18.1.12

अन्तर 'जाओ' और 'आओ' का.

        मुनीम गुमाश्ता और नौकर चौकरों से भरीपूरी एक फर्म के मालिक का जब देहावसान हो गया तो उसके दोनों पुत्रों में उनकी सारी सम्पत्ति और कारोबार का उनके परिचितों की मौजूदगी में बराबरी से बंटवारा हो गया । पर्याप्त सम्पत्ति के साथ ही दूर-दराज तक फैले कारोबार के कारण बडे पुत्र का ध्यान काम-धंधे से हटकर नाना प्रकार की विभिन्न गतिविधियों में लगने लगा इस दौरान उसके हिस्से के कारोबार की कोई भी समस्या होती तो उसका उत्तर अपने अधीनस्थों से यही होता कि जाओ इस काम को ऐसे कर लो । इसके विपरीत छोटे पुत्र का रुझान व्यापार में अधिक होने के कारण वह न सिर्फ लगातार अपने व्यापार-कार्य में व्यस्त रहने लगा बल्कि कोई भी सम्बन्धित समस्या सामने आने पर अपने अधीनस्थों को साथ बैठाकर कहता कि आओ इस काम को ऐसे करें ।

            समय गुजरता गया और बडा भाई जिसका सूत्रवाक्य यह बन चुका था कि जाओ काम करो उसका न सिर्फ काम बल्कि धन-सम्पदा भी धीरे-धीरे घटती चली गई जबकि छोटा पुत्र जो अपने अधीनस्थों से निरन्तर यही कहता रहा कि आओ काम करें उसके व्यापार व सम्पदा में निरन्तर बढोतरी होती चली गई ।

           जब यह अन्तर अधिक बढ गया तो बडे भाई ने अपने छोटे भाई से कारण समझने का प्रयास करते हुए पूछा कि भाई पिताजी के जाने के बाद हम दोनों में उनकी सम्पत्ति और व्यापार का बराबरी से बंटवारा हुआ आज तक हम नया कोई व्यवसाय करें बगैर उन्हीं के काम को आगे बढाते हुए अपना जीवन चला रहे हैं फिर क्या कारण है कि मेरा कारोबार सिमटता जा रहा है मेरी सम्पदा भी घटती जा रही है जबकि तुम्हारा व्यापार भी बढ रहा है और तुम्हारी सम्पदा भी, आखिर यह अन्तर क्यों चल रहा है ?

           तब छोटे भाई ने बडे भाई को इस अन्तर का कारण समझाते हुए बताया कि भाई आप किसी भी कार्य के लिये अपने अधीनस्थों से यही कहते हैं कि जाओ काम करो इसीलिये आपका काम भी धीरे-धीरे आपके पास से जाता जा रहा है जबकि में अपने नौकर-चाकरों से कहता हूँ कि आओ काम करें इसलिये काम के साथ दाम भी मेरे पास आता चला जा रहा है । हम दोनों के काम के तरीके में सिर्फ 'जाओ' और 'आओ' का ही अन्तर चल रहा है । तब बडे भाई को अपने काम के तरीके की यह कमी समझ में आ पाई ।

             कुछ ऐसे ही अनुभव से यह ब्लाग स्वामी भी अभी ही दो-चार हुआ है जब उसे यह लगने लगा कि दुनियादारी की समस्त जिम्मेदारियों से मैं निवृत्त हो चुका हूँ । जेब और बैंक खाते भी खाली नहीं है और अब शेष जिन्दगी सीमित आवश्यकताओं के कारण बिना किसी कारोबारी व्यस्तता के भी सुकून से गुजारी जा सकती है तो दो-तीन वर्षों में ही यह समझ में आने लगा कि यदि पन्द्रह-बीस वर्ष भी अभी जिन्दगी के और गुजारना पडे तो अपनी आर्थिक स्थिति किस दयनीय हाल में पहुँच सकती है और इस स्थिति को समझने के बाद जब काम की बागडोर नये सिरे से सम्हाली तो समझ में आया कि जाओ काम करो कि शैली में अपना काम तो कभी का जा चुका है और जैसे किसी दोराहे पर हम गलत दिशा में निकल लें तो जितनी दूर तक गलत चले जावे सही दिशा की वापसी भी उतना ही समय लेती है उसी मुताबिक अपने आप को आओ काम करें कि शैली में परिवर्तित करने का यह दौर चल रहा है ।

          फिल्म अभिनेता शाहरुख खान का एक वक्तव्य कुछ समय पहले पढने में आया था कि हमें आवश्यकता हो या न हो किन्तु पैसे तो कमाते ही रहना चाहिये और पैसे कमाते रहने का फंडा जाओ काम करो कि शैली में कभी भी सफलतापूर्वक नहीं चलाया जा सकता ।

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16.1.12

भलमनसाहत का परिणाम ऐसा भी...?

            
        दो छोटे लडकों के लगभग 40-42 वर्षीय पिता के ममेरे भाई के अल्प स्वरबाधित अन्डरग्रेजुएट लडके के विवाह सम्बन्ध हेतु जब प्रयास चल रहे थे तो इस युवक ने अपनी ही कालोनी में रहने वाले अपने एक पूर्व अभिन्न व आर्थिक स्थिति में कुछ कमजोर मित्र की पोस्ट ग्रेजुएशन कर रही लडकी का रिश्ता उन्हें सुझाया ।

        इस लडकी के प्रति इनका मोह शुरु से ही सामान्य से अधिक इसलिये भी था कि इनकी अपनी कोई लडकी थी नहीं और अपनी देखरेख में ये उस लडकी को अपनी ही रिश्तेदारी के आर्थिक रुप से मजबूत घर में भिजवाकर दोनों परिवारों में रिश्ते को और अधिक प्रगाढ बनाना चाह रहे थे । मन के किसी कोने में यह चाह भी चल रही थी कि मेरी तो कोई लडकी है नहीं अतः इस लडकी का सम्पूर्ण विवाह मेरे चाहे मुताबिक हो सके ।


        तत्काल वर पक्ष ने मात्र कंकू-कन्या की चाहत के साथ रिश्ता तय कर दिया और उसी समय सगाई भी कर दी । अब लडकी के पिता की व्यस्तता के चलते लडकी की वैवाहिक आवश्यकताओं की खरीददारी ये बंधु उसे अपने साथ ले जाकर करवाने लगे । आधे से अधिक बार अपनी जेब का पैसा उस खरीददारी में खर्च कर खुश होते रहे किन्तु कालोनी में उनका निरन्तर इस प्रकार बाजार में साथ-साथ जाना और लगातार साथ-साथ दिखाई देना जितने मुंह उतनी बातें वाला कारण बनता चला गया । माता-पिता, पत्नी व दो पुत्रों के पालनहार इस युवक ने यह सोचते हुए कि मैं जो कुछ कर रहा हूँ सही ही कर रहा हूँ अपने घर वालों को विश्वास में लेना भी जरुरी नहीं समझा जबकि इधर  निरन्तर चलती रहने वाली बातों ने न सिर्फ उनके सारे परिचितों में बल्कि उनके माता-पिता व पत्नी की नजरों में भी इन्हें ही दोषी बनवाया । 

     उधर लडकी के भावी ससुराल वालों ने भी अप्रत्यक्ष रुप से इनकी ही लानत-मलानत की जिसके चलते खिन्न मनोदशा में अपने ही परिवार की इस शादी में वर पक्ष के घर जाने से इन्हें स्वयं को दूर कर लेना पडा । यह स्थिति भी इनके माता-पिता के लिये पर्याप्त पीडादायक साबित हुई । आखिरकार रिश्तेदारी में एक सीनियर सम्बन्धी के बहुत समझाने पर ये उस शादी में अपने माता-पिता का मन रखने की खातिर सिर्फ मुंह दिखलाने जैसी स्थिति में मात्र दस बीस मिनिट के लिये शामिल हुए और पानी तक पीये बगैर वहाँ से वापिस आ गये ।

          इस समूचे प्रकरण में लडकी को अच्छा घर मिल गया वह अपने घर चली गई । लडकी के माता-पिता हींग लगे न फिटकरी वाली स्थिति में अपनी जिम्मेदारी से निवृत्त हो लिये । ममेरे भाई के परिवार में भी अल्पशिक्षित व अल्प स्वरबाधित लडके को अपने से अधिक शिक्षित व सर्वांग स्वस्थ सुन्दर लडकी मिल गई । किन्तु सबके भले की मानसिकता से इन कडियों को जुडवाने वाले इस सूत्रधार युवक को अपनी भलमनसाहत के एवज में क्या मिला घर-परिवार व पास-पडौस में इनके खिलाफ ऐसी कानाफूसी जिसका कोई वजूद था ही नहीं और रिश्तेदारी के ममेरे भाई के घर का जन्म से अब तक का सम्बन्ध जो फिलहाल तो इनके लिये खत्म सा ही हो गया । 

          बहुत नजदीकी से इन परिवारों से जुडे रहने व सबकी स्थितियों को भली प्रकार से समझने के कारण मन में यही कहावत सामने आई कि- भलमनसाहत घुस गई दुनियादारी के जंजाल में...