पिछले 5 वर्ष की समयावधि में जब मैं अपनी दुनियावी जिम्मेदारियों के शायद सर्वाधिक
व्यस्त दौर से गुजर रहा था, सर्वाधिक व्यस्त इसलिये कि
महज 4 वर्ष की उम्र के अन्तराल के मेरे दो पुत्र व
एक पुत्री के अपने परिवार के शिक्षा व कैरियर सम्बन्धी जिम्मेदारियों के अन्तिम
पडाव पर आने के बाद सबकी वैवाहिक जिम्मेदारियों की चुनौतियां सामने दिख रही थी ।
तभी से समाचार पत्रों में अभिव्यक्ति के सशक्त माध्यम के रुप में इन्टरनेट पर
ब्लाग-विधा कैसे अपने पैर पसार रही है यह निरन्तर पढ रहा था जन-जन के परिचित
अमिताभ बच्चन जैसी शख्सियतें भी यहाँ आकर अपने चाहने वालों से इस माध्यम द्वारा
मुखातिब हो रही थी और आज किसने क्या कहा जैसी बातें समाचार-पत्रों में स्थाई कालम
के रुप में शोभा बढा रही थी तब अपने राम को तो इधर झांकने की भी फुर्सत ही नहीं थी
।
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समय-चक्र अपनी गति से चलता रहा । बच्चों की शादी-ब्याह की जिम्मेदारियों
से निवृत्त हुए तो दो-बहुओं की मौजूदगी में 35 वर्ष
पुराने घर की व्यवस्थाएँ अपर्याप्त लगने लगीं । घर बदलने की सोच बनी तो घर को
बेचकर वर्तमान आवश्यकताओं के अनुरुप नये घर का निर्माण करवाया । इसी अवधि में
तीनों बच्चों के परिवार में तीन और नाती-पोतों के आगमन का सौभाग्य देखते हुए मात्र 4 माह पूर्व ही नूतन गृह प्रवेश के वर्तमान अभियान से मुक्त हुए । कोई
आवश्यकता नहीं थी घर में कम्प्यूटर के साथ ही एक बालक के पास उसकी कामकाजी
आवश्यकता की यदा-कदा पूर्ति करने वाला एक लेपटाप भी मौजूद था लेकिन स्वतन्त्र रुप
से चाहे गेम खेलते रहने के लिये ही सही अपने अख्तियार में रहे ऐसा एक लेपटाप ले आए
। हफ्ते दस दिन में मेरे भतीजे के लडके ने मेरे मोबाईल पर सीमित मासिक खर्च का नेट
कनेक्शन एक्टिवेट करवाकर उसे मेरे लेपटाप से जोड दिया, तबसे
इस नेट-कनेक्शन से जुडे लेपटाप से मेरी दोस्ती चल रही है । अब चाहे
कम्प्यूटर-इन्टरनेट के तकनीकी ज्ञान की बात करें या हिन्दी लेखन की, अपना इतिहास तो इतना ही है अतः कदम-कदम पर गल्तियां होना भी स्वाभाविक ही
है ।
प्रिन्टिंग व्यवसाय से जुडे रहने के कारण कम्प्यूटर पे हल्का-फुल्का
पेजमेकर साफ्टवेयर चला लेने के अलावा टेक्नीकली विशेष कुछ आता भी नहीं था । कभी
सीरियसली इन्टरनेट भी नहीं चलाया था । लेकिन अपना हाथ जगन्नाथ की स्थिति में आकर
भ्रमण करते हुए हिन्दी ब्लाग जगत पर आ गये, यहाँ आकर
अपने लेपटाप को हिन्दी से जोडने का शौक जागृत हुआ । ई-पन्डित के लेख की जानकारी से
हिन्दी भी चालू हो गई, और येन-केन चिट्टाजगत पर ब्लाग
भी बन गया । लेकिन अब लिखें क्या जिसमें पाठक भी रुचि ले सकें, यह अनुत्तरित प्रश्न सामने आ गया । यहाँ तो एक से बढकर एक धुरंधर व अनुभवी
लेखक अपने-अपने क्षेत्र के नामचीन हस्ताक्षर, चित्र में
दिखने से विपरीत भूमिका संचालित करते महान कलाकार और गद्य व पद्य विधा के बडे-बडे
महारथी भरे पडे हैं जबकि अपनी तो स्कूल-कालेज में भी इन वजनदार उक्तियों-सूक्तयों
में डूबने की कभी रुचि नहीं रही । आवश्यकता के अनुरुप परीक्षा पास करते हुए कालेज
से निकलते ही शादी-ब्याह के बंधनों में बंधकर रोजी-रोटी से लग गये थे ।
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तो साहब समस्या गंभीर है, और आगे रास्ता कम व सुरंग ज्यादा दिख रही है । बाबा रामदेव के सामने की जमात में बैठकर योग कर लेना
या पं. मुरारी बापू के सामने बैठकर भजन-प्रवचन सुन लेना या कवि सम्मेलन में बैठकर
दाद दे लेना या पत्र-पत्रिकाओं में छपे को पढ लेना अलग बात है लेकिन इनके स्थान पर
स्वयं मंच पर आ बैठना बिल्कुल जुदा अनुभव लगता है। लेकिन फिर भी हम अब
"हिम्मते मर्दा-मददे खुदा" की सोच को सामने रखकर श्रोताओं की जाजम से
उठकर वक्ताओं की जमात में खडे तो हो ही गए हैं । क्या दाल-दलिया कैसे बना पाते हैं
प्रयास और चिन्तन जारी है, क्या आप भी इस मसले पर मेरी कुछ मदद
कर सकते हैं ? बाकि तो हारिये न हिम्मत बिसारिये न
राम वाली स्थिति है ही.
लोग कहते हैं की मैं कुछ ज्यादा ही चूजी हूँ. सही भी है क्योंकि मुझे बहुत ही कम चीजे पसंद आती है और चुनिन्दा चीजें ही बहुत पसंद आती है. मुझे ये कहते हुए गर्व हो रहा है की आपका ये ब्लॉग मुझे बहुत पसंद आया. आपसे आग्रह है की आगे भी लिखते रहें. हां अगर मेरे अन्य ब्लोग्स पर अपनी टिपण्णी देंगे तो प्रसन्नता होगी:
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