तो फिर तो पुराने लोगों की शैली में जो कहावत कही जाती रही है और जिसका प्रकाशन शायद यहाँ शोभनीय नहीं लगेगा तो ताऊ महामात्य की अपनी तोतली शैली में मैं यही कहूँगा कि "लांदें लोती लहेंदी औल पावने दिमते लहेंगे"   

21.2.11

मैं तो नीं बोली.

       
           अभी दो दिन पहले आदरणीय ताऊ ने  ब्लागरत्व, जलागरत्व और ताऊत्व गुण प्रधान समीक्षक की तीन श्रेणियां हिन्दी ब्लाग जगत के पाठकों को समझाई उसे पढकर मेरी इस चिन्तनशाला में भी एक ऐसी कहानी सामने आई जिसमें ताऊ की बताई तीनों ही श्रेणियों के पात्र मौजूद दिख रहे थे तो ये सोचकर कि मौका भी है और दस्तूर भी. मैं ताऊ से परमिशन लिये बगैर ही ये गाथा आपके सामने प्रस्तूत कर रहा हूँ । आप भी इसका रसास्वादन करें-

          किस्सा कुछ यूं था कि एक तोतली महिला की तीन पुत्रियां थी और वंशगुणों के प्रभाव से तीनों ही तोतली भी थीं । अब परिवार में चार तोतलों के कारण शादी-ब्याह में समस्या आना भी स्वाभाविक था । जैसे-तैसे नाई जो उस समय रिश्तों के वाहक भी होते थे कि मान-मनौव्वल से एक दिन लडके वालों का उनके घर लडकी देखने आना तय हुआ और उनके आने के पहले ही माँ ने तीनों लडकियों को चेतावनी भी दे दी कि उन लडके वालों के सामने तुममें से कोई भी अपना मुंह नहीं खोले । लडकियों ने भी मां की सीख समझ ली ।

          समय पर लडके वाले घर आए और देखने व मिलने का क्रम चालू होते ही चौके में बिल्ली को दूध की तपेली में मुंह मारते देख ब्लागरत्व गुणों वाली सबसे छोटी लडकी के मुंह से निकल गया-  देथो-देथो बिल्ली दूद पी लई है ।

           तो जलागरत्व गुण वाली दूसरी लडकी थोडी तेज आवाज में बोली-    तेले थे तूप लेते नईं बनता, बूल दई मां ने त्या बोला था ?

           सब खेल बिगडता देखकर मां ने इशारे से चौके में लडकियों को बुलाकर कुछ गुस्से मे फुसफुसाते लहजे में डांटते हुए समझाया- तुप लेओ लांदों, त्यों थब दुल दोबल कलने पल तुली हो ?

         यह सुनते ही ताऊत्व गुण वाली तीसरी लडकी जिसके रिश्ते के लिये खास लडके वाले वहाँ आए थे उसे बडा गुस्सा आया और वो माँ से थोडा जोर से बोली- ओ माँ, तुम मेले ते तुथ मत बोलो, देथ लो ये दोनों बोली मैं तो तुछ नईं बोली ।
    
         कहने की आवश्यकता ही नहीं है कि लडके वाले वहाँ से सरपट ऐसे गायब हुए जैसे गधे के सर से सींग ।
           
    और एक गाथा बतौर श्री के. डी. सहगल साहब-

           दो मास्टर जो स्कूल से छूट्टी के वक्त बिडलाजी की फेक्ट्री पार करते हुए रोज घर की ओर अपनी सायकल पर साथ-साथ जाया करते थे उनमें एक मास्टर उस फैक्ट्री को देख-देखकर अक्सर बातचीत बन्द कर चुप्पी साध लेता था । एक दिन जब उसी स्थिति में उसके दूसरे साथी मास्टर ने उससे वहाँ पहुँचने पर रोज चुप हो जाने का कारण पूछा तो पहले वाले मास्टर ने ठंडी सांस भरते हुए कहा- यार मने जो या बिडलाजी की सगली फैक्ट्रियां मिल जावे, ई सारा दफ्तर और कोठियां मिल जावे तो मैं बिडलाजी से ज्यादा कमाके दिखा सकूं । दूसरो मास्टर बोल्यो- तो भी जो या बिडलाजी कमावे वो तू कमा लेगो, पण तू बिडलाजी से ज्यादा कंईया कमा पावेगो ? तो पेलो मास्टर बोल्यो- क्यों मैं दो ट्यूशन भी तो करुंगो ।

         

18.2.11

नये ब्लाग लेखकों के लिये उपयोगी सुझाव.




           एक अनुमान के मुताबिक इस समय औसतन 20 के लगभग नये ब्लाग्स प्रतिदिन हिन्दी ब्लाग जगत में नियमित रुप से शामिल हो रहे हैं । इनमें कई ब्लाग-लेखक बेहतरीन शैली में अपनी सोच को अपने लेखन के द्वारा अभिव्यक्त करने में पूर्ण सक्षम भी दिखते हैं लेकिन अधिकांशतः इन नये ब्लाग्स की जानकारियां आगे नहीं आ पाने के कारण दो-चार पोस्ट के बाद ये ब्लाग संभवतः गुमनामी के अंधकार में खो भी जाते हैं । ऐसा शायद इसलिये होता हो कि या तो ये ब्लागर्स ब्लाग बनाने और पोस्ट लिख लेने के बाद यह सोचकर बैठ जाते हैं कि पाठक स्वमेव आते रहेंगे और हमारे लिखे को पढकर सराहना करते रहेंगे या फिर वे समझ ही नहीं पाते हैं कि इसके आगे क्या कैसे किया जाना चाहिये ? यदि आप भी इस ब्लाग-जगत में नये हैं तो अपनी असमंजस की इस स्थिति को इस आलेख अब इसके बाद क्या ? ...और कैसे ? पर क्लिक करके समझने का प्रयास कर सकते हैं । मेरी समझ में नये की परिभाषा में वे ब्लाग्स तो आते ही हैं जो अभी महिने, बीस दिन या दो-चार दिन पहले ही बने हैं किन्तु वे ब्लाग्स भी आते हैं जो भले ही वर्ष भर से चल रहे हों किन्तु अभी तक उन पर पाठक हिट्स संख्या 1,000 तक या उनके फालोअर्स की संख्या 12-15 तक भी नहीं पहुंच सकी हो । यदि आप अपने ब्लाग के साथ इन दोनों में से किसी भी स्थिति में यहाँ हैं तो आगे की यात्रा को सहजतापूर्वक जारी रखने के लिये इन सुझावों पर अमल करके देखिये-

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1. अपने ब्लाग को विभिन्न एग्रीगेटर्स में शामिल करवाएं-

         एग्रीगेटर ही वो माध्यम हैं जहाँ हर ब्लाग लेखक अपनी ब्लाग-पोस्ट की प्रोग्रेस देखते रहने के साथ ही दूसरों के ब्लाग्स में इस समय नया क्या पढने के लिये उपलब्ध है ये जानने के लिये प्रायः बार-बार आते रहते हैं । यदि वहाँ आपका ब्लाग भी दर्ज रहेगा तो न सिर्फ वो स्वमेव ही अन्य पाठकों की जानकारी में आता रहेगा बल्कि वहाँ आपको भी विभिन्न विषयों (यथा- राजनीतिक, सामाजिक, भौगोलिक, विज्ञान, स्वास्थ्य, हास्य-व्यंग और अन्य अनेकानेक विधाओं पर उपलब्ध आलेख, कविताएं, कहानियां) ऐसे सभी तरह के ब्लागपोस्टों के बारे में ताजातरीन जानकारियां मिलती रहेंगी व लोकप्रिय ब्लाग्स लोकप्रिय क्यों हैं इन कारणों को भी आप वहाँ नोट करते हुए व उनका अनुसरण करते हुए अपने ब्लाग को भी लोकप्रियता की दौड में आगे बनाये रखने का प्रयास आसानी से कर सकेंगे । 

      ब्लागलेखन की इस दुनिया में हजारों हजार लोग अपने इस जुडाव के साथ क्या-क्या लाभ देखते हैं इसका रोचक वर्णन आप इस पूर्व पोस्ट ब्लागिंग तेरे लाभ अनेक...!  को माउस क्लिक करके पढकर समझ सकते हैं । मैं यहाँ कुछ लोकप्रिय हिन्दी ब्लाग एग्रीगेटर्स की लिंक प्रस्तुत कर रहा हूँ है आप सिर्फ माउस क्लिकिंग के द्वारा यहाँ तक आसानी से पहुँच सकते हैं और अपने ब्लाग को यहाँ पंजीकृत (रजिस्टर्ड) करवा सकते हैं । इनमें प्रमुख हैं-  हमारीवाणी,  अपना ब्लाग,  ब्लागप्रहरी,  ब्लाग परिवार,  ब्लागकूट,  हिंदी इंडली इत्यादि ।  इसके अलावा यदि आपके लिये संभव हो सके तो अपने ब्लाग को गूगल व इस जैसे सर्च इंजन में भी अवश्य दर्ज करवाएँ । 


2. अपनी रुचि के ब्लाग्स को फालो अवश्य करें-
         जब आप किसी ब्लाग को फालो करते हैं तो आपको उससे दो तात्कालिक लाभ मिलते हैं. 1. जिस ब्लाग को आपने फालो किया है संभवतः वह ब्लागलेखक भी सौजन्यता व शिष्टाचार के नाते आपके ब्लाग को फालो कर लें (यद्यपि ऐसा हमेशा नहीं होता)   और   2. जिस भी ब्लाग को आपने फालो किया है उस पर कोई भी नई पोस्ट प्रसारित होते ही आपको अपने डेशबोर्ड पर तत्काल उसकी जानकारी मिल जाती है कि मेरे पसंदीदा ब्लाग में इस समय नया क्या छपा है यह याद रखें कि इस क्षेत्र में आगे आने के लिये आप अपनी पसन्द के ब्लाग्स को फालो करने में पीछे न रहें क्योंकि न सिर्फ इसमें आपका कोई खर्चा नहीं होता बल्कि आपका फोटो निरन्तर उस लोकप्रिय ब्लाग पर दिखते रहने के कारण अन्य अनेक हिन्दीभाषी ब्लाग लेखक व पाठक आपको भी आसानी से पहचानने लगते हैं, जिसका लाभ आपको आगे तक मिलता रहता है । 

      एक और महत्वपूर्ण बात- जब भी आप किसी ब्लाग को फालो करें तो सिर्फ फालो करके ही न आ जावें बल्कि अनिवार्य रुप से एक टिप्पणी (चाहे वह 'राम-राम' ही क्यों न हो) अवश्य लिखकर आवें क्योंकि सिर्फ फालोअर्स लिस्ट के फोटो से वह ब्लागलेखक यदि चाहें तो भी आपके ब्लाग तक नहीं पहुँच पावेंगे लेकिन फालोअर्स लिस्ट के साथ ही आपकी टिप्पणी के आधार पर वो तत्काल आपके ब्लाग पर पहुँच जावेंगे और यदि वे चाहेंगे तो आपके  ब्लाग को आसानी से फालो भी कर लेंगे ।

3.  अधिक से अधिक ब्लाग लेखों पर अपनी टिप्पणियां दें-
          ब्लाग-जगत में सफलता का बहुत-बडा मापदंड ये देखने में आता है कि आपके ब्लाग पोस्ट पर कितनी टिप्पणियां आ रही हैं और यही कारण है कि अक्सर लोग अपने ब्लाग पर टिप्पणी देने वाले ब्लागलेखक को उसके ब्लाग पर भी टिप्पणी देते रहने की आवश्यक औपचारिकता की पूर्ति करते दिखाई देते हैं । लोकप्रियता की इस दौड में टिप्पणियों के महत्व को समझने के लिये आप  टिप्पणियों की अनिवार्यता और माडरेशन का नकाब ? लेख पर माउस क्लिक करके एक नजर अवश्य डालें । अब यदि आप अधिक से अधिक ब्लाग-पोस्ट पर टिप्पणी देने जाते हैं तो स्वाभाविक रुप से आपके ब्लाग पर भी टिप्पणियों का क्रम धीरे-धीरे बढना चालू हो जाता है और आप व आपका ब्लाग इस माध्यम से ब्लागजगत में परिचित होते हुए अपना स्थान सुरक्षित रखने में कामयाब होते चले जाते हैं । इसलिये अधिक से अधिक ब्लाग्स पर आप न सिर्फ अपनी टिप्पणी दें बल्कि प्रारम्भ में उस टिप्पणी के साथ अपने ब्लाग की URL Link देते हुए सम्बन्धित ब्लागर्स को अपने ब्लाग पर टिप्पणी देने के लिये आमंत्रित भी करते रहैं ।

4.  रोचक व पठनीय शैली में अपनी पोस्ट प्रकाशित करें-
           अपने मनपसन्द विषय पर मौलिक शैली में एक नियमित अंतराल पर अपने ब्लाग पर पोस्ट के प्रकाशन का सिलसिला बनाये रखें । जितनी सुनियोजित आपके ब्लाग पर पोस्ट की निरन्तरता बनी रहेगीउतना ही व्यवस्थित तरीके से आपके पाठकों का आपके ब्लाग से जुडाव  बना रह सकेगा । अपनी ब्लाग पोस्ट लिखने के लिये उपयोगी सुझाव समझने हेतु तरीका - ब्लाग लिखने का. नामक इस पोस्ट को भी एक बार अवश्य पढें । निश्चय ही इसमें प्रस्तुत सुझाव आपका पर्याप्त मार्गदर्शन कर सकेंगे ।

5. जागरुकता बनाये रखने के लिये अपने ब्लाग पर काउन्टर मीटर लगावें-
           अपने ब्लाग पर पाठकों की आवाजाही पर नजर रखने के लिये काउन्टर मीटर अवश्य लगावें और हर अगले महिने में पिछले महिने से अधिक पाठक आपके ब्लाग पर आ सकें ऐसा अपना लक्ष्य अपनी नियमित सक्रियता के द्वारा बनाये रखने का प्रयास करें । काउन्टर मीटर की गैर मौजूदगी में अपने डेशबोर्ड पर 'आंकडे' कालम पर नियमित अंतराल पर नजर रखते रहें ।
   
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     यदि आप उपरोक्त तरीकों को अमल में लाते रहेंगे तो निश्चय ही आप अपने ब्लाग को लोकप्रियता की दौड में न सिर्फ आगे बनाये रख सकने में सफल हो सकेंगे बल्कि इससे उपजी संतुष्टि जो आप महसूस करेंगे उसका पूर्व अवलोकन करने हेतु आप इस लिंक को क्लिक करके ब्लाग-जगत की ये विकास-यात्रा... लेख भी अवश्य पढें ।

         जैसे व्यापार जगत में अपना माल बेचते रहने के लिये पुराने लोगों का एक मुहावरा सुनने में आता रहता है कि "दिखेगा तो बिकेगा"बडी-बडी कम्पनियां भी इसी सिद्धान्त के तहत लाखों करोडों रुपये विज्ञापन में लगाकर टी.वी., रेडियो, समाचार-पत्र आदि माध्यमों में स्वयं के उत्पादों को दिखाती रहती हैं और सफलता के पथ पर आगे की ओर बढते रहती हैं वैसे ही आप भी इस ब्लाग-जगत में  विभिन्न एग्रीगेटर्स में, सर्च इंजिन में, समर्थक (फालोअर्स) सूचि मेंटिप्पणी बाक्स में और नियमित अंतराल में अपने ब्लाग्स पर नये-नये लेखों के द्वारा दिखते रहने के क्रम में बने रहकर 'शून्य से शिखर तक की' अपनी इस ब्लाग-यात्रा में सफलता की ओर निरन्तर आगे बढते रह सकते हैं । 
            

15.2.11

दानवीर कंजूस...!

       अभी-अभी एक रिश्तेदारी में शादी की 25वीं सालगिरह का भोजन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । उस दिन सुबह से ही दोनों बहुओं में चर्चा चल रही थी कि उन्होंने इस विशेष अवसर पर अपनी पत्नि को 50 तोला सोने के आभूषण का सेट उपहार में दिया है । मैं इन दोनों एक से बढकर एक पति-पत्नि को पहले से जानता हूँ, इसलिये मेरे सामने चल रही इस 50 तोला सोने के आभूषणों की गिफ्ट की बात पर मैं मात्र मुस्करा के रह गया, क्योंकि ये तोहफा घर में रखे पैसों को सोने जैसे सुरक्षित माध्यम में इन्वेस्ट कर देने से ज्यादा क्या हुआ ?

           इन दम्पत्ति की एक ही फूल सी कोमल व सुन्दर पुत्री है और एक ही लडका है । धंधा चाहे जो हो किन्तु लक्ष्मीजी का वरदहस्त झकाझक दिखाई देता है । अभी-अभी अपना पुराना मकान बेचें बगैर घर का नया मकान खरीदने के साथ ही टवेरा जैसी दो गाडियां भी इन्होंने खरीदी हैं जिसे ये किराये पर भी चलवा लेते हैं और वास्तविक व्यवसाय से होने वाली चलते रस्ते हीरे-पन्ने के आभूषण खरीद सकने की क्षमता वाली आमदनी का वास्तविक  स्त्रोत या तो वे स्वयं जानें या फिर उपर वाले रामजी । तो माता लक्ष्मीजी की ऐसी कृपा होने के बावजूद उस इकलौती पुत्री की शादी इन्होंने छोटे गांव में इन शर्तों के साथ ही सम्पन्न की कि हमारे पास 8-10 तोला सोने से अधिक, एकाध लाख नगद से अधिक, और इस रेंज में आने वाली इन 12-15 साडियों से अधिक लगाने के लिये कुछ नहीं है । लडके वालों को तो ऐसे अवसरों पर लडकी से मतलब होता है तो राजी-खुशी उसकी शादी की जिम्मेदारी से भी ये दम्पत्ति बरी हो लिये ।

          अब ऐसे श्रीसम्पन्न दम्पत्ति की मेमोरेबल 25वीं शादी की सालगिरह की पार्टी की बानगी देखिये- मुख्य शहर से 15 से भी अधिक किलोमीटर दूर एक धार्मिक स्थल पर जहाँ 55/- रु. प्रति थाली के मान से दाल-बाफले-लड्डू का भोजन उपलब्ध रहता हो वहाँ इन्होंने स्वयं यही मीनू अपने महाराज से बनवाया जिससे की और जो भी बचत हो सके वो हो जावे । फिर ऐसा जीर्ण-शीर्ण हाल जिसमें 50 साल से भी अधिक पुरानी टूटी-फूटी हरी फर्शियां और उपर टीन शेड की मौसम की मार से काली और जीर्ण-शीर्ण तपतपाती हुई छत मौजूद थी उसे नाम-मात्र के किराये पर जुगाडकर मेहमानों को उसमें बुलाया । भोजन की सर्विस के नाम पर ऐसे कोई सेवक-नौकर नहीं जो 200-250 मेहमानों को साफ-सुथरे माहौल में खाना खिला सकें । आप अपनी टेबल स्वयं साफ करो, अपनी थाली स्वयं उठाकर मांजने में रखो और अपने आप जाकर पानी पी लो और भेंटस्वरुप लिफाफे जो हर मेहमान अपनी हैसियत के मुताबिक दे रहे थे उसमें ही इस पार्टी के कुल खर्चे से कहीं ज्यादा आमदनी का स्कोप भी उनके लिये बखूबी बनता जा रहा था । पत्नि जरुर नई साडी और उस तथाकथित सोने के सेट को पहने घूमते हुए दिख रही थी किन्तु पति महोदय का तो पेन्ट भी पांयचे के नीचे से किनारे उधडते हुए उस समारोह में भी अलग ही नजर आ रहा था । 

           एक ओर जहाँ सामान्यजन की सोच ये रहती हो कि यदि हम मेहमानों को अपने यहाँ भोजन पर बुला रहे हों तो भले ही अपने घर में कैसे भी काम चला लेते हों किन्तु उन्हें अच्छे से अच्छा भोजन, अच्छे से अच्छा वातावरण और उन्हें कोई परेशानी न हो ऐसी सेवा पहले उपलब्ध करवाएँ क्योंकि इन्हीं से तो हमारी सार्वजनिक मेहमाननवाजी की छवि अपने परिचितों व समाज में बनती है वहीं इनकी ये महाकंजूस सोच इस रुप में कदम-कदम पर सामने दिख रही थी ।

           अभी दो दिन पूर्व ही नया सवेरा ब्लाग पर भी भूख से कुलबुलाते हुए हजारों रुपये हर जेब में अलग-अलग रखें एक सूटेड-बूटेड साहब की 2/- रु. की मूंगफली खरीदकर वह भी वापस कर देने और मुफ्त में उस गरीब खोमचेवाले की 2-5 मूंगफली चखने के नाम पर खाने का भी एक किस्सा पढा ही था । तो ऐसे कंजूस हममें से लगभग सभी को अपने दैनंदिनी के जीवन में कदम-कदम पर टकराते हुए दिखते ही हैं और इनकी इस कंजूस मनोवृत्ति के कारण वे सभी लोग जो इनके सम्पर्क में आते हैं उन्हें निरन्तर तकलीफें उठाना पडती हैं जिससे इन्हें कोई फर्क नहीं पडता ।

           एक बार ऐसे ही किसी डेड स्याणे के यहाँ चोरी हो गई । वे महोदय धाडे मार-मारकर रोते हुए विलाप कर रहे थे कि हाए मेरा तो सब कुछ लूट गया । तभी एक सन्यासी उधर से निकले, उन्होंने उस कंजूस से पूछा कि भई आखिर क्या हुआ ? तब उस कंजूस ने बताया कि मेरी तिजोरी में से चोर 2 किलो सोने का वो ढेला उठाकर ले गये जो मेरे पिताजी के मरने के बाद से मेरे पास सुरक्षित रखा था और जिसे मैंने पिछले 30-35 वर्षों से ऐसे ही सहेजकर रखा हुआ था । तब उन सन्यासी ने आसपास देखकर सडक से लगभग उतना ही वजनदार पत्थर उठाकर उस व्यक्ति को देते हुए कहा कि तेरी तिजोरी में उस सोने के ढेले की जगह इस ढेले को रखदे और समझले कि तेरा माल सुरक्षित रखा हुआ है, फिर तो उस कंजूस को बहुत गुस्सा आया और वो उस सन्यासी से बोला कि आपका दिमाग तो खराब नहीं हो गया है जो सोने के ढेले की बजाय ये पत्थर का ढेला रखवाकर मुझे समझा रहे हो कि इसे ही सोना समझकर पडा रहने दूँ । सन्यासी ने उसे मुस्कराते हुए समझाया कि तेरे पिताजी के जमाने से तू इसकी सुरक्षा कर रहा है । न तूने इसका कोई उपयोग आज तक किया और न आगे तेरा ऐसा कोई इरादा है तो फिर क्या फर्क पडना है कि तेरी तिजोरी में सोने का ढेला रखा है या पत्थर का । भले ही ये अतिशयोक्ति वाली बात हो किन्तु इन जैसे कंजूसों के लिये ही महाकवि तुलसीदास रचित एक श्लोक अपने शिक्षण काल में शायद सभी ने पढा होगा कि-

कृपणेन समो दाता न भूतौ न भविष्यति,
अस्पृसन्नैव वित्तानी य परेभ्य प्रयच्छति ।

         अर्थात् कंजूस के समान दानी इस पृथ्वी पर न कभी हुआ है और न होगा । क्योंकि जीतेजी वो अपना धन न स्वयं खाता है और न किसी को खाने देता है और मरने के बाद वो सारा धन समाज के लिये छोड जाता है ।

        आपका भी ऐसे कंजूसों से वास्ता पडता है या नहीं ?