12.7.12

पकी उम्र में नये जीवन-साथी का साथ...

         
        पिछले दिनों एक आश्चर्यजनक घटनाक्रम के अनुसार पैतृक रिश्ते के एक परिचित की गुमनाम मृत्यु की जानकारी मिली । पता चला कि उन्हें गुजरे वर्ष भर से उपर का समय व्यतीत हो चुका । उनकी गुमनाम मृत्यु का कारण सिर्फ यह रहा कि 56-57 की उम्र के दरम्यान उनकी पत्नी की अचानक मृत्यु हो चुकने के कुछ समय बाद उन्होंने अपने साथ नौकरी करने वाली समान स्थिति की किसी महिला से विवाह कर लिया था यह स्थिति उनके इकलौते बेटे-बहू को इतनी नागवार लगी कि उन्हें अपना निजी मकान उन बेटे-बहू को सौंपकर अपनी उस नई जीवन संगिनी के साथ किराये के अन्यत्र मकान में रहने जाना पडा । उसके बाद भी उनके बेटे-बहू ने उनसे इस कदर बेरुखी बनाये रखी कि उनकी बीमारी व मृत्यु तक के बारे में न उन्होंने स्वयं उनके पास जाना मुनासिब समझा और न ही किसी अन्य परिचितों व रिश्तेदारों को अपनी ओर से चलाकर उनके बीमार होने व दुनिया से रुखसत हो जाने बाबद कोई जानकारी ही देना उचित समझा ।

            इसके पहले भी इससे मिलते-जुलते घटनाक्रम में ऐसे ही एक अधेड शख्स जो निःसंतान मिल मालिक थे और हमारे साथ सोशल-ग्रुप में रहकर अपनी करोडपति हैसियत के मुताबिक जब-तब हजारों-हजार रुपयों का चन्दा सामाजिक कार्यों में दिया करते थे । एक दिन दुर्योगवश भरी दोपहरी में उनकी गैर मौजूदगी में कुछ लुटेरे उनके घर में घुस गये और विरोध से बचने हेतु उनकी पत्नी के हाथ-पैर व मुँह बांधकर, उन्हे अनाज के एक बडे थैले में बंदकर घर से लूट-पाट कर फरार हो गये । तीन-चार घंटे बाद जब ये परिचित घर पहुँचे तब तक दम घुट जाने से उनकी पत्नी की मृत्यु हो चुकी थी । संकटकाल का वह समय व्यतीत कर चुकने के कुछ महिनों बाद उन्होंने भी अपने एकान्तवास का सहारा तलाशने हेतु अपनी ही मिल में कार्यरत किसी जरुरतमंद महिला से विवाह कर लिया और उसके बाद सामाजिक स्तर पर उनकी जो थुक्का-फजीहत हुई उसके चलते उन्हे न सिर्फ अपने सोशल-ग्रुप व नाते-रिश्तेदारों को छोडना पडा बल्कि वर्षों से रह रहे अपने उस निजी मकान को बेचकर दूर-दराज के किसी अन्यत्र मकान में रहने के लिये अपना नया आशियाना बनाना पडा ।

          करीब-करीब सभी जानकारों से यह जब-तब यह सुनने को मिलता रहता है कि जीवन-साथी के साथ का महत्व तरुण व युवावस्था से कहीं अधिक वृद्धावस्था में बढ जाता है फिर आवश्यक होने पर यदि वृद्धावस्था में इन्सान अपने लिये फिर से किसी जीवन साथी को जुटाने की कवायद यदि कर लेता है तो उसका सामाजिक व पारिवारिक रुप से इतना बहिष्कार क्यों होने लगता है ?

          वर्षों पूर्व हमारे बडे भाई के मित्र की पत्नी बहुत ही कम उम्र में दो-पुत्र व एक पुत्री को अबोध अवस्था में अपने पति के पास छोडकर देवलोकवासी हो गई थी । तब जबकि पत्नी के साथ की शारीरिक रुप से सर्वाधिक जरुरत किसी पुरुष को हो सकती है उस अवस्था में उन परिचित ने बगैर दूसरा विवाह किये जमाने भर के कष्ट उठाते हुए अपने उन बच्चों को अकेले ही बडा किया, उन्हें पढा-लिखाकर सब तरह से योग्य बनवा कर उनके विवाह करवाये और फिर स्वयं अपनी भी शादी करके बच्चों की दुनिया अलग और अपनी दुनिया अलग बसा ली । यहाँ किसी का कोई विरोध नहीं हुआ क्योंकि उनके बच्चे अपने पिता के एकाकी जीवन की कठिनाईयां देखते हुए ही बडे हुए थे किन्तु उसके बाद भी किसी सामान्य गृहस्थ के बेटे-बहू व नाती-पोतों के साथ रह सकने के सामान्य सुख का मोह तो उन्हें भी छोडना ही पडा ।

          आखिर विधवा-विवाह, पुर्नविवाह जैसे आदर्शवादी मुद्दों पर भीड में नैतिकतावादी भाषण देने वाले समाज व परिवारजन ऐसी ही स्थिति को अपने बीच देखने पर इस प्रकार हिकारत से नाक-भौं सिकोडते क्यों दिखाई देने लगते हैं ?