31.3.13

रंगपंचमी पर उत्सवप्रेमी इन्दौरी रंगत...


सुबह सवेरे अपने-अपने क्षेत्रों में कहीं बाल्टीयों और कहीं कोठियों में भरकर,
ओक से, गिलास, मग्गे या लोटों से भरकर भांग-ठंडाई का चकाचक वितरण.



फिर छोटे-छोटे समूह में रंगारंग जमावडा



सबसे पहले महिलाओं की मौजूदगी में राधाकृष्ण फाग यात्रा

  

फिर अलग-अलग क्षेत्रों से प्रारम्भ रंगारंग मस्ती के

जुदा-जुदा आलम





रंग बरसे भीगे शहरवासी...




और फिर दसों दिशाओं से एकत्रित हुजूम का

शहर के ह्रदय-स्थल राजबाडा पर मस्ती का महाकुंभ...






मस्ती के विभिन्न रंगों से सराबोर

रंगपंचमी पर्व पर आप सभी को

रंगारंग शुभकामनाएँ...

27.3.13

होली का चंदा...

          बचपन के दिनों में होली का डांडा गिरधारी, पकड चुटैया दे मारी... के नारों के बीच होली के एक महिने पहले से नुक्कड व चौराहों पर होली का डांडा गडने के साथ ही चंदेबाजी का दौर शुरु हो जाता था । मोहल्ले भर के लोगों को होली की शैली में चुभती हुई मीठी-मीठी उपाधि से भरी पत्रिकाएँ देखने में आने लगती थी । ऐसी ही एक धुलंडी की सुबह मोहल्ले के बंसीलालजी जब उठकर घर के बाहर आये तो ओटले पर जमा बरसों पुराना लकडी का तखत अपने स्थान से गायब देखकर चकरघिन्नी हो गये तभी उनकी धर्मपत्नी जली हुई होली की पूजा कर उम्बी सेंककर लाते हुए घर में घुसते हुए उनसे बोली कि अपने घर का तखत तो होली में जला हुआ पडा है । दौडे-दौडे बंसीलालजी नुक्कड पर गये और बाप-दादाओं के जमाने के जले हुए तखत के अवशेष देखकर माथा पीटते हुए हुडदंगियों की माँ-बहनों को याद करते हुए वापस आए । आते ही उनकी श्रीमतीजी ने भी उन्हें ही आडे हाथों लिया कि मैंने तो पहले ही कहा था कि इन चंदा मांगने वालों से हुज्जत मत करो और जो ये मांग रहे हैं इन्हे दे-दिलाकर बिदा करो किन्तु आपने मेरी बात नहीं मानी और उनसे बहस करने के बाद भाव-ताव करते हुए कंजूसी से चंदा दिया तो अब भुगतो । इधर बंसीलालजी अपने अडौस-पडौस के लोगों से अपनी व्यथा बयान कर रहे थे कि रांड तो गई ही साथ में 16 हाथ की धोती भी ले गई ।

          होली की पूर्व रात्रि में ठौले मसखरी से भरी इसकी तो माँ का... वाली शैली में गली-गली में शवयात्राएँ निकालते थे और उसमें आगे-आगे मटकी लेकर चलने वाला बंदा मैला-गोबर से भरा वह मटका उस शख्स के घर के दरवाजे पर पूरी नारेबाजी व दिलेरी के साथ फोडता था जहाँ से चंदे की माकूल पूर्ति नहीं हुई हो । कम्प्यूटर मोबाईल जैसे संसाधन उस समय होते नहीं थे, प्रत्येक परिवार पोस्ट द्वारा आने-जाने वाली डाक पर ही निर्भर रहते थे और करीब-करीब हर परिवार का अपना पृथक लेटर-बाक्स घर के बाहर या गलियारे में लगा रहता था जिसे पूरी हिफाजत से सयाने लोग होली की पूर्व रात्रि में ही निकालकर अपने कब्जे में कर लेते थे किन्तु जहाँ गल्ति से भी ये लेटरबाक्स लगे रह जाते थे तो फिर उनके अवशेष जली हुई होली में किसी के फरिश्ते भी नहीं ढूंढ पाते थे ।

          कभी जब होली का मूहर्त रात 4 बजे के आसपास का होता और यदि वहाँ नशे की गिरफ्त में आयोजकों की निगरानी में थोडी भी चूक हो जाती तो जैसे आजकल घर के बाहर खडी कारों के भाई लोग बेमतलब कांच फोड जाते हैं वैसे ही एक मोहल्ले की होली दूसरे मोहल्ले के मस्तीखोर सुलगाकर भाग लेते थे । होली के नाम पर वैसे ही सब तरह की गाली-गलौच और बेजा हरकतों की छूट चलती है उसमें मस्तीखोर बढ-चढकर हिस्सेदारी करते थे और गम्भीर प्रवृत्ति के लोग देखकर व मुस्कराकर उसका आनन्द लेते देखे जाते थे । इसी त्यौंहार पर कमोबेश हर तरह के नशे के शौकीन अपने-अपने दारु और भांग की तरंग में-

कीचड, गोबर, चिंथडे, सबकी पूरी छूट
होली का आनन्द ये,   लूट सके तो लू़ट.

          वाली शैली में पूनम से पंचमी तक चलने वाले महापर्व का भरपूर आनन्द निरन्तर बदलते परिवेश में आज तक लेते देखे जा रहे हैं ।

26.3.13

जंवईराज की ससुराली होली...

सासू जब तक सासरा,
 
साला तब तक साख.
 
साले के बेटा भयो फिर,
 
खाक में मिल गई साख.
 
फू.........फा..........



ब्लाग-जगत के सभी साथियों 

और
 
नजरिया ब्लाग के सभी पाठकों, 

समर्थकों और अपने सभी मित्रों-परिचितों को 

होली के इस रंगारंग पर्व की
 
हार्दिक शुभकामनाएँ...

25.3.13

सन्नाटे का ये दौर..

    ब्लागवुड में इन दिनों ब्लागिंग गतिविधियों पर आनुपातिक रुप से एक प्रकार की चुप्पी सा माहौल दिखाई दे रहा है । वर्षों पूर्व से जमे हुए सारे स्थापित ब्लागर इस मुद्दे पर अपनी-अपनी शैली में चिन्ता जताते हुए देखे जा रहे हैं, कहीं-कहीं हिंदी ब्लागरों की तुलना लापता हो चुके डायनासोर प्राणी से की जा रही है जिसके अब सिर्फ जीवाश्म ही शेष बचे हैं । मेरी पूर्ण सक्रियता के लगभग दो वर्ष पूर्व के ब्लागवुड में जहाँ वर्चस्व की होड में आरोप-प्रत्यारोप, ये तेरा गुट ये मेरा गुट और भावनाओं से जुडे धार्मिक आधारों जैसे संवेदनशील मुद्दों पर एक दूसरे की टांग खिंचाई करने वाला माहौल दिखा करता था उसके सर्वथा विपरीत अब सारी चिन्ता 'शोले' फिल्म के मौलवीजी ए. के. हंगल के मशहूर संवाद "इतना सन्नाटा क्यों है भाई" जैसी लग रही है । सुस्थापित लेखकों की पोस्टों पर जहाँ टिप्पणियां देने की होड सी दिखाई देती थी वहीं अब भरे-पूरे तालाब के स्थान पर बचा-खुचा कीचड जैसा माहौल बच रहा लगता है ऐसी स्थिति में यहाँ टिप्पणियां भी कितनी कीमती हो गई दिख रही हैं कि करीब तीन दिन पूर्व मेरे ब्लाग जिन्दगी के रंग पर एक सुपरिचित ब्लाग लेखिका की टिप्पणी आई और घंटे भर बाद वो टिप्पणी गायब भी हो गई, अर्थात् वे लेखिका महोदया उस टिप्पणी को लेकर वापस चली गईं । किसी गल्ति के चलते मुझे ये सामान्य सी बात लगी किन्तु कल फिर मेरे दूसरे ब्लाग स्वास्थ्य-सुख पर फिर उन्हीं लेखिका महोदया का वही कारनामा देखने में आया । मेरी पोस्ट हार्ट अटेक से बचाव वाले लेख पर फिर पहले उनकी टिप्पणी अवतरित हुई और लगभग घंटे भर बाद पुनः वे अपनी टिप्पणी वापस ले गईं

               फिर तो ऐसा लगा जैसे टिप्पणी न हुई कोई गल्ती से दे दी गई मोटी सी चन्दे की रकम रही हो जिसे देने के बाद लगा हो कि अरे इतनी मेहनत से कमाई गई इतनी कीमती दौलत ऐसे ही कैसे दे दी जावे । अरे भई यदि हममें देने की सामर्थ्य ना हो तो हम देने के लिये वहाँ रुकें ही क्यों ? सीधे-सादे सभा में शामिल हों और समाप्ति पर वहाँ से निकल लें कोई आयोजक आपसे हाथ पकडकर तो चंदा मांगने से रहा ठीक वैसे ही जैसे कोई ब्लाग-लेखक आपकी पोस्ट को पढने वाले के सामने तलवार लेकर तो बैठा नहीं है कि ऐ भाई - तूने लेख तो पढ लिया अब टिप्पणी दिये बगैर कहाँ जा रहा है ? आपकी अपनी टिप्पणी है किसी सूदखोर महाजन की बेगारी तो है नहीं जो मर्जी न मर्जी देना ही पडे । क्या ऐसा नहीं लगता कि यदि उपर दर्शाई सुस्थापित ब्लागरों की ब्लागिंग गतिविधियों के क्षेत्र में चल रही उदासीनता के प्रति जो चिन्ताएँ परिलक्षित हो रही हैं उसकी जड में ऐसे किंकर्त्यविमूढ ब्लागरों की मानसिकता भी छोटे स्तर पर ही सही लेकिन कुछ महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है ।

               मैं अपनी सक्रिय ब्लागिंग के लगभग दो वर्ष बाद हफ्ते भर में अपने तीनों ब्लागों पर लगातार यदि 7-8 पोस्ट पुनः डाल चुका हूँ तो यकीनन ये सक्रियता ना तो किन्हीं टिप्पणियों के लालच में उपजी है और न ही कोई स्थापित ब्लागर मुझे तवज्जो दें इस चाहत में, बल्कि मेरी ये सक्रियता इसी ब्लाग पर मेरे दि. 22-12-2010 की पूर्व पोस्ट "ब्लागिंग तेरे लाभ अनेक" में दर्शित उस सोच पर आधारित है जिसमें मैंने मजाकिया लहजे में "इसका एक सबसे बडा लाभ जो मेरी जानकारी में आया है वह ये कि अन्तर्जाल (इन्टरनेट) के इस माध्यम से ब्लाग्स के द्वारा जो हम अपने विचारों की लडियों को यहाँ पिरोए जा रहे हैं, सही मायनों में इस तरीके से हम इतिहास में भी स्वयं को दर्ज करते जा रहे हैं । क्योंकि देर-सवेर हमारा ये नश्वर शरीर तो इस संसार से विदा ले लेगा किन्तु अपनी वैचारिक लेखन-शैली से जो कुछ भी हम यहाँ छोडकर जा चुके होंगे वो आने वाले दशकों ही नहीं बल्कि शतकों तक भी इस पटल पर हमारे नाम के साथ जिन्दा ही रहेगा ।"  वाली सोच के परिणामस्वरुप है क्योंकि जिन एकाधिक कारणों से मैं यहाँ से विमुख हुआ तब से लगाकर अब तक के दरम्यान शायद ही कोई दिन ऐसा रहा होगा जब मैंने अपने डेशबोर्ड के आंकडों को चेक न किया हो और मैंने लगातार ये देखा कि मेरे नजरिया और जिन्दगी के रंग ब्लाग पर औसतन 20 से 50 पाठक प्रत्येक दिन और स्वास्थ्य-सुख ब्लाग पर 150 से 250 पाठक प्रतिदिन नियमित रुप से आते रहे हैं और जितना समय देकर जिस सक्रियता से मैंने इन पर अपनी पोस्ट लिख-लिखकर डाली थी मेरी लम्बी निष्क्रियता के दौरान भी इतने पाठकों की नियमित आवाजाही अपने अस्तित्व के दिखते रहने हेतु कम नहीं थी । अतः जन-सामान्य के दैनिक जीवन में किसी भी रुप में उपयोगी लगने वाली सामग्री चाहे वह मनोरंजन के रुप में ही क्यों न हो मुझे इसमें बढानी चाहिये वाली सोच के साथ ही मैं अपनी वर्तमान सक्रियता यहाँ स्वयं की नजरों में देख रहा हूँ । वैसे भी अपनी प्रवृत्ति 'के तो गेली सासरे जावे नी, और जावे तो पछी वापस आवे नी' वाली ही रही है ।



               अपनी सक्रियता के पूर्व समय में "ला मेरी चने की दाल" वाली ये प्रवृत्ति ब्लाग के अनुसरणकर्ताओं के रुप में बहुतायद से देखने में आती थी जब जहाँ किसी ने समर्थन के एवज में समर्थन नहीं दिया या जिससे अपने विचार मिलते नहीं दिखे तत्काल उसके ब्लाग के समर्थनकर्ताओं की सूचि से अपना नाम वापस निकाल लिया वाली मानसिकता बहुतायद में देखने में आती थी और उसी शैली में मैंने भी किसी क्षुब्ध मनोदशा में किसी ब्लाग से अपना अनुसरण वापस ले लिया था जिसकी खटास उन ब्लागर महोदय के साथ के मेरे संबंधों में आज तक कायम दिख जाती है ऐसे में मात्र लिखकर छोडी गई टिप्पणी को वापस ले जाना ? वाकई मुझे लगता है कि ये हिन्दी ब्लागजगत के इस संक्रमणकालीन दौर की इंतहा ही है ।


            पुनश्च - उपर वर्णित ये दोनों टिप्पणियां स्पेम बाक्स में आराम फरमाती हुई मिल गई थी, उसके बाद कायदे से तो यह पोस्ट ही मुझे हटा देनी चाहिये थी किन्तु एक तो उससे ब्लागजगत से जुडे दूसरे अन्य मुद्दे भी शहीद हो जाते और दूसरे इस प्रकार की समस्या किसी अन्य कम प्रशिक्षित ब्लागर की पोस्ट पर भविष्य में कभी भी यदि आती तो वो भी इतना ही असमंजस की स्थिति में आ जाता । अतः इस निवेदन के साथ की प्रिंट हो चुकने के घंटे-दो घंटे  बाद तक भी कोई टिप्पणी स्वमेव स्पेम बाक्स में जा सकती है कि जानकारी दिमाग में रखते हुए ऐसी स्थिति से सम्बन्धित कोई भी ब्लागर मित्र अपना स्पेमबाक्स अवश्य चेक करलें । शेष धन्यवाद सहित...


22.3.13

अनेकों में एक - क्रोध के दुष्परिणाम

    
           क्रोध जिसकी शुरुआत हमेशा मूर्खता से होती है और अन्त सदैव पश्चाताप पर होता है, यह बात हम सब जानते हैं कि क्रोध किसी भी समस्या का समाधान नहीं है बल्कि इसके कारण सामान्य रुप से सुलझ सकने वाली समस्याएँ भी सदा-सर्वदा के लिये उलझकर रह जाती हैं किन्तु उसके बाद भी छोटे-बडे सभी उम्र व हैसियत के सामान्य व विशेष व्यक्ति इसके आवेग में आकर दुःख व नुकसान से बच नहीं पाते और अपने स्वयं के व अपने करीबी परिवारजनों के लिये समस्याओं के अंबार खडे कर लेते हैं-


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          ताजा उदाहरण में एक ऐसे दम्पत्ति सामने आ रहे हैं जिनके घर में काम करने वाले सेवक को काम के दरम्यान कुछ चोट लग गई । दम्पत्ति ने उसका उपचार व दवा की व्यवस्था कर दी । दो-एक बार उसके द्वारा दवाई के नाम पर मांगे गये पैसों की फरमाईश भी पूरी कर दी किन्तु जब फिर से उस सेवक ने अपनी मालकिन से उपचार के नाम पर पैसे माँगे तो मालकिन को लगा कि ये तो इसने पैसे वसूलने का बहाना बना लिया है नतीजतन उन्होंने कुछ तल्खी से उस सेवक से कह दिया कि अब जो भी पैसे मिलेंगे वे तुम्हारी तनख्वाह से कटकर ही मिलेंगे । सेवक को लगा मालकिन मेरे साथ ज्यादती कर रही है उसने भी तल्ख शैली में विरोध किया । मालकिन ने इसे उसकी बद्तमीजी मानते हुए क्रोध में उसे एक थप्प़ड जड दिया और अपने सामने से दफा होने का आदेश सुना दिया । मालिक के घर आने पर मालकिन व सेवक दोनों ने अपने-अपने तरीके से उनसे एक-दूसरे की शिकायत की, मालिक के सामने भी स्वयं की बीबी और घर के पैसे का महत्व ज्यादा था नतीजतन पैर का घुटने की दिशा में ही मुडने के नियमानुसार उन्होंने भी न सिर्फ उस सेवक को बुरी तरह से डांटा-फटकारा बल्कि आगे से ऐसी स्थिति बनने पर उसके खिलाफ पुलिस में कार्यवाही करने की धमकी भी दे डाली जिससे सेवक और भी मन ही मन उबलकर रह गया ।
       
      यह दम्पत्ति प्रौढावस्था में थे और भरापूरा परिवार होने के बावजूद कारोबारी आवश्यकताओं के चलते शहर के अन्तिम छोर पर अकेले रहते थे, जबकि सेवक शारीरिक रुप से तरुणाई की उम्र में होने के कारण अधिक बलिष्ठ भी था । क्रोध के इसी दौर के चलते दूसरे दिन मालिक के काम पर जाने के बाद खुन्नस में मौका देखकर उस सेवक ने मालकिन की अनभिज्ञता का लाभ उठाया और पीछे से उनके गले में दुपट्टा डालकर उस दुपट्टे से तब तक उनका गला दबाता चला गया जब तक की मालकिन के प्राण नहीं निकल गये । इस दरम्यान मालकिन के भाई का घर पर फोन आने पर सेवक ने उन्हें बोल दिया कि मालकिन तो बाजार गई है । मोबाईल पर भी जब मालकिन से भाई का सम्पर्क नहीं हो पाया तो उसने अपने जीजाजी को खबर की कि बहन से कोई सम्पर्क नहीं हो रहा है उन्होंने भी फोन लगाया तो सेवक के द्वारा उन्हें भी यही जवाब मिला कि वे तो बाजार गई हैं, किसी अनहोनी की आशंका के साथ मालिक तत्काल घर की ओर दौडकर आये जहाँ उनके घर में घुसते ही खुन्नस में भरे उस सेवक ने उनके भी पीछे से काँच की एक वजनी चौकी उठाकर उनके सिर पर पूरी ताकत से दे मारी । काँच तो टूटना ही था, मालिक भी इस अचानक हुए प्रहार से चोटिल होकर अचेतावस्था में गिर पडे और तब उसी चौकी के बडे से काँच के एक टुकडे को कपडे से पकडकर उस नौकर ने अपना सारा क्रोध उंडेलते हुए मालिक के अचेत शरीर पर उनकी मृत्यु होने तक इतने वार किये कि पूरे घर में खून का सैलाब सा फैल गया ।


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       बाद के चिर-परिचित घटनाक्रम में शोक-संतप्त परिवारजनों का ह्रदयविदारक विलाप व भागे हुए सेवक की गिरफ्तारी ये सब तो होना ही था किन्तु समूचे घटनाक्रम में एकमात्र जिम्मेदार कारण सिर्फ क्रोध ही रहा जिसके कारण पति-पत्नी के रुप में दो जीवन अकाल मृत्यू की स्थिति में और एक सेवक जीवन भर के लिये सींखचों की गिरफ्त में चला गया और इन सभीके परिजनों को तो इनके न रहने का खामियाजा अब भुगतते रहना ही है ।


      यह भी सही है कि मानव जीवन में प्रत्येक के साथ ऐसे अवसर आते ही हैं जब उसका क्रोधित होना लगभग आवश्यक हो जाता है या वह क्रोध से बच नहीं पाता ऐसे में इस समस्या का समाधान क्या ? समस्त विचारकों की राय में जब भी क्रोध आवे तो हम तत्काल उस पर अपनी प्रतिक्रिया न करते हुए उस समय मौन रहकर उसका सामना करें और यदि यह सम्भव हो तो उस वक्त वहाँ से स्वयं को हटा लें । कुछ ही घंटे बाद हम उस समस्या का ठंडे मस्तिष्क से निश्चय ही अधिक बेहतर समाधान निकाल सकेंगें

माचिस की तीली का सिर्फ सिर होता है 
दिमाग नहीं, जबकि हमारे पास सिर भी 
होता है और दिमाग भी किन्तु फिर भी हम 
छोटी-छोटी बातों पर क्यों भभक उठते हैं ?

    

8.3.13

जीवन पर भारी – फेसबुक की यारी

            इन्दौर के चन्दन नगर में रहने वाले 21 वर्षीय कम्प्यूटर शिक्षक मजहर खान ने इसी वर्ष 4 मार्च को फाँसी लगाकर अपनी जीवनलीला समाप्त करली । पुलिस जाँच में उसके घर वालों ने बताया कि मजहर फेसबुक पर किसी लडकी से चेटिंग करते रहने के दौरान उसके प्यार के प्रति गंभीर होता चला गया जबकि कोई अमीर युवती उसके साथ सिर्फ समयपास मनोरंजन कर उसकी भावनाओं से खिलवाड कर रही थी । जब मजहर के प्रेम का यह भ्रम पूरी तरह से टूट गया तो वो इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर पाया और निराशा के गर्त में डूबकर उसने फाँसी लगाकर अपना जीवन ही समाप्त कर लिया ।

        इस घटना के कुछ ही समय पहले फेसबुक के प्रेम-प्रसंग का एक रोचक वाकया ऐसा भी सामने आया था जिसमें चेटिंग के दरम्यान होने वाले प्यार में युवती ने जब अपने प्रेमी से मिलने की इच्छा जताई तो प्रेमी महोदय ने उसे ही अपने पास आने का अनुरोध किया ।  प्रेम की गिरफ्त में आकंठ लिप्त युवती सेकडों किलोमीटर का सफर तय करके जब अपने फेसबुक प्रेमी से मिलने उसके नगर में पहुँची तो प्रेमी महोदय ने उसके मोबाईल की फोनकाल रिसीव करना भी बन्द कर दिया । किसी अंजान हितैषी की मदद से दूसरे मोबाईल नंबर द्वारा उस तरुणी ने अपने प्रेमी को फोन करवाकर धोखे से उसे अपने सामने बुलवाया तो यह देखकर वह युवती भौंचक्क रह गई कि उसके सामने उसके दादाजी की उम्र का 62-63 वर्षीय बुजुर्ग जो फेसबुक पर लम्बे समय से उससे प्रेम का दावा कर रहा था, आकर खडा हो गया । तब अपने उस फेसबुकी प्रेमी की लानत-मलानत करते हुए अपनी किस्मत को कोसतेकलपते वह युवती वापस अपने गृहनगर रवाना हुई ।

       
इसी कडी से जुडा 4-5 मिनीट के वीडियो क्लिपिंग में एक गडबडझाला यू-ट्यूब पर भी देखा जा सकता है जहाँ अत्यन्त प्रसन्न मुद्रा में एक युवक व युवती इस माध्यम से चेटिंग के द्वारा एक-दूसरे के सम्पर्क में आते हैं, दोनों में मनपसन्द वार्तालाप होता है फिर एक ही शहर के होने के कारण मिलने का समय और स्थान जो एक सायबर केफे के किसी केबिन नंबर के द्वारा सेट होता है वहाँ आकर्षक परिधान में सज-संवरकर बाजार से गुलदस्ता खरीदते हुए युवक जब उस सायबर केफे के तयशुदा केबिन में प्रवेश करता है तो वहाँ प्रतिक्षारत युवती और वह आगंतुक युवक शर्म से पानी-पानी हो जाते हैं क्योंकि वे दोनों सगे भाई-बहिन ही निकलते हैं ।

       
सोशल मीडिया के इस लोकप्रिय माध्यम का युवाओं पर इतना व्यापक असर देखने में आ रहा है कि लडका या लडकी दोनों में से कोई भी एक यदि तयशुदा समय में चेटिंग पर उपलब्ध नहीं हो पाए तो कम्प्यूटर पर मौजूद दूसरे पक्ष की व्यग्रता देखते ही बनती है । फेसबुक की ऐसी ही दीवानगी अपने युवा होते पुत्र में पिता ने जब देखी तो केरियर के प्रति गम्भीर रहने की समझाईश देते हुए पिता ने अपने पुत्र से कहा कि बेटा इस फेसबुक से तुम्हें जीवन में रोटी तो नहीं मिलेगी क्यों यहाँ व्यर्थ में अपना समय बर्बाद कर रहे हो तो बेटे ने तत्काल अपने पिता को जवाब दिया कि- पापा, ये तो मैं भी जानता हूँ कि इस फेसबुक से मुझे जीवन में रोटी नहीं मिलेगी परन्तु मेरे जीवन के लिये रोटी बनाने वाली तो मुझे इसी फेसबुक से ही मिलेगी । 
       
        इस समयपास माध्यम से मेच्यूअर लोग तो मानसिक रुप से अप्रभावित ही रहते हैं किन्तु युवावस्था की दहलीज पर खडे नये युवक-युवतियों के लिये ये दिल्लगी ऐसी दिल की लगी साबित हो रही है जो उनके सोचने-समझने के दायरे को दिल से निकलकर दिमाग तक शायद पहुँचने ही नहीं दे रही है और गाहे-बगाहे ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति किसी न किसी बदले हुए रुप में लगातार देखने में आ रही हैं । अतः ऐसी घटनाओं के दुःखद परिणामों को देखते हुए नई युवा पीढी को यह ध्यान में रखना ही चाहिये कि पांच-पच्चीस से लगाकर सौ-दो सो व हजारों-हजार अपरिचित मित्रों तक पहुँचा देने वाला यह आभासी माध्यम हमारे जीवन को किसी भी रुप में दुःखों के गर्त में न धकेल पावे ।
      
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